प्रेम को जिसने जाना, उसे फिर कुछ जानने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि प्रेम ही ऊंचाइयों में, प्रार्थना बन जाती है। प्रार्थना अन्तत: परमात्मा का रूप ले लेती है। प्रेम सीढ़ी का पहला पायदान है, प्रार्थना मध्य, परमात्मा अन्त।
जिसने प्रेम को परमात्मा से भिन्न समझा, वो चूक ही गये, रास्ते से भटक ही गए। जिसने प्रेम के बिना प्रार्थना की, उनकी प्रार्थना दो कौड़ी की हैं, क्योंकि प्रेम के बिना प्रार्थना में कोई रसधार नहीं रहता। उनकी प्रार्थना में उनके हदय का कोई भाग साथ नहीं होता, उनकी प्रार्थना गणित हैं, हिसाब है, तर्क है, और तर्क, हिसाब से, गणित से, कोई परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता। उसको तो हदय की मस्ती और प्रार्थना में लीन होने की क्षमता चाहिए जो परमात्मा तक पहुंचाने में सहयोग देती हैं।
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