कश्मीर
को समस्या न मानें... पुख्ता समाधान खाजें
धर्म
साम्राज्य के पैरों ने आज समूचा भारत नाप लिया है। वैसे किसी देश, राज्य की भौगोलिक संस्कृतियां ही वहां की मुख्य कर्ता होती है और वहीं
यह तय करती है कि वहां का विकास किस तरह हो। यानि एक लाइन में कहा जाए तो संस्कृतियां
ही किसी देश, राज्य का भाग्य निर्माण का रास्ता तय कर
सकती हैं। परंतु किसी राज्य को लेकर विवाद की स्थिति बन जाए तो संस्कृतियां भी
उसका विकास करने में अक्षम साबित होगीं। जी मैं कश्मीर मुद्दे की बात कर रहा
हूं.... 1947 में भारत के आजाद होने के उपरांत अक्टूबर 1947
को जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरिसिंह ने अपनी रियासत के भारत में
विलय के लिए विलय-पत्र पर दस्तखत किए थे। गवर्नर जनरल माउंटबेटन ने 27 अक्टूबर को इसे मंजूरी दी। विलय-पत्र में न तो कोई शर्त शुमार थी और न ही
रियासत के लिए विशेष दर्जे जैसी कोई मांग। इस वैधानिक दस्तावेज पर दस्तखत होते ही
समूचा जम्मू और कश्मीर, जिसमें पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला
इलाका भी शामिल है, भारत का अभिन्न अंग बन गया।
भारत
के इस उत्तरी राज्य के 3 क्षेत्र हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। दुर्भाग्य से भारतीय राजनेताओं ने इस क्षेत्र की
भौगोलिक स्थिति समझे बगैर इसे एक राज्य घोषित कर दिया, क्योंकि
ये तीनों ही क्षेत्र एक ही राजा के अधीन थे। सवाल यह उठता है कि आजादी के बाद से
ही जम्मू और लद्दाख भारत के साथ खुश हैं, लेकिन कश्मीर खुश
क्यों नहीं? हालांकि विशेषज्ञ कहते हैं कि पाकिस्तान की चाल
में फिलहाल 2 फीसदी कश्मीरी ही आए हैं बाकी सभी भारत से
प्रेम करते हैं। यह बात महबूबा मुफ्ती अपने एक इंटरव्यू में कह चुकी हैं। लंदन के
रिसर्चरों द्वारा पिछले साल राज्य के 6 जिलों में कराए गए
सर्वे के अनुसार एक व्यक्ति ने भी पाकिस्तान के साथ खड़ा होने की वकालत नहीं की,
जबकि कश्मीर में कट्टरपंथी अलगाववादी समय समय पर इसकी वकालत करते
रहते हैं जब तक की उनको वहां से आर्थिक मदद मिलती रहती है। वहीं से हुक्म आता है
बंद और पत्थरबाजी का और उस हुक्म की तामिल की जाती है।
आतंकवाद, अलगाववाद, फसाद और दंगे- ये 4
शब्द हैं जिनके माध्यम से पाकिस्तान ने दुनिया के कई मुल्कों को परेशान कर रखा है।
खासकर भारत उसके लिए सबसे अहम टारगेट है। क्यों? इस ‘क्यों’ के कई जावाब हैं। भारत के पास कोई स्पष्ट
नीति नहीं है। भारतीय राजनेता निर्णय लेने से भी डरते हैं या उनमें शुतुरमुर्ग
प्रवृत्ति विकसित हो गई है। अब वे आर या पार की लड़ाई के बारे में भी नहीं सोच
सकते क्योंकि वे पूरे दिन आपस में ही लड़ते रहते हैं, बयानबाजी
करते रहते हैं। सीमा पर सैनिक मर रहे हैं पूर्वोत्तर में जवान शहीद हो रहे हैं
इसकी भारतीय राजनेताओं को कोई चिंता नहीं। इस पर भी उनको राजनीति करना आती है।
कहते जरूर हैं कि देशहित के लिए सभी एकजुट हैं लेकिन लगता नहीं है। जब इस तर की
स्थिति बनी तो नाकारा राजनेताओं ने कश्मीर को सबसे बड़ी समस्या मान लिया। और जब
समस्या मान लिया तो समाधान आसान कैसे हो सकता है? किसी
जमाने में स्कर्वी नाम की भयानक बीमारी से बड़ी संख्या में समुद्री यात्री मरा
करते थे। एक मामूली डाक्टर ने बताया कि यह बीमारी नींबू का रस पीने से ठीक हो जाती
है। ठीक होने भी लगी, लेकिन इतनी भयंकर बीमारी के इतने आसान
इलाज की बात स्वीकार करने में ही सौ साल लगे। आज इस बीमारी के बारे में सुना भी
नहीं जाता। यही स्थिति कश्मीर की वर्तमान समय में बनी हुई है क्योंकि इस समस्या
का हल पिछले 70 सालों पहले ही निकल जाना चाहिए परंतु नहीं.... अभी तक इसका कोई
पुख्ता हल खोजने की कोशिशें भी नहीं की गई।
सही है जिस समस्या से बहुत सारे लोगों को फायदा पहुंचता हो उस समस्या का
समाधान नहीं किया जाता, उसको और उलझाया जाता है ताकि फायदा मिलता रहे। क्योंकि अब कश्मीर
एक राज्य नहीं एक इंडस्ट्री है जहां से लाखों लोगों का कारोबार चलता है। राजनेता
अपनी-अपनी रोटियां सेंकते हैं, आतंकवादी मासूमों को अपना
शिकार बनाते हैं और इन आतंकवादियों के आका हथियारों का व्यापार करते हैं। क्योंकि
समय-समय पर युद्ध नहीं होगा तो हथियारों को खरीदेगा कौन.... चाहे आंतकवादी हो या फिर भारतीय सैनिक.. आतंकवादियों
को आतंक फैलाने के लिए और भारतीय सैनिकों को रक्षा करने के लिए हथियारों की जरूरत
तो पड़ती ही है।
वहीं
जब भारतीय राजनीति ईश्वर-अल्लाह के नाम पर चलने लगती है तो जाहिर है वह हमें आज की
समस्याओं का समाधान नहीं देती। क्या धर्म ने पाकिस्तान की समस्याओं का समाधान कर
दिया है?
