अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रताः न्यू-मीडिया
पत्रकारिता के बदलते स्वरूप की बात करें तो यह साफ-साफ देखने को मिलता है कि, कल भारत देश अंग्रेजों की गिरफ्त में था और पत्रकार आजाद थे। पूर्णरूप से आजाद। आज ठीक इससे विपरीत स्थिति है, भारत आजाद है और पत्रकार गुलाम। पूर्णरूप से। इस गुलामी भरी पत्रकारिता का जिम्मेदार केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेश के साथ इतना बदल चुका है कि उसने मीडिया और पत्रकारों के शब्दों को भी बदल दिया है। आज मीडिया पाठकों के दृष्टिकोण से सोचने लगी है, जैसा पाठक वर्ग पसंद करते है वो ही परोस देता है, चाहे इसका समाज पर प्रभाव कुछ भी हो। इसके पश्चात् पत्रकारों को संपादक व प्रबंधन दोनों को झेलना पड़ता है।
एक तरफ संपादक खबरों को झांड-झांडकर उसमें से अपना हिस्सा निकालता रहता है तो दूसरी ओर प्रबंधन की तलवार हमेशा ही सिर पर मड़रती रहती है, कि विज्ञापन लाना जरूरी है चाहे खबर हाथ लगे या न लगे। विज्ञापन तो चाहिए ही। इस तकड़ी की मार से पत्रकार की पत्रकारिता प्रभावित होती रही है। मूल मुद्दा हमेशा अंधकार की चादर में दबा रहता है या दबा दिया जाता है। शायद एक सजक पाठक और स्रोता होने के नाते मैं भलीभांति बता सकता हूं, वहीं पत्रकार शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को इस चादर में छिपा लेता है और सोचाता है कि किसी ने उसको देखा ही नहीं, इस गलतफहमी में वो हमेशा से बना रहता है और अपनी पत्रकारिता को अंजाम देता है। मैं पत्रकारों पर सवाल नहीं उठा रहा हूं, वैसे बहुत बार तो पत्रकारों द्वारा लायी गई महत्व पूर्ण खबर को संपादक कचड़े के डिब्बे में डाल देते है जिससे उनके संबंध और नौकरी पर आंच न आये। इससे समाज में वो सारी खबरों आने से चूक जाती है जिसका समाज से सरोकार होता है। और पत्रकार आपने आपका ठगा सा महसूस करता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पत्रकारिता की बात करें तो पत्रकारिता में बाजार और व्यवसाय दोनों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। जिस कारण से लोगों को जागरूक और शिक्षित करने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटक चुका है, और यह आधारशिला पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है। मीडिया में पेड न्यूज और पूंजीपतियों का बढ़ता प्रभाव देश एवं समाज के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण पत्रकारिता जगत के लिए भी घातक है।
पत्रकारिता के स्वरूप में परिवर्तन को हम देख सकते हैं कि किस प्रकार संपादक और प्रबंधक की चक्की में पीसने से बचने के लिए, आज अधिकांश पत्रकार और पढ़े-लिखे लोग अपनी बात को बिना किसी कांट-छांट के, बिना किसी हस्त क्षेप के न्यू-मीडिया के मध्यकम से समाज के सामने प्रस्तुत कर रहें हैं। इसका सारा श्रेय इंटरनेट को ही जाता है। इस आलोच्य में कहा जाए तो इंटरनेट ने मोर के पंखों की भांति सारी दुनियां को रंगीन बना दिया है। जो दिल चाहे इंटरनेट के माध्यम से कर सकते हैं। इसी इंटरनेट ने पत्रकारों को अपनी बात रखने के लिए एक नया मंच सोशल मीडिया के रूप में प्रदान किया। जिसमें सर्च इंजन, ब्लॉग्स एवं बेवसाइट आदि आते हैं।
