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Saturday, March 3, 2018

राम राज्‍य की वास्‍तविक हकीकत....


राम राज्‍य की वास्‍तविक हकीकत....

कभी भूल कर राम राज्‍य फिर से मत ले आना, एक बार जो भूल हो गई वो दुबारा मत करना। राम के राज्‍य में आदमी बाजारों में गुलामों की तरह बिकते थे, कम से कम आज तो आदमी बाजारों में गुलामों की तरह तो नहीं बिकते। और आदमी जब बाजारों में गुलामों की तरह बिकते रहे होगें, तो दरिद्रता निश्चित रही होगी, कोई बिकेगा कैसे, किसलिए बिकेगा।  दीन और दारिद्र ही बिकते होगें, कोई टाटा बिरला, डालमिया बाजारों में बिकेगें नहीं। स्त्रियां  बाजारों में  बिकती थी, वे स्त्रियां ‍गरीबों की ही रही होगी, उनकी ही बेटियां होगी। कोई सीता तो बाजार में बिकती नहीं थी। उसका तो स्‍वयंवर होता था। गरीबों की बच्चियां बिकती थी बाजारों में। और हालात निश्चित ही भयानक रहे होगें। क्‍योंकि बाजारों  में  बिकती ये स्त्रियां और  लोग, आदमी और औरतें दोनों विशेषकर औरतें। राजा तो खरीदतें ही  खरीदतें थे, धनपति खरीदतें ही थे, जिनको तुम ऋषिमुनि कहते हो वो भी खरीदते थे। गजब की दुनिया थी। ऋषिमुनि भी बाजारों में बिकती हुई औरतों को खरीदते थे। अब तो हम भूल ही गए, वधू शब्‍द का असली अर्थ। अब तो हम शादी होती है नई-नई तो वर-वधू को आशीर्वाद देने जाते हैं। हमको पता ही नहीं था किसको आशीर्वाद देने जा रहे हैं। राम के समय में और राम के पहले भी, वधु का अर्थ होता था खरीदी गई स्‍त्री। जिसके साथ तुमको पत्‍नी जैसा व्‍यवहार करने का हक है। लेकिन उसके बच्‍चों को तुम्‍हारी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होगा। पत्‍नी और वधू में यही फर्क था। सभी पत्नियां वधू नहीं थी, सभी वधू पत्नियां नहीं थी। वधू नंबर दो की पत्‍नी थी। जैसे नंबर दो की बही होती है जिसमें चोरी चपाटी को लेखा जोखा होता था ऐसे नंबर दो की पत्‍नी थी वधू। ऋषिमुनि भी वधुएं रखते थे और तुमको ऐसी भ्रंति थी कि ऋषिमुनि गजब के लोग थे। कुछ खास गजब के लोग नहीं थे... वैसे ऋषिमुनि तुमको आज भी मिल जाएंगे।
और आप कहते हैं मौजूद हालत खराब है...इतना बुरा आदमी तो आज पाना मुश्किल है जो बाजार से औरतें खरीद के लाए, आज यह बात ही अमानवीय प्रतीत होगी.... मगर यह जारी थी राम राज्‍य में। शुद्रों को हक नहीं था वेद पढ़ने का, यह तो कल्‍पना के बाहर की बात है कि डॉ. अंबेडकर जैसा शुद्र और राम के समय में भारत के विधान का रचियता हो सकता था.... असंभव। खुद राम ने एक शुद्र के कानों में शीशा पिघलवाकर डलवा दिया था...गर्म शीशा, उबलता हुआ शीशा... क्‍योंकि उसने चोरी से कहीं वेद के मंत्र पढ़ें जा रहे थे जिसको छुप कर सुन लिया था... यह उसका पाप था यह उसका अपराध था। राम तुम्‍हारे मर्यादापुरूषोत्‍तम.. राम को तुम अवतार कहते हो, महात्‍मा गांधी राम राज्‍य को फिर से लाना चाहते थे.... क्‍या करना चाहते थे शुद्रों के कानों में फिर से शीशा डलवाना चाहते थे... फिर इस गरीब पर क्‍या गुजरी होगी किसी फर्क पड़ता है... धर्म का कार्य पूर्ण हो गया, ब्राहम्‍णों ने आशीर्वाद दिया कि राम ने धर्म की रक्षा की... यह धर्म की रक्षा है... तुम कहते हो मौजूदा हालत खराब है ..
