सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Thursday, May 1, 2014

नीले गगन के तले, झांडियों में प्‍यार पले..........

नीले गगन के तले, झांडियों में प्‍यार पले..........

प्‍यार....प्‍यार....प्‍यार कौन सा प्‍यार और कैसा प्‍यार................. तितली वाला या फूल वाला, नदी वाला या समुंदर वाला, चांद वाला या चांदनी वाला, धूप वाला या छांव वाला, दोस्‍त वाला या दुश्‍मन वाला, भूख वाला या दौलत वाला, रूह वाला या जिस्‍मानी......प्‍यार को अपने-अपने अनुसार परिभाषित किया जा सकता है। अलग-अलग जगहों पर परिस्थिति के अनुकूल। अलग-अलग परिस्थितियों के अनुरूप यह अपनी मूल विधा से उन्‍मुक्‍त होकर हर बंधन से परे चला जाता है। जहां इसका अस्तित्‍व वक्‍त और स्थिति के साथ स्‍वत: बदल जाता है। आज के दौर में बदलना ही इसकी नियति है। इस नियति में बदलाव के पीछे नैतिकता के पतन और जल्‍द जवां होती चाहत को मान सकते हैं क्‍योंकि नैतिकता के पतन और जल्‍द जवां होने की चाहत ने प्‍यार के वास्‍तविक मायने ही बदल दिए। आज प्‍यार आंखों से तो शुरू होता है पर दिल की गहराईयों में न उतरते हुए, झांडियों के झुरमुट में अपना दम तोड़ देता है। इस प्‍यार को रूहानी प्‍यार की संज्ञा तो कभी नहीं दी जा सकती,  हां इसके क्रियाकलापों को देखते हुए इसे जिस्‍मानी प्‍यार का दर्जा अवश्‍य दिया जा सकता है। जो पल-पल बदलते समय के साथ अपनी स्थिति बदलता रहता है। कभी इसकी बांहों में तो कभी उसकी बांहों में....... पनपता रहता है। एहसास नहीं होता इनको, क्‍योंकि यह लोग भावनात्‍मक बंधनों से पहले ही मुक्‍त हो चुके होते हैं। इनके बीच एक प्रकार का अदृश्‍य अनुबंध, जिसमें जब तक मन हो प्‍यार की पेंगे भरी जा सकती हैं और यदि किसी एक का मन उचटा नहीं, कि अनुबंध स्‍वत: ही खत्‍म। खत्‍म हुए इस अनुबंध पर चाहे तो आपसी संबंधों की सहमति के आधार पर कुछ समय के उपरांत पुन: अपनी स्‍वीकृति प्रदान कर सकते हैं, नहीं तो किसी अन्‍य के साथ अनुबंध करने की आजादी उनके पास हमेशा ही रहती है। यह युवा पीढ़ी का धधकता हुआ युवा जोश है, जो विकास के नए नमूने को यदाकदा इजाद करता रहता है। वैसे हमारे वैज्ञानिकों ने प्‍यार के मिलाप से उत्‍पन्‍न होने वाली झंझट से इस जवां पीढ़ी को बेफ्रिक कर दिया है। शायद वो युवा जोश को पहले ही भांप गए थे कि आने वाली पीढ़ी किस तरह अपना रंग बदलेगी। तभी तो गली-गली हर कूचे में बेफिक्री की दवा आसानी से उपलब्‍ध हो जाती है। यह प्‍यार को बरकरार रखने के तरीके और किसी अन्‍य प्रकार की झंझट से मुक्ति का आश्‍वासन अवश्‍य ही जवां चाहतों को दिला पाने में सक्षम है। क्‍योंकि प्‍यार के मायने बदल गए हैं......
आज प्‍यार का ढांचा खोखली नींव पर खड़ा किया जाता है या होने लगा है। उसमें भी मिलावट देखने को मिलने लगी है। क्‍योंकि यह झांडियों वाला प्‍यार है, अब यह पतंगों वाला प्‍यार नहीं रहा। अब तो यह दुपट्टें में छुपी अंतरंग अवस्‍था का वो कपड़े उतारू प्‍यार, सामाजिक मान-मर्यादा से परे, बंदर-बंदरियों सी हरकते करते हुए समाज को अपनी मोहब्‍बत का तमाशा दिखाते रहते हैं कि आओं देखों हमारी नग्‍नतापूर्ण मोहब्‍बत को, जिसे हम खुले आम बाजार में नीलाम कर रहे हैं। यह प्‍यार तो नहीं है पर प्‍यार जैसा प्रतीत कराने की वो नाकाम कोशिशें जिन्‍हें यह जवां जोड़े समाज पर थोपने का काम बखूबी कर रहे हैं। हां यह कुछ समय बाद हमारी रंगों में खून बनकर जरूर दौड़ने लगेगा। और हमारी आने वाली नई जवां पीढ़ी भी इस नैतिकता को और अधिक ताख पर रखकर खुलआम सड़कों पर अपनी जिस्‍मानी जरूरतों की पूर्ति करते हुए देखे जा सकेंगे।
अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होना चाहिए कि भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में प्‍यार ने नैतिकता का हनन पश्चिमी सभ्‍यता से भलीभूत होकर ही किया है। क्‍योंकि तमाशबीन प्‍यार भारतीय सभ्‍यता में कभी नहीं रहा। हां यह प्‍यार लुकछिप के भारतीय संस्‍कृति में हमेशा से फल फूलता रहा है, पर नग्‍नता से विमुक्‍त होकर। परंतु जिस तरह पश्चिमी संस्‍कृति में नंगापन अपने पुरजोर पर हावी है उसी नंगेपन के जहर ने भारतीय युवा वर्ग को भी अपनी चपेट में भी लिया है। नंगेपन के जहर की चपेट में आए युवा वर्ग से यह बात तो अवश्‍य ही साबित होती है कि भारतीय युवा वर्ग सकारात्‍मक की अपेक्षा नकारात्‍मक प्रवत्ति को शीघ्र ही आत्‍मसात कर लेते हैं बिना उसके प्रभावों को समझते हुए। और वो पश्चिमी संस्‍कृति के समान आजाद होने की ललक के चलते वहां के नंगे प्‍यार का धीरे-धीरे अपनाते जा रहे हैं, तभी तो चार दिवारी से निकलकर यह प्‍यार सड़कों के किनारे बने पार्कों की झाडियों, सुनसान पड़े खंडहरों, खुलेआम पत्‍थरों की जरा सी आड़ में पनपने लगा है।