वैसे तो पूर्व मीडिया का सत्ता परिवर्तन हो रहा है, और मीडिया की सत्ता पर न्यू-मीडिया काबिज होता जा रहा है। जिसकी चकाचैंध से मीडिया जगत सकते में है, उसे अपनी सत्ता और शाख गिरते हुए दिखाई दे रही है। तभी तो पूर्व मीडिया न्यू-मीडिया के पहलुओं को धीरे-धीरे अपनाता जा रहा है। आज चाहे कोई सा समाचारपत्र हो या चैनल सभी ने अपने-अपने वेब संसकरण तैयार कर लिए हैं जैसे-नवभारत टाईम्स ने नवभारत टाईम्स डॉट इंडिया टाईम्स डॉट कॉम, हिंदुस्तान टाईम्स ने अपना नेट संस्करण हिंदुस्तान टाईम्स डॉट कॉम, दैनिक जागरण ने दैनिक जागरण डॉट कॉम, आज तक ने आजतक डॉट कॉम, एनडीटीवी ने एनडीटीवी डॉट काम आदि बहुत से वेब संस्करण इंटरनेट पर मौजूद हैं, इसके साथ-साथ पत्रिकाओं ने भी अपना नेट संस्करण की शुरूआत कर दी है। ताकि इस व्यवसायिक मीडिया जगत में हानि का सामना न उठना पड़े।
बहरहाल, न्यू-मीडिया ने परंपरागत मीडिया की निर्भरता से मुक्ति दिलाने में मदद की है और समाज में नई सोच विकसित की है। इसके साथ-साथ काबिलेगौर है कि न्यू-मीडिया ने ही बीते वर्ष कई बड़े खुलासे समाज के सामने उजागर किये। कुल मिलाकर न्यू-मीडिया ने दुनिया को एक गांव के रूप में तब्दील कर दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बिना किसी शुल्क के अवसर प्रदान करके इसने आज की मीडिया को पंख लगा दिये हैं, यह पत्रकारिता को प्रोत्साहित करता है, यही एक ऐसा मीडिया है जिसने उंच-नीच, अमीर, गरीब, जातिवादी व्यवस्था्, लैंगिक भेदभाव आदि के अंतर को समाप्त कर दिया है। कुल मिलाकर मीडिया के सोशल मीडिया ने सारे मायने ही बदल दिये हैं।
दुनिया में पिछले एक दशक के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी और संचार के जरिए अनेक परिवर्तन हुए हैं। यह वे परिवर्तन हैं जो सोशल मीडिया के जनक हैं। यह मीडिया आम जीवन का एक अनिवार्य अंग जैसा बन गया है। मुख्य रूप से वेबसाइट, न्यूज पोर्टल, सिटीजन जर्नलिज्म आधारित वेबसाईट, ईमेल, सोशलनेटवर्किंग वेबसाइटस, फेसबुक, माइक्रो ब्लागिंग साइट टिवटर, ब्लागस, फॉरम, चैट सोशल मीडिया का हिस्सा है। लगभग प्रतिदिन समाचार पत्रों के पन्नों पर सोशल मीडिया से उठाई गई खबर या उससे जुड़ी हुई खबर रहती है। फकत, यही मीडिया है जो पत्रकारिता को प्रोत्साहित कर रहा है। गौरतलब है कि पोर्टल व न्यूज बेवसाइट्स ने छपाई, ढुलाई और कागज का खर्च बचाया, तो ब्लॉग ने शेष खर्च भी समाप्त कर दिए। ब्लॉग पर तो कमोबेस सभी प्रकार की जानकारी और सामग्री वीडियो छायाचित्र तथा तथ्यों का प्रसारण निशुल्क है साथ में संग्रह की भी सुविधा है। सोशल मीडिया का संबंध सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक और सूचना टेक्नॉलाजी व इंटरनेट से नहीं है बल्कि यह व्यवस्था के सुधारों को साकार करने का एक शानदार अवसर भी उपलब्ध कराता है।
