सरोकार की मीडिया

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Tuesday, November 21, 2017

जूते की अभिलाषा

जूते की अभिलाषा

चाह नहीं मैं विश्‍व सुंदरी के पग में पहना जाऊं
चाह नहीं दूल्‍हे के पग में रह, साली को ललचाऊं
चाह नहीं धनिक के चरणों में, हे हरि डाला जाऊं
.सी. में, कालीन में घूमूं, और भाग्‍य पर इठलाऊं
बस निकाल कर मुझे पैरों से, उस मुंह पर तुम देना फेंक

जिस मुंह से भी नेताओं ने जनता से झूठे वादे किए अनेक....

Saturday, November 18, 2017

ये सोच रहा हूं........

ये सोच रहा हूं........
मिल जाएंगी दो रोटियां ये सोच रहा हूं
इस वास्‍ते मुर्दों के कफन नोच रहा हूं
कातिल समझ न बैंठे मुझे लोग इसलिए
दामन पे लगा खूने-जिगर पोंछ रहा हूं
दुनिया से मिटे कैसे ऐ नफरत का अंधेरा
ऐ वक्‍त जरा ठहर अभी सोच रहा हूं
मंहगाई ने है मारा मुझे ऐसा दोस्‍तों
बच्‍चों को जहर देने की मैं सोच रहा हूं
कहते हैं क्‍यों तुझे लोग सुखनवर

औरों की तरह मैं भी यही सोच रहा हूं....

Wednesday, November 15, 2017

बाबाओं की हकीकत

बाबाओं की हकीकत

आस्‍था का भय दिखाकर लोगों से भगवान के नाम पर चढ़ने वाली चढ़ौत्री से अपनी-अपनी तोंदों को दिन दूनी रात चौगनी वृद्धि करने वाले तथाकथित बाबाओं कब तक भगवान के नाम पर लोगों को लूटने का काम करते रहोगे....मुफ्त का खा-खा कर अपनी-अपनी तोंदें देखी हैं... किसी तरह फैल चुकी हैं ऐसा लगता है कि अब फटेगी या तब फटेगी... पर इनको क्‍या फर्क पड़ता है। ठेका जो खोल रखा है भगवानों का, जहां से मुफ्त का माल मिल ही जाता है.... और वो भी ट्रैक्‍स फ्री... इन तथाकथित बाबाओं पर तो कोई ट्रैक्‍स भी नहीं लगता.... अरूण जेटली को चाहिए था कि इन बाबाओं की आमदनी पर ट्रैक्‍स लगाकर 28 प्रतिशत तक जीएसटी भी लगा देते तो शायद इनकी तोंदों में कुछ हद तक कमी आ जाती... परंतु नहीं, क्‍योंकि भगवान पर जीएसटी कहां लगती है लगती तो बस आम आदमी पर है.. गरीब आदमियों पर... वैसे एक साल पहले जब नोट बंदी हुई थी तब से लेकर अब तब मुझे कोई बाबा लाइन में लगा नजर नहीं आया जो नोट बदलने बैंकों की लाइनों में लगा हो... तो क्‍या यह मान लिया जाए कि यह बाबा कंगाल थे इनके पास 500 और 1000 के एक भी नोट नहीं थे या यह मान ले कि भगवान स्‍वयं आकर इनके पास जमा रकम को रातों रात बदल कर चले गए... या यह मान ले की अंदर ही अंदर इनके पास जमा काली रकम को नेताओं ने सफेद कर दिया......
अब कुछ लोग कहेंगे की इनके बाबाओं के पास इतनी रकम नहीं थी कि वो लाइन में लगकर इनके बदलवाते... इस तर्क पर वितर्क किया जा सकता है क्‍योंकि आमतौर पर इन बाबाओं के पास मंहगें-मंहगें आई फोन, लग्‍जरी गाडियां देखी जा सकती हैं... जो कहीं न कहीं चढ़ावें की रकम से खरीदी गई हैं... यानि मंदिरों में मोटी-मोटी रकम चढ़ावें के रूप में चढ़ती है तभी तो यह बाबा अपना शौक पूरा करते देखे जा सकते हैं.... वैसे बाबा तो वह होता है जो सब कुछ त्‍याग देता है.... और अपनी श्रद्धा भक्ति से लोगों की मदद करता है... लग्‍जरी गाडियों, मंहगें-मंहगें फोन और एसीओं में रहने वाले बाबा कैसे हो सकते हैं यह तो ढोंगी बाबा हैं जो अपने प्रपंच से लोगों को चूतिया बनाकर उन्‍हें लूटने का काम करते हैं.....

