धर्मों की आड़ में जीव हत्या न करें
बलि प्रथा /कुर्बानी मानव जाति में वंशानुगत चली आ
रही एक सामाजिक प्रथा अर्थात सामाजिक व्यवस्था है। इस पारंपरिक व्यवस्था में मानव
जाति द्वारा मानव समेत कई निर्दोष प्राणियों की हत्या यानि कत्ल कर दिया जाता है।
विश्व में अनेक धर्म ऐसे हैं, जिनमें इस प्रथा का प्रचलन पाया जाता है। यह मनुष्य जाति द्वारा मात्र
स्वार्थसिद्ध की व्यवस्था है, जिसे बलि-प्रथा/कुर्बानी कहते
है।
सभी धर्मों में जीव-हिंसा को पाप माना गया है। जो
धर्म प्राणियों की हिंसा का आदेश देता है,
वह कल्याणकारी कैसे हो सकता हैं और इसमें किसी भी प्रकार से विश्वास
नहीं किया जा सकता। धर्म की रचना ही संसार में शांति और सद्भाव बढ़ाने के लिए हुई
है। यदि धर्म का उद्देश्य यह न होता तो उसकी इस संसार में आवश्यकता न रहती। संसार
के आदिकाल में पशुओं के समान ही मनुष्य वन्य जीव-जन्तुओं का वध किया करता था। उसकी
सारी प्रवृत्तियां भी पशुओं के समान ही थीं। वह उन्हीं के समान हो-हो खो-खो करके
बोला करता था, नंगा फिरता और मांद गुफाओं में रहा करता था,
धीरे-धीरे मनुष्य ईश्वरीय तत्त्व का विकास हुआ। उसकी बुद्धि जागी और
वह बहुत-सी पाशविक प्रवृत्तियों को अनुचित समझकर उन्हें बदलने लगा। उसने आखेट
जीविका का त्याग कर कृषि और पशुपालन अपनाया वल्कल से प्रारंभ कर कपास निर्मित
वस्त्र पहनने प्रारंभ किए। हिंसा वृत्ति के शमन से सामाजिकता का विकास किया,
समाज व परिवार बनाया और दया, करुणा, सहायता, सहयोग का मूल्य समझकर निरंतर विकास करता हुआ,
इस सभ्य अवस्था तक पहुंचा।
ज्यों-ज्यों मनुष्य का विकास होता गया, त्यों-त्यों वह स्थूल से सूक्ष्म
की ओर-शरीर से आत्मा की ओर-- और लोक से परलोक की ओर विचारधारा को अग्रसर करता गया
और अंत में उसने परमात्मा तत्त्व के दर्शन कर लिए। स्थूल से जो जितना सूक्ष्म की
ओर बढ़ा है, वह उतना ही सभ्य तथा सुसंस्कृत माना जाएगा और
जिसमें जितनी अधिक पाशविक अथवा आदि प्रवृत्तियां शेष हैं, वह
उतना ही असभ्य एवं असंस्कृत माना जाएगा। पाशविक प्रवृत्तियों में जीव-हिंसा सबसे
जघन्य प्रवृत्ति है। जिसमें इस प्रवृत्ति की जितनी अधिकता पाई जाए, उसे बाहर से सभ्य परिधानों को धारण किए होने पर भी भीतर से उतना ही अधिक
आदिम असभ्य मानना चाहिए।
वैसे यों खाने के लिये कोई मांस खाकर व्यक्तिगत निंदा
का पात्र बने तो बना करे,
किंतु धर्म के नाम पर पशुवध करने का उसको या किसी को कोई अधिकार नहीं है। जिस
कल्याणकारी धर्म का निर्माण अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा और दयामूलक सिद्धांतों पर किया गया है,
उसके नाम पर अथवा उसकी आड़ लेकर पशुओं का वध करना धर्म के उज्ज्वल
स्वरूप पर कालिख पोतने के समान ही है। ऐसा करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। जो
ऐसा करता है, वह वस्तुतः धर्म-द्रोही है और लोक-निंदा और
अपयश का भागी है।
अपने को हिन्दू/ मुसलमान कहने और मानने वाले अनेक
धर्म ऐसे हैं, जिनमें
पशु-बलि/कुर्बानी की प्रथा समर्थन पाए हुए हैं। ऐसे लोग यह क्यों नहीं सोचते कि
हमारे देवताओं/अल्लाहों एवं ऋषियों/ पैगबरों ने जिस विश्व-कल्याणकारी धर्म का ढांचा
