सरोकार की मीडिया

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Monday, March 30, 2015

अपना ख़्याल रखना................

अपना ख़्याल रखना................
सूरज की पहली किरण के साथ चिड़ियों के झुंड चहचहाते हुए अपने-अपने घोंसलों से निकलकर एक नए आसमान की तलाश में दूर कहीं दूर शहरी शोरगुल से दूर सुकून व शांति की तलाश में उड़े जा रहे थे। समय की गति अपने समयानुसार टिक-टिक करती हुई सेकेंड, मिनट और घंटों को पीछे छोड़ती जा रही थी, भागी जा रही थी जैसे रूकने के लिए समय बना ही न हो। हां यह हकीकत है कि समय किसी के लिए कभी भी नहीं ठहरता और क्यूं ठहरे? ठहरना उसकी फितरत में सुमार कहां? समय के भागते और सूरज की तपिश के बावजूद वो कभी इस करवट तो कभी उस करवट नींद के आगोश में समाया हुआ था। अपनी नींद को पूरा करने के चेष्ठा कर रहा था, जिसमें वह नाकाम-सा प्रतीत हो रहा था। देर रात्रि तक शराब और शबाब को भोगने के उपरांत जब वो अपने घर लौटकर कमरे में दाखिल हुआ, तो उसे लगा कि बिस्तर पर लेटने के बाद नींद उसको अपने आगोश में ले लेगी, परंतु जैसा हमेशा से उसके साथ होता आया वैसा ही हुआ। कोई खास परिवर्तन नहीं, जिस हालात में वो निकला उसी हालात में वापस आया, परंतु शराब और शबाब उसे मस्तिष्क पर किसी भूत की तरह सवार थे। जो गहरी नींद के बाद थोड़ा रफूचक्कर होता पर नींद तो उससे कोसों दूर थी। भूत के मस्तिष्क पर सवार होने की वजह से वो बिना कपड़े उतारे, बिना जूते उतारे बिस्तर पर धडाम-सा गिर पड़ा, बेसुध होकर। चाहकर भी जूते उतारने में खुद को असक्षम महसूस कर रहा था।
जैसे-जैसे सूरज की तपिश में गर्मी बढ़ती गई, आती हुई नींद भी भाग गई। कुछ समय बिस्तर पर लेटने के बाद उसे कुछ होश आया। यानि भूत ने अपना प्रकोप कम करना शुरू कर दिया था। पर नींद पूरी न होने की वजह से सिर किसी पहाड़ के समान लगने लगा था, चाह कर भी वो पहाड़ को हटा पाने में असफल रहा। मन मारके पहाड़-सा सिर लेकर किचिन में जा पहुंचा। फ्रीज से दूध निकाला और पतेली में डाल दिया, फिर चाय पत्ती, शक्कर डालकर चाय बनाने की कोशिश करने लगा। जिसमें वह कामयाब हुआ, कुछ मशक्कत करने के बाद। मशक्कत यह कि चाय में आए उबाल को वो संभाल न सका और पतेली ने आधे से ज्यादा अपने में मौजूद द्रव पदार्थ को बाहर फेंक दिया। फिर भी कुछ चाय उस पतेली में बची रही। जिसको उसने छानकर अपनी प्याली में उडेल लिया। प्याली को महबूबा के समान अपने हाथों में लेकर, ताकि उसकी गर्माहट से प्याली छूट न जाए, मजबूत पकड़ के साथ उसको लेकर अपने शायन कक्ष में जा पहुंचा। धीरे-धीरे चुस्की दर चुस्की चुस्कियां लेते हुए सोचने लगा, कि रात का वो मन मोहक सफर, शराब और शबाब का वह दौर, फिर एक अनजाने जिस्म की तपिश की गर्माहट अंदर तक मन को सराबोर करती, हवा के झोंकों से शुरू होकर तूफान में तब्दील हुई और फिर तूफान के बाद का वो वीरान, सुनसान-सा भयावह मंजर, सोचकर मन विचलित हो उठा। कौन थी वो? न चाहते हुए मन बार-बार उसी के चेहरे पर केंद्रित हो रहा था। एक बार फिर मुलाकात की आस दिल में किसी अनउपजे बीज की भांति अंकुरित होने की नकामयाब कोशिश में जुट गया। इस अंकुरण के पीछे कहीं जिस्म में मौजूद उसकी वो मदमोहक खुशबू तो नहीं जो रह-रहकर सांसों के रास्ते दिल में उतरती जा रही थी।