वहीं इस सोशल साईटों के परिप्रेक्ष्य में अभी हाल के ही दिनों में केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा सोशल नेटवर्किंग साइटों को अपनी विषयवस्तु पर छन्नी लगाकर उनकी दृष्टि में जो थोथा है उसे न आने देने और आ गया तो हटा देने की इच्छा व्य क्तस की है जिसका समर्थन भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू ने भी किया है। काटजू ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर प्रिंट मीडिया के समान इलेक्ट्रॉनिक एवं समाचार से जुड़ी वेबसाइट्सों को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाने का अनुरोध किया है। इस बहस पर घमासान मचा हुआ है। अगर देखा जाए तो पूर्व भारत सहित दुनिया भर में पिछले दो-ढाई सालों में जो आंदोलन हुए, उसमें न्यू-मीडिया की भूमिका को लेकर तो लगातार चर्चा बनी हुई है।
इस आलोच्य में अगर न्यू-मीडिया के नकारात्मक पक्ष पर बात करें तो आधुनिक पत्रकारिता और मीडिया का जन्म बाजारवाद और पूंजीवाद के विचार से अंकुरित हुई है। न्यू-मीडिया भी पूंजीवाद के प्रचंड रूप बाजारवाद और पूंजीवाद का ही एक अंश है। न्यू-मीडिया एक सभी के हाथों में दिया गया वो परमाणु बम है या यूं कहें कि वो केवल मानव बम का ही निमार्ण करता है, जो समय-समय पर तबाही मचाता है। साथ ही साथ संस्कृति और संस्कारों का दोहन भी करता है। हालांकि संस्कारी व्यक्तियों द्वारा इस मीडिया का सही उपयोग किया जा रहा है वहीं लगभग 100 में से 85 प्रतिशत लोग पोर्न साइटों का प्रयोग करते हैं और हैंरतअंगेंज करने वाली बात है कि सर्वाधिक विजिटर भी इन पोर्न साइटों के ही हैं। न्यू-मीडिया के माध्यम से समाज की संपूर्ण निजता का चीरहरण हो रहा है.
न्यू-मीडिया में बढ़ती अश्लीलता को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने विभिन्न सोशल साइटों को आपत्तिजनक और अश्लील सामग्री हटाने की चेतावनी दी थी। फेसबुक और गूगल सहित विभिन्न साइटों द्वारा कंटेंट पर निगरानी करने को लेकर हाथ खड़े करने पर मुकदमेबाजी भी हुई। जिसमें कोर्ट ने सरकार की नीतियों को सही ठहराया है। इसके विरोध में न्यू-मीडिया ने कहा कि जिस प्रकार से ‘सागर की लहरों को जहाज तय नहीं करते‘, उसी प्रकार से न्यू-मीडिया पर निगरानी और उसके कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करना जायज काम नहीं है। जिस प्रकार से न्यू-मीडिया ने संपूर्ण संसार में पूंजीवादी, अर्थवादी लोकतांत्रिक सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलनों को बल दिया, और इसी दृष्टिकोण में विभिन्न देशों की सरकारों ने न्यू-मीडिया की प्रतिनिधि साइटों पर लगाम कसने की ठान ली है ताकि यह मीडिया सरकार पर हावी न हो सके। इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्नि देशों की सरकारें न्यू-मीडिया पर नियंत्रण के वैश्विक उपायों को थोप रही है। जिनका प्रतिरोध करना न्यू-मीडिया के लोकतांत्रिक ढांचा को बनाए रखने के लिए आवश्यक है। क्योंकि लोकतंत्र और आम आदमी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ने वाले सोशल मीडिया को अब अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी। इसी क्रम में अगर इन सोशल साईटों पर नकेल कसी भी जाती है, तो यह निश्चित ही है कि नया मीडिया, नया माध्यम बनकर उभरेगा। इसलिए सरकारों को चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को थोपने के बजाय अपनी नीतियों को जन-जन तक पहुंच में इस मीडिया का सहयोग लें और उन लोगों की तरफ भी ध्यान दें जिनके नसीब में दो वक्त की रोटी भी नहीं है।
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