देवियों का अपमान न होने दे
हो
गई नौ दिनों की पूजा..... चलो अब इनको ट्रैक्टर, ट्रक में लाध कर कहीं बहा आते हैं और फिर जो चंदा बच
गया था उसको आपस में बांट लेते हैं। जिससे कल दारू और मुर्गा की पार्टी का आयोजन
किया जाएगा। वैसे देवियों को नौ दिन क्यों स्थापित करते हैं जब मन में श्रद्धा
भाव है तो 2-4 माह या फिर पूरे साल क्यों नहीं रखते...... रखना चाहिए पूरे साल तक
और पूरे साल तक पूजा-अर्चना करनी चाहिए। तब देखिए कौन पूरे साल तक देवियों के
पांडलों में रहता है। छोड़ देंगे 1 आध माह के उपरांत इनको इनके हाल पर.... जहां इंसान
के वनस्पत कुत्ते, बिल्ली, सुअर और
कौंओं का जमावडा बना रहेगा। क्योंकि इनमें इंसानों जैसी बुद्धि तो होती नहीं, (अब इंसान भी जानवर बन चुके हैं) तो यहां वहां मुंह जरूर मारेंगे। वैसे
जितने भी श्रद्धालू हैं जो जहां-तहां विराजमान(पांडल लगाकर बिठा दी गई) देवियों के
पास सच्चे मन से जाते हैं जिनके मन में किसी के प्रति द्वेषभाव नहीं होता... वहां
लड़कियों को नहीं ताड़ते......तो शायद एक भी इंसान ऐसा नहीं मिलेगा जिसका मन सच्चा
और पावन हो.... सबके मन में द्वेष, ईष्या, दूसरों को अपने से कमतर दिखाने की चाहत, मानसिक
प्रवृत्ति के लोग, अश्लीलता से परिपूर्ण.... फिर भी पहुंच
जाते है देवियों के पास... मांगने......क्या यह देवियां वास्तव में आप जैसों की
मनोकामना पूर्ण करती होंगी, मुझे तो नहीं लगता.... क्योंकि
यदि देवियां सभी की मुरादें पूरी करने लगे तो शायद ही कोई सुखी न रह सके... क्योंकि
लोग अपने से ज्यादा दूसरों को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं,
यदि आप किसी के लिए अहित मांग रहे हैं तो कोई आपके लिए भी अहित मांग रहा होगा।
वैसे इन मिट्टी की बनी मुर्तियों में शक्ति होती है समझ से परे लगता है, यदि वास्तव में इनके पास शक्तियां होती तो वो इंसान इनके समीप ही नहीं
भटकने पाता जो बुरी सोच के साथ आता है। यह तो बस एक अंधविश्वास की आस्था है
जिसको लोग ढोए जा रहे हैं ताकि हमारा अहित न हो सके। एक डर है बस और कुछ नहीं.....
जिसको सदियों से पंडितों ने मनुष्यों के मस्तिष्क में इस तरह घुसा दिया है जो
इतनी आसानी से नहीं निकलना वाला। और शायद ही कभी निकल सके।
धर्मग्रंथों
में लिखा है कि भगवान से पहले माता-पिता का दर्जा होता है, फिर उनके बुर्जुग होने के
उपरांत उनका तिरस्कार क्यों करने लगे हैं, वृद्धाआश्रम भरे
पड़े हैं, यह किनकी माताएं हैं जो इन आश्रम में अपने जीवन के
अंतिम क्षणों को काट रही हैं...... आपको अपनी माता-पिता की चिंता नहीं होती.... इन
देवी-देवताओं को प्रसन्न करने में लगे रहते हैं और उन माता-पिता को छोड़ देते हैं
जिन्होंने आपको इस मुकाम पर लाकर खड़ा किया ताकि आप समाज में जी सके। आपकी हर
चीजों को अपना पेट काटकर पूरा किया फिर भी उनका तिरस्कार क्यों करते हैं। वैसे
हम और आपको यह बात कदापि नहीं भूलनी चाहिए कि कोई भी अजर-अमर होकर इस संसार में
नहीं आया.... जब अवतरित(धर्मशास्त्रों के अनुसार) देवी-देवताओं को जाना पड़ा तो
हमारी क्या औकात है। हम और आपको एक न एक दिन बुढ़े होना ही है, और हमको भी किसी न किसी के सहारे की जरूरत पड़ने वाली है, तब यदि आपको भी आपकी तरह ही आपकी औलाद त्याग दे तो कैसा लगेगा। जैसा