एकाएक मोबाइल अपने कंपन से भनभना उठा। जेब से फोन निकाला और देखा तो मित्र राकेश का फोन था। बटन दबाकर फोन रिसीव किया.... वहां से आवाज आई हैलो, डॉ. साहब सुबह हुई या फिर रात की सरगोशियों में बिस्तर की चादर में लिपटे पड़े शोभा बढ़ा रहो हो........?? नहीं यार ... उठ चुका हूं बस चाय की चुस्कियों का लुत्फ उठा रहा था। पुनः पूछा गया तो आज का क्या कार्यक्रम है हमें बाजार चलना था। कब तक चलने का विचार है? ‘‘मैंने कहां 1-2 घंटे में तैयार होकर चलते हैं। मैं तुमको कमरे से रिसीव कर लूंगा……… ठीक है... बाय‘‘ और फोन काट दिया। चाय अब खत्म हो चुकी थी। प्याली को किचिन में रखकर स्नान करने चला गया। चाय की गर्माहट और बाद में सिर पर ठंड़े पानी के पड़ते ही रहा सहा भूत पूरी तरह मेरे सिर से उतर कर भाग खड़ा हुआ। तैयार होने के बाद मैंने गाड़ी निकाली और रवाना हो चला मित्र के कमरे की ओर। वहां पहुंचने के बाद गाड़ी से ही मित्र को कॉल किया कि मैं तुम्हारे कमरे के बाहर खड़ा हूं आओं। राकेश ने जबाव दिया बस दो मिनट में आता हूं......। और फोन काट दिया। ठीक दो मिनट में वो आया और मेरे साथ वाली सीट पर बैठ गया। मैंने गाड़ी स्टार्ट की, तभी उसने मेरे चेहरे की तरफ देखा, ‘‘क्या हुआ....आज तेरे चेहरे से रौनक कहां लापता है, बुझा-बुझा सा क्यों दिख रहा है...??‘‘‘‘नहीं यार ऐसा नहीं है।‘‘‘‘मैं कैसे मान सकता हूं कि ऐसा वैसा कुछ नहीं है.....??‘‘‘‘छोड़ न यार, जाने दें।‘‘ बाजार से कुछ घर का सामान और कुछ बोतले शराब की लेकर हम लोग वापस आ गए। मैंने राकेश को उसके कमरे पर छोड़ा और अपने कमरे पर आ गया। जैसे ही रूम का लॉक खोलकर अंदर दाखिल हुआ, फोन फिर भनभना उठा। देखा तो अजनबी नंबर?? थोड़ी देर सोचने के बाद फोन उठाया। ‘‘हैलो कौन....??‘‘ दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई। हैलो.... हैलो....हैलो..... कौन....?? और फोन कट गया। दुबारा फोन भनभनाया, उठाया हैलो कौन...?? फिर कोई जबाव नही आया और फोन कट हो गया। ऐसा पांच बार हुआ। दिमाग वैसे की भनभनाया हुआ था फोन भी भनभनाकर परेशान करने लगा तो उसकी गर्दन पकड़कर टेंटूआ दबा दिया। फोन बेचारा एक छोटी से भनभनाहट के बाद शांत पड़ गया।