वैसे चूतियों की जमात कुछ कम नहीं है जो इन तथा‍कथित बाबाओं को भगवान का दर्जा दे देते हैं... लोगों द्वारा भगवान का दर्जा मिल जाने के कारण शासन-प्रशासन भी इन बाबाओं पर आसानी से हाथ डालने से कतराती नजर आती है क्‍योंकि उनके जनता का भय रहता है कि कहीं बाबाओं पर हाथ डाला तो जनता उग्र रूप न अपना ले... तो वह बाबाओं के मामले में बचती नजर आती है.. चाहे यह बाबा अच्‍छा काम करें, या फिर बुरा..... क्‍योंकि इन बाबाओं के लिए  नियम और कानून शायद अलग होते हैं... तभी तो एक आम आदमी गांजा पीता है तो उसको पकड़ कर जेल में डाल दिया जाता है वहीं बाबाओं द्वारा पूरी की पूरी गांजा की खेती की जाती है और उसको कोई नहीं पकड़ता... तो हुआ ना इन बाबाओं के लिए कानून अलग... खैर वर्तमान समय हो या पहले का धर्म के नाम पर बाबाओं द्वारा लूटा जाता रहा है और लूटा जाता रहेगा.... 

Monday, November 13, 2017

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में मीडिया ट्रायल

वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में मीडिया ट्रायल


 भूमिका

मीडिया एक ऐसा नाम जो किसी पहचान का मोहताज नहीं है, इसकी ताकत को मापकर किसी ने इसे चैथे खंभे की उपाधि से नवाजा तो वहीं किसी ने इसे समाज के आईने का तमगा दे दिया। यह वह आईना है जिसने देखते ही देखते वक्त के बदलते हालात के साथ-साथ मीडिया के सारे सरोकार ही बदल कर रख दिए। भूमंडलीकरण के अंधे दौर में मीडिया भी बाजार के साथ दो-दो हाथ करता नजर आया। साम- दंड, भेद -भाव, पैसा, यह सब मीडिया के लिए अनैतिक होने के बजाए हालात का प्रतीक चिह्न बन गए। जिसे समाज ने भी कबूलने में कोई कोताही नहीं की। इस बदलते परिवेश की ही देन रही कि वक्त के बदलते पगडंड़ियों पर चलते-चलते मीडिया ने खबरों को वही पुराने मिजाज से दिखने के बजाए इस चटकारे और मसाले में भुजना ही बेहतर जाना।
वर्तमान में तेजी से उभरती मीडिया ट्रायल की संकल्पना बहुत हद तक इसी की देन है। मीडिया ट्रायल को टी.वी. अधिक कवरेज मिलने के पीछे इसी बाजारवाद का स्वरूप ही प्रमुख रहा। संवेदनशील खबरों को बे्रकिंग व एक्सक्लूसिव में गढ़कर दर्शकों के कमरे तक पहुंचाया गया। रहस्यमय हत्या की वारदाते, हाई प्रोफाइल, दंपत्तियों की खबरे, अभिनेता, राजनेता, इस मीडिया ट्रायल के प्यादे बने, जिसे मीडिया जब चाहे जिधर चाहे दौड़ा सकता था। ठीक वैसे ही जिस तरह किसी सतरंज की बाजी में प्यादे भागे फिरते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में बात करे तो वक्त-वे-वक्त मीडिया ट्रायल को एक गुनहगार की तरह सवालों के कटघरे में खड़ा किया गया है। कुछ हद तक इसका दोषी खुद मीडिया है। मगर ज्यादातर मामलों में राजनेता और व्यक्ति विशेष अपनी लुटती साख बचाने के लिए मीडिया ट्रायल को हमेशा-हमेशा के लिए बंद करने को लेकर कई दफा आदालत/कानून का दरवाजा बेवजह ही खटखटा चुके हैं।
वैसे मीडिया ट्रायल के संदर्भ में साफ और सटीक विश्लेषण किया जाए तो, मीडिया पर यह आरोप अक्सर लगता है कि किसी अपराध को सनसनीखेज बनाकर मीडिया खुद ही जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है, जबकि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आसपास भी नहीं पहुंचती। यानि मीडिया जब किसी खास मामले की ज्यादा-से-ज्यादा कवरेज और उसकी तह में जाने की हद से ज्यादा कोशिशें होने लगती है और सच्चाई का खुलासा करने की होड़ में आरोपियों और मामले से जुड़े लोगों की सरेआम कैमरे पर इस तरह जिरह होने लगती है जैसे अदालत में कोई मुकदमा चल रहा हो। ऐसी स्थिति में मीडिया न्यायालय के विचाराधीन किसी प्रकरण के होते हुए भी न्यायपालिका के फैसले से पूर्व ही अपना फैसला अपने कार्यक्रमों, बहस और खबरों जरिए तय कर देना मीडिया ट्रायलकहलाता है। 
