अँधेरों और उजालों के बीच
अपने समाज की बंजर ज़मीं पर
ये किस दुनिया के लोग हैं
जो,अँधेरों और उजालों के बीच
ये अपने लिए कौन सा
जीवन ढूंढतें हैं ?
जीवन जो इनके लिए
एक सपना सा है
जो इनके रिश्तों में
कभी गुनगुनी धूप
तो कभी वीरानी ले आते हैं
क्यों इनके हर रिश्ते
की उम्र
सिगरेट के धुएँ सी है?
इनके दिलों में ना
माँ-बाबा की जगह
ना ही कोई मामा ,चाचा ,
ना कोई चाची ..मौसी है
ना जाने क्यों घर के
रिश्तों से
ये पीढ़ी दूर सी हैं ?
दिन के उजालों में काम
का बोझ
और रात के शोर में ये
कठपुतली से नाचते से
क्यों हैं ?
अपने ही दिन और रात के
बीच
इनके मन की कशमकश टूटती
है
जो तोड़ देती है,
तन-मन-तन की बंदिशों को
और नशा हावी होने लगता
है इनपर
हर रोज़,आधी रात के बाद
ये यामिनी के ही गीत
गाते क्यों हैं ?
अलग अलग घर के ये प्राणी
हर मर्यादा लांघते
क्यों हैं
हर वक्त तत्पर ...
बस एक घूँट और
एक कश जिंदगी का
और झूमते सब मदमस्त से
हैं |
चाँद चमका ,चांदनी भी फैली
तभी क्यों शुरू हो जाता
है
नशे का दौर इनका
मन की समाधि में
कौन है जो मौन रह कर
इन्हें उकसाता है
ओझल रह कर भी ,
मदहोशी की
एक नई राह सुझाता है
और क्षण भर शांत रहने
के बाद
चीर डालता है,
इनके भीतर की शांति को
ओर एक नई रोशनी की तलाश में
ये मतवाले निकाल पड़ते
हैं
अपनी एक नई राह बनाने को
हर दिल की बस
एक ही आवाज़ है
झूमो झूम झूम के ...
तब तक ...जब तक
पूर्व दिशा से लाली ना दिखने लगे |
मन की बंजर ज़मीं पर
अँधेरों और उजालों के
बीच
थिरकती ये आकृतियाँ
क्यों खोल देती हैं
बंधन देह के
सब से खुद को बेहतर
दिखाने के लिए
इन अँधेरे और उजालों के
बीच ||
सभार.................अंजु चौधरी (अनु)
No comments:
Post a Comment