मोबाइल को बंद करने के बाद सोचा कुछ काम कर लिया जाए और इस बावत् अपना लैपटॉप ऑन कर लिया और अपने काम को पूरा करने लगा। काम में कुछ इस तरह मसरूफ हुआ कि समय का पता ही नहीं चला। जब आंखें और सिर दर्द करने लगा तो लैपटॉप की घड़ी को देखा तो सात बजकर अडतालीस मिनट हो चुके थे। मैंने काम को वहीं पर विराम दिया और फिर तैयार होने लगा, रात्रि के कार्यक्रम के लिए। आठ बजकर पैंतीस मिनट पर कमरे में पुनः ताला जड़ा और गाड़ी लेकर बार की तरफ रवाना हो चला। बार के पास पहुंचकर मैंने गाड़ी को पार्किंग में लगाई और बार के अंदर जा पहुंचा। जहां पर रखी एक कुर्सी पर जाकर बैठ गया। वेटर आया बिना मेरे कुछ कहे मेरे इशारे को समझते हुए वो मेरा पसंदीदा जाम, वोडका प्लास लैमन लेकर आ गया। उसने उसे टेबल पर रखा और चला गया। जिसे मैंने देखा भी नहीं, मेरी नजरें तो सिर्फ-और -सिर्फ उस अनजाने चेहरे को तलाशने में जुटी हुई थीं जिसका मैं नाम तक नहीं जानता था। समय बितता गया मेरा पैंग उसी तरह टेबल पर रखा मुझे मुंह चिडाता रहा। मैंने उसको हाथ भी नहीं लगया। वेटर पुनः आया ‘‘क्या हुआ सर जी.....?? तबीयत तो ठीक है न आपकी...????‘‘‘‘हूं ठीक है तुम जाओं।‘‘ आदेशा पाकर वो चला गया। बैठे-बैठे रात्रि के एक बज चुके थे। कुछ लोग अपने-अपने अनुसार शराब का लुफ्त उठाकर जा चुके थे तो कुछ लोग अब भी लुफ्त उठा रहे थे। मैं खामोश बैठा रहा, परंतु निगाहें चंचल भाव से पूरे बार का निरीक्षण कर रहीं थीं कि कहीं दिख जाए। पर नहीं..?? मन मारकर दो बजे बिना पीए वापस आ गया। सोचा आज गहरी नींद आ जाएगी। मुझे क्या पता था कि न पीने के बाद भी नींद मुझसे कोई संबंध नहीं रखना चाहेगी। बस बिस्तर पर करवट बदलने की प्रक्रिया जारी रही। सुबह 6 बजे कुछ-कुछ नींद ने अपने आगोश में लिया और फिर डोर बेल ने नींद को फाख्ता कर दिया। उठा.... दरवाजा खोला तो राकेश दरवाजे पर खड़ा था। मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने कहना शुरू कर दिया..... ‘‘कहां था..?? और तेरा मोबाइल कहां हैं...?? कल शाम से लगा रहा हूं। रात में भी आया था, पर कमरे पर ताला लगा हुआ था।‘‘ एक ही सांस में इतने सारे सवालात की झडियां। मैंने कहा ‘‘अंदर तो आ.... बताता हूं।‘‘ फिर राकेश को बताया कि मोबाइल बंद कर दिया था और रात्रि को बार चला गया था। किसी को तलाश करने..?? पर वो नहीं मिला। तो वापस आकर सो गया। मैंने उसके सामने ही फोन को ऑन किया। ऑन करते ही जैसे उसके अंदर जान आ गई हो। और वह ऑन हो गया। फोन को साइड मे रखकर पूछा ‘‘क्या लेगा...??? चाय, या कॉफी या सुबह-सुबह से.... .... .......‘‘‘‘नहीं. ....नहीं......... कुछ नहीं.............। तू जल्दी तैयार हो जा, कहीं जाना है..??‘‘‘‘कहां जाना है लड़की देखने क्या......??‘‘‘‘हां लड़की देखने......??‘‘ मैंने उससे मजाक किया, पर हकीकत में पता चला कि उसके घरवाले आए हुए हैं यहां लड़की को देखने, उसके रिश्ते के लिए। उसने कहा कि तैयार होकर आ जाना और वो चला गया। उसके जाने के तुरंत बाद फिर फोन भनभनाया, मैंने फोन उठाया, ‘‘हैलो कौन......??‘‘ इस बार जबाव आया ‘‘हैलो मैं..........।