मीडिया ट्रायल, इस बहुप्रचारित शब्द को लेकर काफी लंबी-चैड़ी बहस हो चुकी है और अभी भी हो रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में खूब सारे तर्क भी दिए जा रहे हैं। दरअसल, किसी भी निर्णय तक पहुंचने से पहले हमें इससे जुड़ी हर एक बारीकी और अर्थ को समझना होगा। सबसे पहले सवाल यह उठता है कि मीडिया ट्रायल जैसा शब्द आया कहां से? यह एक नई अवधारणा है या तबसे इसका अस्तित्व है जबसे चैथे स्तंभ की शुरुआत हुई? कोई यह तर्क भी दे सकता है कि मांग के हिसाब से ही इस दुनिया में कोई चीज अस्तित्व में आती है। इसलिए यदि मीडिया ट्रायल शुरू हुआ तो इसके लिए व्यवस्था में शामिल संस्थाओं की निष्क्रियता या असफलता जैसे तर्क ही सूझते हैं। एक ऐसे वक्त में, जब अन्य संस्थाएं असफल हो रही हों, तब न्यायपालिका की तरह मीडिया खुद को सामने खड़ा कर अपने तरह से उस शून्य को भरने की कोशिश करता है, जो अन्य संस्थाओं की असफलता की वजह से पैदा हुआ है और इस तरह न्यायिक सक्रियता या मीडिया ट्रायल जैसी अवधारणाओं का जन्म होता है.
एक तरह से देखें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता। पुलिस-प्रशासन, अदालत सभी अपने दायरे में अपने तरीके से किसी भी मामले पर कार्रवाई करते हैं। यहां सवाल पक्षपात या निष्पक्षता का नहीं है, ये एक प्रक्रिया है, जिसका पालन तमाम जांच एजेंसियां और कानूनी पक्ष करते हैं और इसमें जो भी समय लगे, उसके बाद नतीजा निकलकर सामने आता है, जो किसी के पक्ष में होता है और किसी के खिलाफ। अब नतीजा सही होता है या गलत, ये अलग चर्चा और बहस का विषय है। लेकिन किसी मामले में मीडिया, खासकर टेलीविजन की दिलचस्पी और अति-सक्रियता क्यों होती है? और क्यों स्थिति मीडिया ट्रायलके स्तर तक पहुंचती है? ये पहलू विचारणीय है।
शोध का उद्देश्य-
1.मीडिया ट्रायल को परिभाषित करना।
2.मीडिया ट्रायल द्वारा न्यायालय पर दबाव बनाता है का अध्ययन करना।
3.मीडिया ट्रायल की उपयोगिता का विश्लेषण करना।
शोध की उपकल्पना-
1.मीडिया ट्रायल द्वारा न्यायालय के साथ-साथ जांच आयोगों पर भी दबाव बनने का कार्य करता है।
2.वर्तमान में समाज से जुड़ी समस्याओं पर मीडिया ट्रायल आम तौर पर नदारत देखा जा सकता है।  
शोध प्रविधि-
vनिदर्शन प्रविधि- निदर्शन प्रविधि का प्रयोग करते हुए मीडिया ट्रायल के संबंध में जानकारी प्राप्त करने हेतु ऑन लाइन 200 लोगों का चयन किया गया है। 
vप्रश्नावली प्रविधि- डेटा संकलन हेतु प्रश्नावली प्रविधि का प्रयोग किया गया है।
vअवलोकन प्रविधि- डेटा  संकलन हेतु अवलोकन प्रविधि का प्रयोग किया गया है।
शोध सीमा-
प्रस्तुत शोध पत्र के अंतर्गत केवल ऑन लाइन लोगों का चयन कर उनके मतों का समावेश किया गया है। 
उत्तरदाताओं से प्राप्त उत्तर का विश्लेषण-
ग्राफ संख्या:- 1
न्‍यायाधीश द्वारा ट्रायल के दौरान इंटरनेट का प्रयोग
 ग्राफ संख्या:- 2
मीडिया करवेज पर जोर दिया
ग्राफ संख्या:- 3
 
उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से 52 (26 प्रतिशत) ने माना कि  मीडिया न्यायालय में विचाराधीन प्रकरणों पर टी.आर.पी के लिए ट्रायल चलाता है, जबकि 36 उत्तरदाताओं (18 प्रतिशत) ने कहा कि विज्ञापन के लिए। वहीं 21 उत्तरदाताओं (10.5 प्रतिशत) ने कहा कि खबरों के प्रसारण हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है तथा 91 उत्तरदाताओं (45.5 प्रतिशत) ने कहा कि न्यायालय पर दबाव हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है। अतः आंकड़ों से ज्ञात होता है कि मीडिया न्यायालय पर दबाव हेतु न्यायालय में विचाराधीन प्रकरणों पर ट्रायल चलाता है।
ग्राफ संख्या:- 4
 उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 68 (34 प्रतिशत) ने माना कि मीडिया आपराधिक मामलों पर ट्रायल चलाता है, जबकि 119 उत्तरदाताओं (59.5 प्रतिशत) ने कहा कि सनसनीखेज मामलों पर मीडिया ट्रायल चलाने का कार्य करता है। वहीं 13 उत्तरदाताओं (6.5 प्रतिशत) ने कहा कि समाज से जुड़े हुए मुद्दों को उठाने के लिए मीडिया ट्रायल चलाता है। अतः आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि मीडिया सनसनीखेज मामलों पर सबसे ज्यादा मीडिया ट्रायल चलाता है।
ग्राफ संख्या:- 5
 
उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से 16 (8 प्रतिशत) का मत है कि मीडिया ट्रायल में शिक्षा से संबंधित खबरों का अभाव रहता है। 18 उत्तरदाताओं (9 प्रतिशत) ने कहा कि कृषि से संबंधित खबरों का, जबकि 82 उत्तरदाताओं (41 प्रतिशत) ने नारी सशक्तिकरण की खबरों का अभाव कहा। वहीं 84 उत्तरदाताओं (42 प्रतिशत) ने कहा कि मीडिया ट्रायल में विकास से संबंधित खबरों का अभाव देखा जा सकता है। अतः ग्राफ से स्पष्ट है कि मीडिया ट्रायल में नारी सशक्तिकरण एवं विकास से संबंधित खबरों का ज्यादा अभाव रहता है।
ग्राफ संख्या:- 6
 
उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से (17.5 प्रतिशत) का मत है कि मीडिया ट्रायल का पुलिस कार्यवाही पर अधिक प्रभाव पड़ता है, जबकि (6 प्रतिशत) ने अभियुक्तों पर प्रभाव के पक्ष में अपना मत दिया। वहीं (38.5 प्रतिशत) ने न्यायपालिका की कार्यप्रणाली प्रभावित होने के पक्ष में मत दिया तथा (38 प्रतिशत) ने कहा कि जांच आयोगों पर मीडिया ट्रायल का प्रभाव ज्यादा पड़ता है। अतः स्पष्ट है कि मीडिया ट्रायल का न्यायापालिका के साथ-साथ जांच आयोगों पर भी ज्यादा प्रभाव पड़ता है।
निष्कर्ष
मीडिया द्वारा इस स्थिति में खबरों की खबर लेने की कोई सीमा नहीं होती और कवरेज और प्रसारण का दायरा इतना बढ़ता हुआ नजर आता है कि उसे रिपोर्टिंग से हटकर मीडिया ट्रायलका दर्जा दे दिया जाता है। ये काफी हद तक ऐसी मुहिम की स्थिति है, जिसे कई टेलीविजन समाचार चैनल बाकायदा घोषित रूप से चलाते रहे हैं। भारत में प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, बीजल जोशी, रुचिका गिरहोत्रा, आरुषि तलवार हत्याकांड जैसे आपराधिक मुद्दे हों, या भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों के मुद्दे- जिन पर टेलीविजन समाचारों की सबसे ज्यादा कवरेज हुई है और इनकी कवरेज बहस और विवादों का भी मुद्दा रही है। ये कहना सही नहीं होगा कि ऐसे तमाम मामलों को टेलीविजन पर उठाए जाने की वजह से ही इनके दोषियों को सजा हुई। मीडिया के जोर के चलते, समाचार चैनलों की मुहिम के चलते पीड़ितो को इंसाफ मिला? ये सिर्फ एक सोच भर है और इंसाफ की जंग लड़ने वालों को भी लगता है कि मीडिया का उन्हें साथ मिला है, मीडिया उनका सहारा बना रहा है। गालिबन, ये दिल को बहलाने को एक अच्छा ख्याल  हो सकता है, लेकिन खबरों के प्रसारण का कोई ज्यादा दबाव मामलों के फैसलों पर पड़ता हो, ऐसा कम ही लगता है।
एक तरह से यह भी देखें तो मीडिया ट्रायलएक कानूनी जुमला है, जिसका मतलब प्रसारण के जरिए न्याय दिलाने की प्रक्रिया से है। व्यावहारिक और वैधानिक तौर पर पीड़ित को न्याय दिलाना तो मीडिया पर खबर दिखाकर असंभव है, क्योंकि मुकदमे का ट्रायलकानूनी प्रक्रिया है और किसी को दोषी ठहराना, उसे सजा देना और किसी को बरी करना अदालतों का ही काम है। लेकिन मीडिया ट्रायलके जुमले का इस्तेमाल Fair trial’ के रास्ते में बाधा मानकर किसी भी खबर के मामले में कवरेज को सीमित करने के लिए किया जा सकता है। जिन मामलों को बेहद संवेदनशील माना जाता है, उनकी कवरेज पर मीडिया को संयमित रहने की सलाह दी जाती है। अदालतों में भी कई बार मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लग जाती है क्योंकि वहां से निकलने वाली खबरों के सीधे प्रसारण से पब्लिक या पब्लिक की नुमाइंदगी करने का दावा करने वाले संगठनों, पार्टियों, गैरसरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं या किसी समुदाय विशेष की भावनाएं भड़कने का अंदेशा रहता है जिसकी प्रतिक्रिया हिंसा में तब्दील होने का खतरा बना होता है। इस दौरान आरोपियों, दोषियों, गवाहों और न्यायाधीशों पर भी खतरे का अंदेशा होता है, लिहाजा समाचारों के प्रसारण में संयम की अपील की जाती है और कई बार पाबंदियां भी अदालतों की ओर से लगा दी जाती है।
आंकड़ों से प्राप्त निष्कर्ष से स्पष्ट होता है कि मीडिया 34 प्रतिशत आपराधिक मामलों पर तथा 59.5 प्रतिशत सनसनीखेज मामलों पर मीडिया ट्रायल चलाने का कार्य करता है। जिनमें 41 प्रतिशत तक नारी सशक्तिकरण और 42 प्रतिशत तक विकास से संबंधित खबरों का अभाव रहता है। मीडिया जब ट्रायल चलाता है तो 45.5 प्रतिशत ने उत्तरदाताओं ने कहा कि वह न्यायालय पर दबाव हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है। जिससे 38.5 प्रतिशत न्यायपालिका की कार्यप्रणाली के साथ-साथ 38 प्रतिशत जांच आयोगों पर भी मीडिया ट्रायल का प्रभाव ज्यादा पड़ता है।
वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका Watch Dog की तरह मानी गई है और टेलीविजन समाचार चैनल तो आज के दौर में इस भूमिका को बिलकुल सही तरीके से निभाते दिख रहे हैं, क्योंकि कैमरे से समाज की कोई बात छिपती नहीं और सच हर रोज सामने दिखता है। लिहाजा समाज में क्या चल रहा है वो सब दिखाना तो टेलीविजन समाचार चैनलों की जिम्मेदारी है। पब्लिक के विचारों और उनकी आवाज को सामने लाना भी इसका हिस्सा है, जो कई खबरों के मामलों में इतना तेज होकर उभरता है कि उससे प्रभावित होने वाले कई पक्षों को उसके विपरीत असर का भय सताने लगता है और मुझे लगता है कि यही स्थिति मीडिया ट्रायलका एक ऐसा आवरण खड़ा करती है, जिसका हव्वा खड़ा करके मुद्दे की ज्यादा चर्चा को रोका जा सके।
बहरहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर क्षेत्र के रेगुलेशन, उसके कामकाज के तौर-तरीके और उसे कानूनी दायरे में रखने की प्रक्रिया है, चाहे वो कार्यपालिका हो, विधायिका हो, न्यायपालिका या मीडिया ही क्यों न हो। ऐसे में अगर मीडिया ट्रायलजैसा कोई संकट व्यवस्था को लगता है, तो उस पर नियंत्रण, उसकी दिशा तय करने के लिए उपाए किए जा सकते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है और अदालत या अदालत से बाहर ये बातें हो सकती हैं और होती भी हैं कि किस तरह की खबर को दिखाने और उस पर चर्चा का क्या तरीका होना चाहिए। कभी सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय, तो कभी खुद समाचार चैनलों के प्रसारकों की संस्थाएं, तो कभी खुद अदालतों की ओर से ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती रहती है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
1.दिलीप मंडल, मीडिया का अंडरवल्र्ड, राधाकृष्ण, नई दिल्ली-2011
2.डॉ. रतन कुमार पाण्डेय, मीडिया का यथार्थ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2008
6.वर्तिका नन्दा, उदय सहाय, मीडिया और जन संवाद, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली-2009,
11.रामशरण जोशी, मीडिया विमर्श,, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली-2006
12.सुधीश पचैरी, साइबरस्पेस और मीडिया, प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली-2003
13.कुमुद शर्मा, समाचार बाजार की नैतिकता, सामयिक बुक्स, नई दिल्ली-2009,

