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Wednesday, February 19, 2020

मीडिया ट्रायल: एक विश्लेषण


मीडिया ट्रायल: एक विश्लेषण
भूमिका
मीडिया एक ऐसा नाम जो किसी पहचान का मोहताज नहीं है, इसकी ताकत को मापकर किसी ने इसे चौथे खंभे की उपाधि से नवाजा, तो वहीं किसी ने इसे समाज के आईने का तमगा दे दिया। यह वह आईना है जिसने देखते ही देखते वक्त के बदलते हालात के साथ-साथ मीडिया के सारे सरोकार ही बदल कर रख दिए। भूमंडलीकरण के अंधे दौर में मीडिया भी बाजार के साथ दो-दो हाथ करता नजर आया। साम- दंड, भेद -भाव, पैसा, यह सब मीडिया के लिए अनैतिक होने के बजाए हालात का प्रतीक चिह्न बन गए। जिसे समाज ने भी कबूलने में कोई कोताही नहीं की। इस बदलते परिवेश की ही देन रही कि वक्त के बदलते पगडंड़ियों पर चलते-चलते मीडिया ने खबरों को वही पुराने मिजाज से दिखने के बजाए इस चटकारे और मसाले में भुजना ही बेहतर जाना।
वर्तमान में तेजी से उभरती मीडिया ट्रायल की संकल्पना बहुत हद तक इसी की देन है। मीडिया ट्रायल को टी.वी. अधिक कवरेज मिलने के पीछे इसी बाजारवाद का स्वरूप ही प्रमुख रहा। संवेदनशील खबरों को ब्रेकिंग व एक्सक्लूसिव में गढ़कर दर्शकों के कमरे तक पहुंचाया गया। रहस्यमय हत्या की वारदातें, हाई प्रोफाइल, दंपत्तियों की खबरें, अभिनेता, राजनेता, इस मीडिया ट्रायल के प्यादे बने, जिसे मीडिया जब चाहे जिधर चाहे दौड़ा सकता था। ठीक वैसे ही जिस तरह किसी सतरंज की बाजी में प्यादे भागे फिरते हैं।
इस परिप्रेक्ष्य में बात करे तो वक्त-वे-वक्त मीडिया ट्रायल को एक गुनहगार की तरह सवालों के कटघरे में खड़ा किया गया है। कुछ हद तक इसका दोषी खुद मीडिया है। मगर ज्यादातर मामलों में राजनेता और व्यक्ति विशेष अपनी लुटती साख बचाने के लिए मीडिया ट्रायल को हमेशा-हमेशा के लिए बंद करने को लेकर कई दफा आदालत/कानून का दरवाजा बेवजह ही खटखटा चुके हैं।
वैसे मीडिया ट्रायल के संदर्भ में साफ और सटीक विश्लेषण किया जाए तो, मीडिया पर यह आरोप अक्सर लगता है कि किसी अपराध को सनसनीखेज बनाकर मीडिया खुद ही जांचकर्ता, वकील और जज बन जाता है, जबकि पुलिस अभी दूर-दूर तक मामले की सच्चाई के आसपास भी नहीं पहुंचती। यानि मीडिया जब किसी खास मामले की ज्यादा-से-ज्यादा कवरेज और उसकी तह में जाने की हद से ज्यादा कोशिशें होने लगती है और सच्चाई का खुलासा करने की होड़ में आरोपियों और मामले से जुड़े लोगों की सरेआम कैमरे पर इस तरह जिरह होने लगती है जैसे अदालत में कोई मुकदमा चल रहा हो। ऐसी स्थिति में मीडिया न्यायालय के विचाराधीन किसी प्रकरण के होते हुए भी न्यायपालिका के फैसले से पूर्व ही अपना फैसला अपने कार्यक्रमों, बहस और खबरों जरिए तय कर देना मीडिया ट्रायलकहलाता है। 
मीडिया ट्रायल, इस बहुप्रचारित शब्द को लेकर काफी लंबी-चैड़ी बहस हो चुकी है और अभी भी हो रही है। इसके पक्ष और विपक्ष में खूब सारे तर्क भी दिए जा रहे हैं। दरअसल, किसी भी निर्णय तक पहुंचने से पहले हमें इससे जुड़ी हर एक बारीकी और अर्थ को समझना होगा। सबसे पहले सवाल यह उठता है कि मीडिया ट्रायल जैसा शब्द आया कहां से? यह एक नई अवधारणा है या तबसे इसका अस्तित्व है जबसे चैथे स्तंभ की शुरुआत हुई? कोई यह तर्क भी दे सकता है कि मांग के हिसाब से ही इस दुनिया में कोई चीज अस्तित्व में आती है। इसलिए यदि मीडिया ट्रायल शुरू हुआ तो इसके लिए व्यवस्था में शामिल संस्थाओं की निष्क्रियता या असफलता जैसे तर्क ही सूझते हैं। एक ऐसे वक्त में, जब अन्य संस्थाएं असफल हो रही हों, तब न्यायपालिका की तरह मीडिया खुद को सामने खड़ा कर अपने तरह से उस शून्य को भरने की कोशिश करता है, जो अन्य संस्थाओं की असफलता की वजह से पैदा हुआ है और इस तरह न्यायिक सक्रियता या मीडिया ट्रायल जैसी अवधारणाओं का जन्म होता है.
एक तरह से देखें तो ऐसा नहीं कहा जा सकता। पुलिस-प्रशासन, अदालत सभी अपने दायरे में अपने तरीके से किसी भी मामले पर कार्रवाई करते हैं। यहां सवाल पक्षपात या निष्पक्षता का नहीं है, ये एक प्रक्रिया है, जिसका पालन तमाम जांच एजेंसियां और कानूनी पक्ष करते हैं और इसमें जो भी समय लगे, उसके बाद नतीजा निकलकर सामने आता है, जो किसी के पक्ष में होता है और किसी के खिलाफ। अब नतीजा सही होता है या गलत, ये अलग चर्चा और बहस का विषय है। लेकिन किसी मामले में मीडिया, खासकर टेलीविजन की दिलचस्पी और अति-सक्रियता क्यों होती है? और क्यों स्थिति मीडिया ट्रायलके स्तर तक पहुंचती है? ये पहलू विचारणीय है।
शोध का उद्देश्य-
1.मीडिया ट्रायल को परिभाषित करना।
2.मीडिया ट्रायल द्वारा न्यायालय पर दबाव बनाता है का अध्ययन करना।
3.मीडिया ट्रायल की उपयोगिता का विश्लेषण करना।
शोध की उपकल्पना-
1.मीडिया ट्रायल द्वारा न्यायालय के साथ-साथ जांच आयोगों पर भी दबाव बनने का कार्य करता है।
2.वर्तमान में समाज से जुड़ी समस्याओं पर मीडिया ट्रायल आम तौर पर नदारत देखा जा सकता है।  
शोध प्रविधि-
·       निदर्शन प्रविधि- निदर्शन प्रविधि का प्रयोग करते हुए मीडिया ट्रायल के संबंध में जानकारी प्राप्त करने हेतु ऑन लाइन 200 लोगों का चयन किया गया है। 
·       प्रश्नावली प्रविधि- डेटा संकलन हेतु प्रश्नावली प्रविधि का प्रयोग किया गया है।
·       अवलोकन प्रविधि- डेटा  संकलन हेतु अवलोकन प्रविधि का प्रयोग किया गया है।
शोध सीमा-
प्रस्तुत शोध पत्र के अंतर्गत केवल ऑन लाइन लोगों का चयन कर उनके मतों का समावेश किया गया है। 
उत्तरदाताओं से प्राप्त उत्तर का विश्लेषण-
ग्राफ संख्या:- 1


उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से 52 (26 प्रतिशत) ने माना कि  मीडिया न्यायालय में विचाराधीन प्रकरणों पर टी.आर.पी के लिए ट्रायल चलाता है, जबकि 36 उत्तरदाताओं (18 प्रतिशत) ने कहा कि विज्ञापन के लिए। वहीं 21 उत्तरदाताओं (10.5 प्रतिशत) ने कहा कि खबरों के प्रसारण हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है तथा 91 उत्तरदाताओं (45.5 प्रतिशत) ने कहा कि न्यायालय पर दबाव हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है। अतः आंकड़ों से ज्ञात होता है कि मीडिया न्यायालय पर दबाव हेतु न्यायालय में विचाराधीन प्रकरणों पर ट्रायल चलाता है।
ग्राफ संख्या:- 2


उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 68 (34 प्रतिशत) ने माना कि मीडिया आपराधिक मामलों पर ट्रायल चलाता है, जबकि 119 उत्तरदाताओं (59.5 प्रतिशत) ने कहा कि सनसनीखेज मामलों पर मीडिया ट्रायल चलाने का कार्य करता है। वहीं 13 उत्तरदाताओं (6.5 प्रतिशत) ने कहा कि समाज से जुड़े हुए मुद्दों को उठाने के लिए मीडिया ट्रायल चलाता है। अतः आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि मीडिया सनसनीखेज मामलों पर सबसे ज्यादा मीडिया ट्रायल चलाता है।
ग्राफ संख्या:- 3


उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से 16 (8 प्रतिशत) का मत है कि मीडिया ट्रायल में शिक्षा से संबंधित खबरों का अभाव रहता है। 18 उत्तरदाताओं (9 प्रतिशत) ने कहा कि कृषि से संबंधित खबरों का, जबकि 82 उत्तरदाताओं (41 प्रतिशत) ने नारी सशक्तिकरण की खबरों का अभाव कहा। वहीं 84 उत्तरदाताओं (42 प्रतिशत) ने कहा कि मीडिया ट्रायल में विकास से संबंधित खबरों का अभाव देखा जा सकता है। अतः ग्राफ से स्पष्ट है कि मीडिया ट्रायल में नारी सशक्तिकरण एवं विकास से संबंधित खबरों का ज्यादा अभाव रहता है।
ग्राफ संख्या:- 4


उपरोक्त ग्राफ से यह ज्ञात होता है 200 उत्तरदाताओं में से (17.5 प्रतिशत) का मत है कि मीडिया ट्रायल का पुलिस कार्यवाही पर अधिक प्रभाव पड़ता है, जबकि (6 प्रतिशत) ने अभियुक्तों पर प्रभाव के पक्ष में अपना मत दिया। वहीं (38.5 प्रतिशत) ने न्यायपालिका की कार्यप्रणाली प्रभावित होने के पक्ष में मत दिया तथा (38 प्रतिशत) ने कहा कि जांच आयोगों पर मीडिया ट्रायल का प्रभाव ज्यादा पड़ता है। अतः स्पष्ट है कि मीडिया ट्रायल का न्यायापालिका के साथ-साथ जांच आयोगों पर भी ज्यादा प्रभाव पड़ता है।
निष्कर्ष
मीडिया द्वारा इस स्थिति में खबरों की खबर लेने की कोई सीमा नहीं होती और कवरेज और प्रसारण का दायरा इतना बढ़ता हुआ नजर आता है कि उसे रिपोर्टिंग से हटकर मीडिया ट्रायलका दर्जा दे दिया जाता है। ये काफी हद तक ऐसी मुहिम की स्थिति है, जिसे कई टेलीविजन समाचार चैनल बाकायदा घोषित रूप से चलाते रहे हैं। भारत में प्रियदर्शिनी मट्टू, जेसिका लाल, नीतीश कटारा, बीजल जोशी, रुचिका गिरहोत्रा, आरुषि तलवार हत्याकांड जैसे आपराधिक मुद्दे हों, या भ्रष्टाचार से जुड़ी खबरों के मुद्दे- जिन पर टेलीविजन समाचारों की सबसे ज्यादा कवरेज हुई है और इनकी कवरेज बहस और विवादों का भी मुद्दा रही है। ये कहना सही नहीं होगा कि ऐसे तमाम मामलों को टेलीविजन पर उठाए जाने की वजह से ही इनके दोषियों को सजा हुई। मीडिया के जोर के चलते, समाचार चैनलों की मुहिम के चलते पीड़ितो को इंसाफ मिला? ये सिर्फ एक सोच भर है और इंसाफ की जंग लड़ने वालों को भी लगता है कि मीडिया का उन्हें साथ मिला है, मीडिया उनका सहारा बना रहा है। गालिबन, ये दिल को बहलाने को एक अच्छा ख्याल  हो सकता है, लेकिन खबरों के प्रसारण का कोई ज्यादा दबाव मामलों के फैसलों पर पड़ता हो, ऐसा कम ही लगता है।
एक तरह से यह भी देखें तो मीडिया ट्रायलएक कानूनी जुमला है, जिसका मतलब प्रसारण के जरिए न्याय दिलाने की प्रक्रिया से है। व्यावहारिक और वैधानिक तौर पर पीड़ित को न्याय दिलाना तो मीडिया पर खबर दिखाकर असंभव है, क्योंकि मुकदमे का ट्रायलकानूनी प्रक्रिया है और किसी को दोषी ठहराना, उसे सजा देना और किसी को बरी करना अदालतों का ही काम है। लेकिन मीडिया ट्रायलके जुमले का इस्तेमाल Fair trial’ के रास्ते में बाधा मानकर किसी भी खबर के मामले में कवरेज को सीमित करने के लिए किया जा सकता है। जिन मामलों को बेहद संवेदनशील माना जाता है, उनकी कवरेज पर मीडिया को संयमित रहने की सलाह दी जाती है। अदालतों में भी कई बार मीडिया के प्रवेश पर पाबंदी लग जाती है क्योंकि वहां से निकलने वाली खबरों के सीधे प्रसारण से पब्लिक या पब्लिक की नुमाइंदगी करने का दावा करने वाले संगठनों, पार्टियों, गैरसरकारी संगठनों के कार्यकर्ताओं या किसी समुदाय विशेष की भावनाएं भड़कने का अंदेशा रहता है जिसकी प्रतिक्रिया हिंसा में तब्दील होने का खतरा बना होता है। इस दौरान आरोपियों, दोषियों, गवाहों और न्यायाधीशों पर भी खतरे का अंदेशा होता है, लिहाजा समाचारों के प्रसारण में संयम की अपील की जाती है और कई बार पाबंदियां भी अदालतों की ओर से लगा दी जाती है।