‘‘ आवाज जैसे जानी पहचानी सी लगी और फिर मैं आवाज पहचान गया। मन में एक उमंग, चेहरे पर मुस्कान, दिल जोर-जोर से बाहर आने को उतारू होने लगा। ‘‘हां जी बोलिए..........।‘‘‘‘मैं आपसे मिलना चाहती हूं, कल भी आपको फोन किया था पर हिम्मत नहीं हुई जब हिम्मत हुई तो आपका फोन बंद जा रहा था।‘‘ मैंने अपनी स्थिति से उसको अवगत करना मुनासिब नहीं समझा, कि कल तो मैं भी तुम्हें ही तलाशता रहा। ‘‘हां तो बताएं कहा मिलना चाहोगी........??‘‘‘‘आपके घर....................।‘‘
मैंने कहा ‘‘ठीक है मैं पता एसएमएस कर देता हूं आ जाएं।‘‘ मैंने एसएमएस किया तो पुनः कॉल आया कि ‘‘मैं 20 मिनट में पहुंचती हूं‘‘ और फोन कट हो गया। मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुआ। ठीक 20 मिनट के बाद डोर बेल बजी। दरवाजा खोला तो वो ही हसीन चेहरा, वो ही खुशबू जिसको अपने भीतर अभी भी महसूस कर रहा था। वो वेधड़क कमरे में प्रविष्ट हुई और सोफे पर जाकर बैठ गई। मैं भी उसी के सामने सोफे पर बैठ गया। पूछा ‘‘क्या लेंगी आप...........??‘‘ जबाव आया ‘‘जो भी आप पिला दें।‘‘ मैंने कहा ‘‘ओके......।‘‘ इतना कहते ही उसने कहा कि ‘‘आप क्या पिएंगे मैं बनाती हूं।‘‘ मैंने कहा‘‘यह भी ठीक है‘‘ उसको कॉफी का सारा समान बताकर मैं पुनः सोफे पर आकर बैठ गया। पांच मिनट के अंतराल के बाद वो कॉफी बनाकर ले आई। एक प्याली उसने ली और एक हमें दी। कॉफी पीते-पीते मैंने हिम्मत करके उसका नाम पूछा तो उसने कहा कि ‘‘क्यों शादी करने का विचार है..........???? नाम में क्या रखा है......??? मैं तो आपको बस एक नजर जी भरकर देखने आई हूं, न जाने कौन-सी कशिश उस रात के बाद आपकी तरफ खींचे जा रही है।‘‘ मैंने भी अपनी स्थिति बयां की। कुछ देर वातावरण में सन्नाटा पसरा रहा। सन्नाटे को तोड़ने के लिए पूछा ‘‘क्या हुआ............???‘‘ उसने चुप्पी तोड़ी और उठकर जाने लगी। मैंने उसका हाथ पकड़ा तो वह पलटी और मेरे सीने से लग गई, किसी बच्चे की तरह। मैंने उसके चेहरे को हाथों में भर लिया और माथे पर एक चुबंन ले लिया, जिससे वह सिहर उठी। फिर हवा का धीरे-धीरे झोंका तूफान में तब्दील हुआ, फिर वीराना-सा सन्नाटा। शांत तूफान के बाद पता नहीं कब नींद ने अपनी आगोश में समेट लिया। गहरी नींद जिसकी तलाश मुझे वर्षों से थी। आंख खुली तो वह जा चुकी थी। उठा तो देखा टेवल पर एक खत पड़ा हुआ था। उसको उठाया और पढ़ने लगा.............
प्रिय.............
न जाने कौन सी डोर है जो मुझे आपके पास तक खींच लाई, जबकि मेरा रिश्ता आज कहीं तय होने वाला है। मैं चाह कर भी आपसे अब संबंध नहीं रख सकती, न ही आप से शादी कर सकती हूं। बस आपकी खूशबू को अपने दिल में लिए जा रहीं हूं। प्लीज कभी मिलने की कोशिश मत कीजिएगा। मैं अपने आपको रोक नहीं पाऊंगी। अब मेरी सारी खुशियां आपके हाथों में हैं चाहे संवार दो या उजाड़ दो..............??
तुम्हारी प्रिय..................