Wednesday, November 8, 2017

मीडिया का भक्ति काल

मीडिया का भक्ति काल



संपूर्ण मीडिया को 400 करोड़ की चढ़ौत्री-चढ़ावे के कारण इस समय मीडिया में भक्ति काल चल रहा है.... मोदीमय भक्ति काल... परंतु मोदी यह नहीं जानते कि जब तक चढ़ोत्री चढ़ती रहेगी तभी तक उनका समय बना हुआ है जिस दिन चढ़ावा बंद हुआ उसी दिन से उनका व उसकी पार्टी का काल शुरू हो जाएगा...क्‍योंकि मीडिया अब पहले जैसा नहीं रहा जो वास्‍तविक हकीकत से सभी को रूबरू करवाता था (बिना किसी लालच के)।  वर्तमान समय में मीडिया गिरगिट बन चुका है.. समय-समय पर अपना रंग बदलता रहता है... या फिर यूं कहे कि वर्तमान समय में मीडिया सरकार द्वारा डाली जाने वाली हड्डियों पर अपनी दुम हिला रहा है क्‍योंकि कुत्‍ता वफादर होता है अपने मालिक की नहीं भंजाएगा फिर किसकी भंजाएगा... परंतु वह यह भूल जाते है कि इससे पहले यह किसी और का था और अब उसकी को काट रहा है.... समय के बदलते ही यह वर्तमान सरकार को नहीं काटेगा इसकी क्‍या गारंटी है.... भई काटेगा... तुमको भी काटेगा... बस समय आने दीजिए.... अभी जो आपका मीडिया में भक्तिमय काल चल रहा यह सब चढ़ौत्री के कारण है.... जिस आपकी तरफ से कृपा आनी बंद हो जाएगी यह पक्‍का काटेगा... क्‍योंकि यह मीडिया है यह किसी का भी सगा नहीं हो सकता... बस इसके लिए माया ही सब कुछ है... और हो भी क्‍यों नहीं क्‍योंकि बिना अर्थ के कुछ नहीं हो सकता।  खैर समय रहते चेत जाए तो ठीक नहीं तो इंजेक्‍शन के लिए तैयार रहे...

