पुरूष प्रधान समाज की कुरूपता
प्राचीन काल में जब मानव समाज को सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाने की कल्पना की गई होगी। तब बल, बुद्धि के आधार पर पुरूष ने इस समाज में प्रधानता की भूमिका अदा की होगी। ऐसा सोचा जा सकता है, यथार्थता अकल्पनीय है। लेकिन सदियों से समाज में पुरूष का वर्चस्व यही सिद्ध करता है। और यदि ऐसा ही है तो इसे सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत समाज की अवधारणा काल की पहली कमुकता कहा जाए तो गलत नहीं होगा। क्योंकि जिस समाज विशेष का हम गठन करने जा रहे हों उससे प्रत्येक भागीदार की प्रत्येक सीडी पर बराबर की भागीदारी ही प्रत्येक के अधिकारों को सुरक्षित रख सकती है।
इतिहास के गर्भ में देखा जाए तो सदियों से पुरूष प्रधान समाज में महिलाओं की हैसिरत उनकी प्रारंभ से उपेक्षा का ही दर्शन कराती है। प्रारंभ में हुई गलती फलती-फुलती एक विकराल स्वरूप में पहुंची, तो कई स्वरूपों में उनका समाधान खोजा गया। कभी सामाजिक कुरीति के नाम पर सतीप्रथा बंद करायी गई, तो कभी बाल-विवाह के नाम पर अवयस्क को मातृत्व के बोझ से बचाया गया, कभी अशिक्षा के नाम पर बच्चियों को पाठशाला भेजा जाना तय किया गया। जबकि समस्या के मूल में बरती गई लापरवाही यदि न की जाती तो, न तो उपेक्षा ही फलती-फूलती और न ही प्रधानता, न ही जन्म लेती कोई कुरीति और न किसी के मौलिक अधिकारों का हनन ही होता। उक्त सारे देशों में पुरूष प्रधान समाज की स्वार्थपरता और उपेक्षित नारी मन की सहज स्वीकारोक्ति की बाध्यता ही प्रमुख कारण रहे होगें। अन्यथा यह स्थिति जब बराबर की भागीदारी के तहत प्रारंभ की गई होती, तो क्या अबला या नारी मन की व्यथा से संबंधित अन्य संज्ञाओं का साकेतिक अर्थ नहीं समझा जाता।
प्रारंभ में घटित परिणाम कहें या परिणति, जो आज हमें जहां-तहां पुरूष प्रधानता का असर और नारी की सहज स्वीकारोक्ति को समाज में कुरूप होते हुए भी सौंर्दय समझने का ढोंग के दर्शन करा रही है। वर्तमान परिवेश में नारी को मिली स्वतंत्रता राजनैतिक हिस्सेदारी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। आज महिला सीट होने के नाते पुरूष अपनी महिलाओं को जिन्हें वह कल तक पर्दे के भीतर रखे था खुले आ चुनाव मैदान में ला रहा है। और कल तक मर्यादा के नाम पर चैखट पार न करने वाली महिला बिना किसी विरोध के पुरूष का अनुसरण करती हुई नजर आती हैं। इसे बेशक त्याग, आज्ञाकारी, पतिवृता या अन्य संज्ञाओं से नवाज दें, मगर अन्ततः आप पायेगें, पुरूष प्रधान समाज की दबी हुई नारी का चेहरा। विजयी महिला नेत्रियों को ले लें और देखें कि आत्म निर्भर नेत्रियों का प्रतिशत क्या है? तो और स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। सरकार द्वारा महिलाओं को पुरूष के समकक्ष लाने का प्रसाय वास्वत में सराहनीय तो है मगर अधूरा है। मुख्य विचार आकर्षक हैं, मगर उसके सापेक्ष की गई मंत्रणा में लापरवाही पुरूष प्रधान समाज द्वारा उपेक्षित के पक्ष में दी गई भिक्षा जैसी ही है। आज किसी महिला प्रधान के पति के प्रधान के रूप में स्वीकारा जाना ऐसी ही एक कुरूपता है और इसे सहजता से समाज स्वीकार कर लेता है। वास्तविकता देखें तो उनके पति या संबंधी पुरूष ही यह भूमिका निभा रहे हैं। सीट पर विजय पाने के लिए महिला को इस्तेमाल करना और फिर उसको उसकी पुरानी औकात पर भेज देना कुरूपता नहीं तो और क्या है? जरूरत है पुनः विचार की, उचित संशोधन की, उचित क्रियान्वयन की, सही मार्गदर्शन की तथा अनुपालन की।
इस आलोच्य में कहें तो सदियों बाद किये गये भूल सुधार का वास्तविक असर देखना और उसके परिणाम में राजनैतिक भागीदारी का अधिकार सुनिश्चत करना ही नारी संवेदनाओं और उनकी सृजनात्मक क्षमताओं को बढ़ावा देने के लिए रही होगी। मगर पुरूष की प्रधानता का वर्चस्व बिना किसी अवरोध के जारी है। परंतु नारी के लिए यह एक ऐसी उपलब्धि में जिसका जन्म ही नहीं हो पाता। यह नारी मन के साथ अप्रत्यक्ष हिंसा है व ऐसी सामाजिक कुरूपता जिसे हम अपनी स्वार्थपरता के चलते अपना अधिकार समझ ढो तो रहे हैं। मगर हम जानते भी हैं अन्य देशों में प्रगतिशील नारी की स्थिति और उस स्थिति में होने की उसकी वास्तविकता का कारण। लेकिन कौन-सा पुरूष प्रधान समाज चाहेगा या चाहता है कि उनकी स्त्रियां भी उनके समक्ष खड़ी होकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ें। वो तो यदा-कदा अपनी सुविधा के मुताबिक उनको अधिकारों से अवगत कराता रहता है, जिस में उनका ही स्वार्थ छिपा होता है। वैसे यह सौभाग्य केवल विदेशों या पश्चिमी सभ्यता की महिलाओं को प्राप्त है। और यदि नारी को पुरूष के इस कुरूपता भरे जाल से निकलना होगा तो महिलाओं को अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी होगी और अपना हक पा के रहना होगा, नहीं तो यह पुरूष प्रधान समाज उसे इसी तरह गर्भ में ही मारता रहेगा। और छलता रहेगा जिस तरह से सदियों से छलता आया है।
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