खत पढ़ते-पढ़ते आंखें डबडबा उठीं। आंखों ने आंसू को जैसे मुक्त कर दिया हो। कुछ देर उसी हालात में उसका पत्र हाथों में लिए बैठा रोता रहा। फिर अपने आपको संभाला और तैयार होकर राकेश के कमरे पे जा पहुंचा। जहां सब लोग निकलने की तैयार कर रहे थे। मैं भी साथ हो लिया। कुछ देर बाद हमारी गाड़ियां एक घर के पास जाकर ठहर गईं। अंदर से एक बुर्जुग आदमी आया उसने हम सबका अंदर आने के लिए स्वागत किया। अंदर आने के बद उस बुर्जुग ने सभी से बैठने के लिए आग्रह किया। कुछ देर वो आदमी और मित्र के घरवालें आपस में बातचीत करते रहे। फिर चाय नास्ता, मिठाईयां जो भी उस बुर्जुग पर बन पड़ा सब कुछ रख दिया। बातचीत का दौर फिर शुरू हुआ...........मैंने बीच में दखल देते हुए कहा कि ‘‘अंकल लड़की को दिखाईए जिससे मेरे मित्र की शादी तय होने वाली है।‘‘ तभी उस बुर्जुग ने कहा......‘‘..हू बुलाता हूं.........‘‘. उसने अपनी बेटी को आवाज दी............‘‘.दिव्या बेटा आओं...........।‘‘ जैसे ही वो आई मेरे तो पैरों के नीचे से मानों जमीन खिसक गई हो, आंखें पथरा गई हों, शरीर जम गया हो। दिल की धड़कन मानों थम-सी गईं हो।  यह तो वही थी...........? उसने मेरी तरफ देखा फिर आंखें नीचे कर लीं। सभी ने देखने और कुछ-कुछ पूछने के बाद रिश्ता पक्का कर दिया। मैं चाह कर भी कुछ न बोल पाया। उसकी नजरों की वो मिन्नतें, ‘‘अब मेरी खुशियां आपके हाथों में हैं चाहे तो जिंदगी बना दो या उजाड़ दो....।‘‘

 मैं खमोश ही रहा। रिश्ता अब तय हो चुका था। शादी की तारीख भी तय की जा चुकी थी। मैं बुत बना बैठा ही रहा। इसके बाद उस बुर्जुग ने हम सभी को विदा किया। मैं तो बुत की तरह अब भी सोफे से चिपका था। चाहकर भी खड़ा नहीं हो पा रहा था तभी राकेश ने कहा.......‘‘..यहीं रहने का विचार है क्या........????‘‘ मैंने कहा ‘‘नहीं‘‘ और उठ खड़ा हुआ। पर उस लड़की की निगाहें बार-बार यही कर रही थीं कि संबार दो या उजाड़ दो.....?? हम सभी वापस आ गए। दोस्त के चेहरे पर एक अजीब सी खुशी शहद बनकर टपक रही थी। मैंने उससे कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा और अपने कमरे पर आ गया। कमरे में घुसते ही दिमाग पुनः उसकी निगाहें और खत पर जाकर ठहर गया। हालांकि दिगाम में एक बात और बार-बार टींस की तरह चुभ रही थी कि मुझको भी अपना जीवन साथी बना सकती थी..........?? तभी किसी का फोन आया फोन दिव्या का ही था। उसने सीधे ही कहा कि मैंने इसलिए फोन किया है कि जो तुम साच रहे हो कि ‘‘मैं तुम्हें क्यों नहीं अपना जीवन साथी चुन सकी, तो बता दूं कि एक स्त्री पुरुष के बारे में सब कुछ जानकर उसे स्वीकार कर लेती है परंतु एक पुरुष स्त्री के अतीत और वर्तमान को जानकर उसे कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। इसलिए मैंने आपको अपना जीवन साथी नहीं चुना, क्योंकि वक्त के साथ-साथ धीरे-धीरे एक टींस तुम्हारे मन में हमेशा बनी रहती कि मैं कहीं तुम्हारी गैर मौजूदगी में तो नहीं....................????????????????????  वैसे मैं जानती हूं कि तुम भी मुझसे प्यार करते हो??? इसलिए तुम मेरा कभी अहित नहीं सोचोगे। अपना ख़्याल रखना....................।‘‘ इसके बाद मैंने वो शहर ही छोड़ दिया मन में एक मीठा सा दर्द लेकर..............................।।