नहीं, क्योंकि धर्म तो जिंदगी के बाद का
रास्ता बनाता है। हमें मालूम है कि कश्मीर
के अलगाववादी आदोलन की असलियत क्या है। अगर कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में चला
जाता तो वही सब कुछ पाकिस्तानी भू-स्वामीवर्ग और पाकिस्तानी सेना द्वारा वहां किया
जाता, जो कबाइलियों ने 1947 में
प्रारंभ किया था। वैसे अलगावाद, आतंकवाद, फसाद और दंगे जैसी कश्मीर की इन नकली समस्याओं के कारण जो असल समस्याएं
शिक्षा, रोजगार और विकास की हैं, पीछे
रह गई हैं। इस जाहिलियत के माहौल ने उन्हें राष्ट्रीय नागरिक नहीं बनने दिया। हम
सशक्त देश हैं, पर कमजोरों की तरह व्यवहार करते हैं।
गठबंधनों से आ रही सत्ताएं हमारी कमजोरी का मूल स्त्रोत बन गई हैं। घटक दलों के
सामने दुम हिलाना और फिर उसी सास में चीन को चेतावनी देना कहां संभव है? क्योंकि हाथों में चुडियां पहन लेने से और हाथों पर हाथ रखकर बैठने से, बार-बार वार्ता करने से इस समस्या का समाधान नहीं
खोजा जा सकता.... कोई न कोई पुख्ता फैसला तो लेना चाहिए........ क्योंकि भारतीय
सैनिक इस समस्या का समाधान करने में काफी है परंतु उनके हाथों को इन राजनेता ने
जकड़ रखा है। कश्मीर विवाद कश्मीर पर अधिकार को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच 1947
से जारी है। इसको लेकर पाकिस्तान ने भारत पर तीन बार हमला किया और तीनों बार उसे
बुरी तरह से पराजय मिली। 1971 के युद्ध में तो भारत ने पलटवार करते हुए पाकिस्तानी
सेना को इस्लामाबाद तक खदेड़ दिया था। और लगभग आधे पाकिस्तान पर कब्जा कर लिया
परंतु पाकिस्तान के आत्मसमर्पण के बाद
भारत ने उदारता दिखाते हुऐ जीती हुई जमीन पुनः लौटा दी। इस तरह की उदारता आखिर क्यों
और कब तक। यह सब जानते हैं कि लातों के भूत बातों से कहां मानते हैं.... शरीर के
किसी अंग में जहर फैलने लगे तो उस अंग को काट देने में ही भलाई है ताकि वह पूरे
शरीर को अपनी चपेट में न ले ले। ठीक ऐसे ही जब पाकिस्तान ही जहर फैलाने का काम कर
रहा है तो उसको जड़ से ही काट देने की बुद्धिमता का प्रतीत है। कब तक गांधी ने
पद्चिह्नों पर चला जा सकता है कि जब कोई एक गाल पर चांटा मरे तो दूसरा गाल आगे कर
दिया जाए.... यह सिर्फ गांधी की भूमि नहीं..... भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद, लक्ष्मीबाई की भी है। जब कोई गाल पर चांटा मरें तो हाथ ही काट लिया जाए
ताकि वह पुन: कोशिश ही न कर सके। क्योंकि वक्त रहते कश्मीर समस्या का समाधान
नहीं खोजा गया तो आज के इस बुरे हालातों की स्थिति और भी बदतर हो सकती है।
No comments:
Post a Comment