सरोकार की मीडिया

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Saturday, November 18, 2017

ये सोच रहा हूं........

ये सोच रहा हूं........
मिल जाएंगी दो रोटियां ये सोच रहा हूं
इस वास्‍ते मुर्दों के कफन नोच रहा हूं
कातिल समझ न बैंठे मुझे लोग इसलिए
दामन पे लगा खूने-जिगर पोंछ रहा हूं
दुनिया से मिटे कैसे ऐ नफरत का अंधेरा
ऐ वक्‍त जरा ठहर अभी सोच रहा हूं
मंहगाई ने है मारा मुझे ऐसा दोस्‍तों
बच्‍चों को जहर देने की मैं सोच रहा हूं
कहते हैं क्‍यों तुझे लोग सुखनवर

औरों की तरह मैं भी यही सोच रहा हूं....

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