इतने उच्च-कोटि के आदर्शों द्वारा निर्मित किया है, जिनके
पालन करने से मनुष्य देवता/अल्लाह बन सकता है, समाज एवं
संसार में स्वर्गीय वातावरण का अवतरण हो सकता है, उस धर्म के
नाम पर हम पशुओं का वध करके उसे और उसके निर्माता अपने पूज्य पूर्वजों को कितना
बदनाम कर रहे हैं। यह सोचने वाली बात है।
धर्म के मूलभूत तत्त्व-ज्ञान को न देखकर अन्य लोग
धर्म के नाम पर चली आ रही अनुचित प्रथाओं को धर्म का आधार मान कर उसी के अनुसार
उसे हीन अथवा उच्च मान लेते हैं, अश्रद्धा अथवा घृणा करने लगते हैं। इस प्रकार धर्म को कलंकित और अपने को
पाप का भागी बनाना कहां तक न्याय-संगत और उचित है। इस बात को समझे और पशु-बलि/कुर्बानी
जैसी अधार्मिक प्रथा का त्याग करें।
क्योंकि पशु-बलि/कुर्बानी करने वाले लोग बहुधा
देवी-देवताओं/अल्लाहों को प्रसन्न करने के लिए ही उनके सामने अथवा उनके नाम पर
जानवरों और पक्षियों आदि निरीह जीवों का वध किया करते हैं। इस अनुचित कुकर्म से देवी-
देवता/अल्लाह प्रसन्न हो सकते हैं,
ऐसा मानना अंध-विश्वास की पराकाष्ठा है। उनकी महिमा को समाप्त करना
और हत्यारा सिद्ध करना है। अपने प्रति ऐसा अन्याय करने वालों से देवी देवता/अल्लाह
प्रसन्न हो सकते है, यह सर्वथा असंभव है।
हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं के कारण हिंदू
धर्म, मुस्लिम धर्म में कई ऐसी
अंतरविरोधी और विरोधाभाषी विचारधाराओं का समावेश हो चला है, जो
स्थानीय संस्कृति और परंपरा की देन है। जिस तरह वट वृक्ष पर असंख्य लताएं, जंगली बेले चढ़ जाती है उसी तरह हिंदू धर्म, मुस्लिम
धर्म की हजारों वर्षों की परंपरा के चलते कई स्थानीय परंपराओं की लताएं भी धर्म पर
चढ़ गई है। उन्हीं में से एक है बलि/ कुर्बानी परंपरा या प्रथा।
बली प्रथा/कुर्बानी : देवताओं/ अल्लाहों को
प्रसन्न करने के लिए बलि/कुर्बानी का प्रयोग किया जाता है। बलि प्रथा/कुर्बानी के
अंतर्गत बकरा, मुर्गा या
भैंसे की बलि/कुर्बानी दिए जाने का प्रचलन है। हिंदू धर्म में खासकर मां काली और
काल भैरव को बलि चढ़ाई जाती है। वहीं मुस्लिम धर्म में अल्लाह को खुश करने के लिए
कुर्बानी दी जाती है। वैसे धर्म और आस्था के नाम पर किसी भी प्रकार की बलि प्रथा/कुर्बानी
की इजाजत नहीं दी गई है।..यदि आप मांसाहारी है तो आप मांस खास सकते हैं लेकिन धर्म
की आड़ में नहीं। हालांकि जैसा सभी धर्मों में कहा गया है कि जीव हत्या पाप है इसके
बाद भी लोग अपने धर्म को परे रखकर धर्म के नाम पर ही जीवों की लगातार हत्या कर रहे
हैं यह कहां तक उचित प्रतीत होता है। एक तरफ आप अपने-अपने धर्म को सर्वोपरि मानते है
दूसरी तरफ उसकी अवहेलना करते हैं। वाह रे इंसान.... अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु आप कुछ
भी कर सकते हैं।
वैसे आपको बली/कुर्बानी देनी है तो अपने प्रियजनों की देकर देखिए... कौन सा भगवान/अल्लाह आज के समय में आकर उसे पुन: जीवन दान देता है।
बाकि किसी भी प्राणी की हत्या आपको पाप का भागीदार बनाती है। तो धर्म के नाम पर इस
तरह का कृत्य छोड़कर धर्मों में लिखी बातों को ही मानना हो तो प्राणी की रक्षा करें
न की हत्या।
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