आपके माता-पिता को लग रहा है ठीक वैसा ही लगने वाला है क्योंकि यह प्रकृति है और प्रकृति
का नियम है कि जो जैसा करता है उसका ठीक वैसा ही फल इसी संसार में मिलता है। फिर
यह मत कहते फिरिएगा कि हमारी औलादें हमारे साथ ऐसा कर रही है। शायद फिर आपको अपने
किए पर पछतावा हो कि हमने अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। उसी
का परिणाम आज हम भुगत रहे हैं।
मेरे
कहने का तात्पर्य यह है कि भगवानों में आस्था है तो अच्छी बात है परंतु
माता-पिता में भी आस्था रखे, यह देवी-देवता तुमको खाने को नहीं दे जाएंगे जब तक आप मेहनत नहीं करोगे, काम नहीं करोगे... कोई भी देवी-देवता आपके मुंह में निवाला देने नहीं
आएगा। श्रद्धा अच्छी बात है परंतु अंधविश्वास से परिपूर्ण श्रद्धा समाज को विकास
के पथ पर अग्रसरित न करते हुए काल के ग्रास तक ले जाने का काम करती है।
चलिए
हम मुद्दे पर आते हैं क्योंकि आज नवरात्रि का आखिर दिन है और कल आप सबको विराजित
मुर्तियों को लेकर जाना है उनको कहीं किसी तालाब, नदी में बहाने..... यदि इन मुर्तियों की हकीकत जाननी
हो तो एक-दो दिन बाद जरा उस नदी,
तालाबों का भी रूख कर लीजिए तो वास्तविक हकीकत से खुद-ब-खुद रूबरू हो जाएंगे कि
क्या-क्या हुआ इन देवियों की मूर्तियों के साथ। जिन देवियों को आपने बड़ी
श्रद्धा के साथ नौ दिनों तक रखा था, पूर्जा-अर्चना की, आज वो खंड-खंड में विभक्त हो चुकी हैं... और उनके ऊपर कुत्ते, सुअर, कौंए विराजमान हैं। क्या आपको देखकर बुरा
नहीं लगता कि यह क्या किया हमने अपनी माताओं के साथ। श्रद्धा के नाम पर यह तमाशा
सा प्रतीत नहीं होता.... यदि यह तमाशा नहीं है तो अपनी माताओं का अपमान कैसे देख
सकते हैं। या फिर यह सिर्फ एक औपचारिकता मात्रा है देवियों को नौ दिन रखकर उनका
अपमान होते हुए देखने की। वैसे यह आस्था कैसी है जहां देवियों का भी बंटवारा
देखने को मिलता है। यदि किसी भी एक शहर की बात की जाए तो उस शहर में सैंकड़ों
मूर्तियां यहां-वहां, गली-कूचों में,
चौराहों पर विराजमान दिखाई पड़ ही जाएंगी... जिसको देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि
इन सबमें अपने धर्म के प्रति एकता का भाव ही नहीं है..... तभी तो हर जगह यह
देवियां देखने को मिल जाती है। ठीक है अच्छी बात है मैं किसी धर्म और लोगों की
उनके प्रति आस्था पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा रहा बस मन में सवाल है वो कर रहा हूं
कि एक शहर में एक ही देवी को विराजमान किया जाए ताकि लोगों में एकता का भाव बने, और नदियां,तालाब प्रदुषित होने से भी बच जाए। वैसे
माताओं को अपमान से बचने के लिए इन मुर्तियों को विशाल बनाने की अपेक्षा छोटे रूप
में बनवाया जाए और उस मूर्ति को किसी मंदिर में स्थापित कर दिया जाए, ताकि इन देवियों का अपमान न हो.... वैसे आपकी आस्था और श्रद्धा है चाहे
नदी में बहाए या नाले में, चाहे गली में बिठाए या कूचों में, फिर चाहे देवियों के पांडलों में आने वाली लड़कियों को ताड़े या फिर आप चंदे
में से बचे हुए रूपयों से दारू पीए या मुर्गा खाए... आप स्वतंत्र हैं। बस अंत में
एक बात जरूर कहना चाहूंगा कि इन देवियों का इस तरह अपमान न होने दे।
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