यदुष्ठिर जुआं खलते थे और तुम उन्‍हें धर्मराज कहते हो..आज किसी जुआरी को धर्मराज कहने की हिम्‍मत कर सकोंगे.. और जुआंरी भी छोटे-मोटे नहीं, सब जुएं पर दांव पर लगा दिया... पत्‍नी तक को दांव पर लगा दिया...यह तो बात भी अशोभनीय थी. क्‍योंकि पत्‍नी कोई संपत्ति नहीं थी...मगर उन दिनों यही धारणा थी स्त्री संपत्ति थी...उसी धारणा के अनुसार आज जब एक बाप अपनी बेटी का विवाह करता है तो उसे कहते हैं कन्‍या दान... क्‍या गजब कर रहे हो, गाय भैंस दान करों तोसमझ में आता है कन्‍यादान कर रहे हो.. यह दान.. स्‍त्री कोई वस्‍तु है यह असभ्‍य शब्‍द संस्‍कृत के बंद होने चाहिए... मगर यदुष्टिर धर्म राज थे.. और दांव पर लगा दिया अपनी पत्‍नी को भी, हद का दीवानापन रहा होगा.. पहुंचे हुए जुआंरी रहे होगें.. इतना भी होश नहीं रहा.... और फिर भी धर्मराज धर्मराज बने रहे.. ...इससे कुछ अंतर नहीं आया.. इससे उनकी प्रतिष्‍ठा में कोई अंतर नहीं आया.. भीष्‍म पितामह को ब्राह्म ज्ञानी समझा जाता था...मगर ब्रह्म ज्ञानी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे.. गुरू द्रोण को ब्रह्मज्ञानी समझा जाता था मगर द्रोण भी कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे थे.. अगर कौरव अधार्मिक थे दुष्‍ट थे, तो कम से कम भीष्‍म पितामाह में इतनी हिम्‍मत होनी चाहिए थी वह बाल ब्रह्मचारी थे .. और इतनी भी हिम्‍मत नहीं.. तो खाक ब्रह्मचर्य था उनमें.. किस लोलुपता के कारण गलत लोगों को साथ दे रहे थे, और द्रोण तो गुरू थे अर्जुन के भी.. और अर्जुन को बहुत चाहा भी था.. लेकिन धन तो कौरवों  के पास था.. पद कौरवों के पास था.. संभावना भी यही थी की वही जीतेंगे.. राज्‍य उनका था, पाडंव तो भिखारी हो गए थे... इंच भर जमीन भी कौरव देने को राजी नहीं थे...और कसूर कुछ कौरवों का हो ऐसा कुछ लगा नहीं... जब तुम ही दांव पर लगाकर सब हार गए... तो मांगते किस मुंह से थे... मांगने की बात ही गलत थी... खुद ही हार गए अब मांगना क्‍या है... लेकिन गुरू द्रोण भी अर्जुन के साथ खड़े न हुए..... खड़े हुए उनके साथ जो गलत थे.. यही गुरूद्रोण एकलव्‍य का अगूंठा कटवा कर आ गए थे... अर्जुन के हित में.. क्‍योंकि तब संभावना थी कि अर्जुन सम्राट बनेगा... तब इन्‍होंने एकलव्‍य को इंकार कर दिया था शिक्षा देने से.. क्‍योंकि वह शुद्र था.. और तुम कहते हो मौजूदा हालत पसंद नहीं... उस गरीब का कसूर क्‍या था.. अगर उसने मांग की थी, प्रार्थना की थी, मुझे भी स्‍वीकार कर लो शिष्‍य की भांति...मुझे भी सीखने का अवसर दे  दो..लेकिन नहीं, एक शुद्र को कैसे सीखने का अवसर दिया जा  सकता है। मगर  एकलव्‍य अनूठा युवक रहा होगा... अनूठा इसलिए कह  रहा  हूं  कि  उसका खून  नहीं खौला...  खून  खौलता  तो  साधारण युवक कहलाता... सभी युवक  का  खौलता है इसमें कोई खास  बात  नहीं थी.. मगर  उसका नहीं खौला.....  शांत मन से  इसे  स्‍वीकार कर लिया.. एकांत जंगल में  जाकर गुरू द्रोण की  प्रतिमा  बना  ली और  उसी  प्रतिमा के  सामने धनुष विद्या का अभ्‍यास करता रहा.. उस गुरू के  सामने धनुष  विद्या  का  अभ्‍यास करता रहा जिसने उसे  शुद्र होने के कारण शिष्‍य नहीं बनाया था..  