आंकड़ों से प्राप्त निष्कर्ष से स्पष्ट होता है कि मीडिया 34 प्रतिशत आपराधिक मामलों पर तथा 59.5 प्रतिशत सनसनीखेज मामलों पर मीडिया ट्रायल चलाने का कार्य करता है। जिनमें 41 प्रतिशत तक नारी सशक्तिकरण और 42 प्रतिशत तक विकास से संबंधित खबरों का अभाव रहता है। मीडिया जब ट्रायल चलाता है तो 45.5 प्रतिशत ने उत्तरदाताओं ने कहा कि वह न्यायालय पर दबाव हेतु मीडिया ट्रायल चलाता है। जिससे 38.5 प्रतिशत न्यायपालिका की कार्यप्रणाली के साथ-साथ 38 प्रतिशत जांच आयोगों पर भी मीडिया ट्रायल का प्रभाव ज्यादा पड़ता है।
वैसे यह कहना गलत नहीं होगा कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका Watch Dog की तरह मानी गई है और टेलीविजन समाचार चैनल तो आज के दौर में इस भूमिका को बिलकुल सही तरीके से निभाते दिख रहे हैं, क्योंकि कैमरे से समाज की कोई बात छिपती नहीं और सच हर रोज सामने दिखता है। लिहाजा समाज में क्या चल रहा है वो सब दिखाना तो टेलीविजन समाचार चैनलों की जिम्मेदारी है। पब्लिक के विचारों और उनकी आवाज को सामने लाना भी इसका हिस्सा है, जो कई खबरों के मामलों में इतना तेज होकर उभरता है कि उससे प्रभावित होने वाले कई पक्षों को उसके विपरीत असर का भय सताने लगता है और मुझे लगता है कि यही स्थिति मीडिया ट्रायलका एक ऐसा आवरण खड़ा करती है, जिसका हव्वा खड़ा करके मुद्दे की ज्यादा चर्चा को रोका जा सके।
बहरहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर क्षेत्र के रेगुलेशन, उसके कामकाज के तौर-तरीके और उसे कानूनी दायरे में रखने की प्रक्रिया है, चाहे वो कार्यपालिका हो, विधायिका हो, न्यायपालिका या मीडिया ही क्यों न हो। ऐसे में अगर मीडिया ट्रायलजैसा कोई संकट व्यवस्था को लगता है, तो उस पर नियंत्रण, उसकी दिशा तय करने के लिए उपाए किए जा सकते हैं, उस पर भी बहस हो सकती है और अदालत या अदालत से बाहर ये बातें हो सकती हैं और होती भी हैं कि किस तरह की खबर को दिखाने और उस पर चर्चा का क्या तरीका होना चाहिए। कभी सरकार और सूचना और प्रसारण मंत्रालय, तो कभी खुद समाचार चैनलों के प्रसारकों की संस्थाएं, तो कभी खुद अदालतों की ओर से ऐसे मुद्दों पर चर्चा होती रहती है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
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2.नन्दा, वर्तिका, उदय सहाय, (2009) मीडिया और जन संवाद, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
3.पचौरी, सुधीशए (2003) साइबरस्पेस और मीडिया, प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली
4.पाण्डेय, डॉ. रतन कुमार (2008) मीडिया का यथार्थ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
5.मंडल दिलीप, (2011) मीडिया का अंडरवल्र्ड, राधाकृष्ण, नई दिल्ली
6.शर्मा, कुमुद (2009)समाचार बाजार की नैतिकता, सामयिक बुक्स, नई दिल्ली
7. http://aaakashkshiteeja.blogspot.in/2016/04/blog-post_15.html
8-http://mkgbloger.blogspot.in/2012/10/blog-post_29.html
9-http://www.amarujala.com/india-news/media-trial-needs-to-be-curbed-supreme-court
10-http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-truth-of-media-trial-12894773.html
11-https://gulabkothari.wordpress.com
12-https://hindi.news18.com/news/city-khabrain/217478.html
13-https://khabar.ndtv.com/news/blogs/prime-time-intro-on-public-trial-of-media-760476
14-https://navbharattimes.indiatimes.com/india/supreme-court-hints-at-end-to-media-trial/articleshow/57031083.cms
15-https://sapneaursapne.wordpress.com

1 comment:

Anonymous said...

umda jankari