Tuesday, November 7, 2017

कैशलेस का दर्द

कैशलेस का दर्द
आज रात्रि के 9 बजे के अपने कार्यक्रम जनमन में ए बी पी द्वारा यह दिखाने की भरकस कोशिश की जा रही थी कि मोदी द्वारा कैशलेस की योजना कितनी साकार साबित हुई.... अपने कार्यक्रम में ए बी पी द्वारा अपने कुछ महिला एंकरों को लिया... जो यह दिखाने का प्रयास करती हुई नजर आई कि मोदी की कैशलेस योजना वास्‍तव में कारगर साबित हुई... महिला एंकरों में से एक महिला एंकर द्वारा अपने न्‍यूज कार्यालय नई दिल्‍ली से देहरादून तक का सफर किया। जिसमें सबसे पहले उक्‍त एंकर ने ऑन लाइन आई आर सी टी सी से अपना टिकट बुक किया....जिसका भुगतान उसने अपने एकाउंट से किया, इसके पश्‍चात उसने ओला कैब बुक करकेअपने न्‍यूज कार्यालय से नई दिल्‍ली रेलवे स्‍टेशन पहुंची और ओला कैब का भुगतान पेटीएम के माध्‍यम से किया.... इसके बाद वह नई दिल्‍ली से शताब्‍दी ट्रेन पकड़कर 5 घंटें के सफर के उपरांत देहरादून पहुंची और फिर वहां से फिर उसके ओला कैब की और देहरादून के प्रमुख बाजार पहुंची, ओला कैब का भुगतान पेटीएम के द्वारा ही किया गया... बाजार में उक्‍त एंकर द्वारा कुछ चुंनिदा दुकानों पर खरीददारी की और उसका भुगतान भी पेटीएम द्वारा करते दिखाया गया.... फिर एक जगह एक स्‍वेटर खरीदा उसका भुगतान कैश में किया गया... इसके बाद उसने खाना खाया और खाने का भुगतान भी पेटीएम द्वारा किया गया बाद में देहरादून से शताब्‍दी ट्रेन पकड़कर नई दिल्‍ली पहुंचते हुए दिखाया जाता है... और फिर यह भी बताया जाता है कि 87 प्रतिशत मेरी यात्रा कैशलेस रही.... इस पूरी स्‍टोरी को देखने के उपरांत एक तो बहुत गुस्‍सा आया फिर हंसी आने लगी... कि किस प्रकार मोदीमय मीडिया कुछ भी दिखाने लगी है.... वैसे इस कार्यक्रम का यदि वास्‍तव में विश्‍लेषण किया जाए तो उक्‍त महिला एंकर हकीकत से कोसों दूर नजर आएगी... क्‍योंकि उक्‍त एंकर को जो दिखाना था उसके द्वारा दिखाया गया पर वास्‍तविक हकीकत से जरा से रूबरू हो जाती तो अच्‍छा था.... आपने अपने  ऑफिस में बैठकर अपना टिकट ऑन लाइन बुक कर लिया...वो भी शताब्‍दी एक्‍सप्रेस में....जरा महोदया जी यह भी देख लेती कि देश की कितने प्रतिशत जनता वास्‍तव में ऑन लाइन टिकट कर पाने  में सक्षम हैं और कितने प्रतिशत जनता जनरल बोगियों में सफर करती है... उन लोगों से पूछ लेते कैशलेस का वास्‍तविक दंश.... जितने प्रतिशत पूरी ट्रेन में सवारियों की संख्‍या होती है उसके कहीं अधिक उन जनरल बोगियों में होते हैं जिनको अपने एक सिरे से नजर अंदाज कर दिया.....खैर आगे चलते हैं अपने ओला कैब बुक कर लिया और पहुंच गए रेलवे स्‍टेशन और भुगतान किया पेटीएम से.... अब यह भी बता देती तो बेहतर ही होता कि कितने प्रतिशत लोग ओला कैब का प्रयोग करते हैं.. और  यह वर्ग कौन सा है।  क्‍या (किसान वर्ग, मजदूर वर्ग,  दिहाड़ी वर्ग और आम आदमी यह ओला कैब का प्रयोग करते हैं  जबाव मिलेगा नहीं यह वह लोग है जो बसों में सफर करते हैं ट्रेक्‍सी में सफर करते हैं पर ओला का प्रयोग नहीं कर पाते) ओला कैब का प्रयोग सिर्फ धनाढ्य वर्ग के लोग ही अधिक करते हैं  जैसा उक्‍त महिला एंकर द्वारा किया गया...  इसके बाद प्रश्‍न यह उठता है कि कितने प्रतिशत लोग अच्‍छे होटलों पर खाना खाते हैं.... अरे भई आम जनता उन ढावों पर, उन ठेलों पर खाना खा कर अपना गुजारा कर लेते हैं जहां पर 25 से 30 रूपए में भोजन मिल जाता है वह इन होटलों की तरफ रूख नहीं कर सकते जहां 200 से 250 रूपए में खाना मिलता है क्‍योंकि इनके आमदनी ही दिन की 200 रूपए होती है.. अब बात यह है क्‍या यह ढावें और ठेलों पर खाना बेचने वाले पेटीएम से भुगतान ले सकते है या यह मजदूर वर्ग पेटीएम से भुगतान करने की वास्‍तविक स्थिति में दिखाई देते हैं। जबाव मिलेगा नहीं।

खैर एबीपी के एंकरों द्वारा जो दिखाया गया वह मोदीमय कारनामों को सही ठहराने मात्र था कि  मोदी द्वारा कैशलेस कितना कारगर साबित हुआ.. सो उनके द्वारा दिखा दिया गया... अगर वास्‍तविक हकीकत जाननी हो तो जनरल बोगी में यात्रा करते हुए किसी गांव में चले जाए औकात पता चल जाएगी.... कि क्‍या सही है और क्‍या गलत.... एसी बोगियों में और एसी गाडियों में सफर करने वाले क्‍या कभी जनरल बोगियों में यात्रा करने वाले लोगों का दर्द समझ पाए हैं जो अब समझेंगे.....बाकि मीडिया है और मोदी सरकार ने मीडिया के लिए 400 करोड़ की रकम पहले से ही रख रखी है तभी तो सभी चैनल मोदीमय गुणगान गाते हुए दिखते हैं.....