अपमान न लिया, अहंकार पर चोट तो लगी होगी लेकिन शांति से, समता से  पी गया... धीरे-धीरे खबर  फैलने  लगी... कि  वह  बड़ा विश्‍वनाथ हो गया है तो गुरूद्रोण को बैचनी होने लगी और खबर यह भी आने लगी थी कि वह अर्जुन उसके सामने कुछ भी नहीं...और अर्जुन पर ही सारा दांव था...अगर अर्जुन  सम्राट बने और सारे जग में सबसे बड़ा धनुषधर बने तो उनकी भी प्रतिष्‍ठा होगी.. कि उनका शिष्‍य उनका शागिर्द  ऊंचाई पर पहुंच जाए तो गुरू भी ऊंचाई पर पहुंच जाएगा....उनका सारा का  सारा स्‍वार्थ अर्जुन में  था.. और एकलव्‍य अगर  आगे  निकल जाए  तो बड़ी बेचैनी की बात  थी..तो यह बेशर्म आदमी जिसको ब्रह्म ज्ञानी कहा जाता था यह गुरू द्रोण जिसने इंकार कर दिया था एकलव्‍य को शिक्षा देने से... यह उससे दक्षिणा लेने  पहुंच गया.. शिक्षा देने से इंकार करने वाला गुरू जिसने दीक्षा ही  नहीं दी.. वो दक्षिणा लेने  पहुंच गया..
 हालात बड़े अजीब रहे होगें... शर्म भी  कोई चीज होती है इज्‍जत भी कोई बात होती है.. आदमी की नाक भी होती है गुरूद्रोण नाक कटे आदमी रहे होंगे..  किस मुंह से जिसको दुत्‍कार दिया था.. दक्षिणा लेने पहुंच गया उसके पास... फिर भी कहता हूं  एकलव्‍य अदभुत युवक था, दक्षिणा देने  के लिए  राजी हो गया...  उस गुरू को जिसने दीक्षा ही नहीं दी  कभी... दुत्‍कार दिया था... और कहा था कि तू शुद्र है.. हम शुद्र को शिष्‍य की तरह स्‍वीकार नहीं कर सकते.. तू  शुद्र है हम तुझे शिक्षा नहीं दे सकते.....बड़ें मजे की बात है कि जिस शुद्र को शिष्‍य की तरह स्‍वीकार नहीं कर सकते थे.. उस शुद्र की दक्षिणा कैसे स्‍वीकार कर सकते हो... मगर उसमें षड्यंत्र था, चालबाजी थी.. उसने चरणों में गिरकार एकलव्‍य ने कहा मैं गरीब हूं मेरे पास आपको देने के लिए कुछ भी नहीं है फिर भी मैं आपको जो भी है मेरे पास सबकुछ  देने  को  राजी हूं.. जो  आप  मांगें.. तो क्‍या मांगा गुरू द्रोण ने...दाहिने हाथ का अगूंठा....हां जी दाहिने हाथ का  अगूठा काट कर हमको दे  दो.. यहां जालसाजी, अमानवीयता, कपट, कुटनीति की कोई सीमा नहीं रही....और यह तो  ब्रह्मज्ञानी थे उस  गरीब से  उसको अगूठा ही मांग लिया.... शिक्षा दी नहीं और दक्षिणा में अगूंठा मांग लिया.. हालात बुरे थे.. यहां हमेशा से सारे कलों की वर्तमान और अतीत की स्थिति बदतर थी.. यानि. हालात हमेशा से खराब थे . .
फिर भी आज रामराज्‍य की पुन: कल्‍पना की जा रही है... यानि सत्‍ताधारी चाहते हैं कि पुन: वो ही स्थिति बने जो रामराज्‍य में  आम जन की थी...शुद्रों की थी... बाजार में बेची जाने वाली एक वस्‍तु जो कहीं भी किसी के  द्वारा खरीदी और  बेची जा  सके.. और अधिकार की बात तो आप एक सिरे से भूल ही जाओं क्‍योंकि राम राज्‍य आएगा तो आपको तैयार होना पड़ेगा कानों में पिघलता हुआ शीशा  डालवाने  के  लिए..... औरतों को  बाजार में  बिकने के लिए.....औरतों के साथ अत्‍याचार के लिए... क्‍योंकि राम राज्‍य में  यही होता आया है...यही  चाहते हैं  तो  राम राज्‍य आना चाहिए....

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