उसके लिए
उसके लिए
आधी से ज्यादा जिंदगी
एक दुस्वप्न सी बीती
उसने
ना जाने कितना ही समय
एक ही साड़ी में
निपटा दिया
मांगे हुए या दिये गए
कपड़ों में
ताउम्र गुज़ार दी
घर की बड़ी बहू होते हुए भी
वो कभी ना सजी,
ना संवरी
हाथ में चार पितल की चुड़िययाँ डाले
हमेशा करछी हिलाते हुए ही मिली
ना जाने कितने ही सपने
उसके भीतर
अपनी मौत मर गए
पलंग का एक कोना पकड़े हुए
कभी खुद पर हँसती
कभी खुद पर रोती
बहुत बार खुद पर नाराज़ होती
नज़र आ जाती थी
अच्छे दिनों की आस में
उसका
पल पल बीत गया
दहेज का भी समान
धीरे धीरे हाथ से
फिसल गया
ना कोई अच्छा दिन आया
ना इज्ज़त ना सम्मान मिला
पर उम्मीद और इंतज़ार का
एक बड़ा सा पहाड़
काटने को मिल गया
कुछ खास सी
';दिव्य'; थी वो मेरे लिए
उसके टूटे-फूटे ब्यान
आज भी दर्ज है
मेरी यादों में
उसका चलना, बैठना,उठना
बात बात पर बिदकना
और फिर मान जाना
ऐसी ही बहुत सी संभव बाते
जो वो किया करती थी
आज भी अंकित है
स्मृतियों में मेरी
मेरे रीति -रिवाजों की तरह ||
2 comments:
बहुत अच्छी कविता। स्त्री मन को समझती हुई।
उसके टूटे फूटे बयान दर्ज हैं, मेरी यादों में .......
सुन्दर
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