Monday, November 6, 2017

टंटा ही खत्‍म

टंटा ही खत्‍म
एक हाथ पर - आधार कार्ड नंबर गुदवा ले
दूसरे हाथ पर- पेन कार्ड नंबर गुदवा ले
माथे पर - जी एस टी नंबर गुदवा ले
एक गाल पर - मतदाता पहचान पत्र गुदवा ले
दूसरे गाल पर - बैंक एकाउंट नंबर गुदवा ले
छाती पर - समग्र परिवार आई डी गुदवा ले
एक बाजू पर- खुद की परिवार आई डी गुदवा ले
दूसरी बाजू पर - एस सी \एस टी/सवर्ण गुदवा ले
पेट पर - ड्राइविंग लाइसेंस नम्वर गुदवा ले
पीठ पर - बैंक में जमा रकम लिख कर रखें
गंजे सिर पर- भारतीय गुदवा ले व जिनके बाल है वह कटिंग ऐसी करा ले जिसमे भारत का नक्शा बनवा हो
और कोई - बकाया नंबर हो तो टांगे ।
दरअसल

यह अनुभव हुआ है, कि जिंदा रहने पर यह चीजे पग पग पर लगने लगी है । दूसरी ओर यह बात भी सुनी है कि, शवदाह गृह और सरकारी व संस्थाओं द्वारा संचालित मुक्तिधाम में उन्हीं को जलाया जायेगा जिनके पास उक्त पहचान पत्र होगें । तब मरने वाले को मरने के पहले घरवालों को बताकर रखना होगा कि उक्त डाक्यूमेंट कहाँ  रखे हैं । इसीलिऐ गुदवा कर टंटा ही समाप्त करना हितकर है । अन्यथा बिना  बतालाए मरने पर परिजन शोक मनाने बैठेंगे या घर में डाक्यूमेंट के लिए छापामारी करने लग जायेंगे । शवयात्रा में आए लोग भी पूंछेगे कि डाक्यूमेंट पूरे हैं  तो चलते है अन्यथा वापिस जाते है।

Friday, November 3, 2017

जनता तो उल्‍लू है....

जनता तो उल्‍लू है....

ललितपुर नगर पालिका परिषद के अध्‍यक्ष पद के उम्‍मीदवार अभी से नदारत नजर आ रही हैं। चुनाव प्रचार उनके पति/पुत्रों एवं समर्थकों द्वारा संपन्‍न किया जा रहा है। जब आलम अभी से यह है तो चुनाव के समापन्‍न के उपरांत क्‍या होगा.... यह सोचने वाली बात है...वैसे होने वाला तो यह है कि जो भी महिला प्रत्‍या‍शी चुनाव जीतेगी सिर्फ नाम उसका चलेगा और सत्‍ता उनके पतियों/पुत्रों द्वारा संचालित की जाएगी...क्‍योंकि जिस तरह से देखने को मिल रहा है उससे अंदाजा साफ लगाया जा सकता है कि इन महिलाओं की कोई खास छवि नहीं है, बस इनके पति/पुत्र अपनी छवियों को भुनाने की कावायदें कर रहे हैं ताकि सत्‍ता पर काबिज हो सके.... और सत्‍ता मिलने के बाद जो होना है वो तो जग जाहिर है.... चुनावी वादे हैं जो शायद ही कभी पूरे होते हो... क्‍योंकि सत्‍ता की चमक चुनावी वादों पर ग्रहण लगा देती है। यह ग्रहण कुछ समय का नहीं बल्कि पूरे के पूरे पांच साल चलता है और इनके द्वारा किए गए वादे सत्‍ता की चकाचौंध में कहीं चौंधियां से जाते हैं....वैसे मैं किसी भी प्रत्‍याशी एवं उनके पतियों/पु‍त्रों की योग्‍यता पर प्रश्‍नचिह्न नहीं लगा रहा... वनस्‍पत जो होता आ रहा है उसी का स्‍वरूप दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि जो अभी तक होता आया है उसमें कुछ नया क्‍या जुड़ने वाला है.... बाकि जनता तो उल्‍लू है आज इस डाल पर कल उस डाल पर....