मूर्ति पूजा
: एक अध्ययन
मूर्तियां तीन तरह के लोगों ने बनाईं - एक वे जो
वास्तु और खगोल विज्ञान के जानकार थे,
तो उन्होंने तारों और नक्षत्रों के मंदिर बनाए । ऐसे दुनियाभर में
सात मंदिर थे । दूसरे वे, जो अपने पूर्वजों या प्रॉफेट के
मरने के बाद उनकी याद में मूर्ति बनाते थे । तीसरे वे, जिन्होंने
अपने-अपने देवता गढ़ लिए थे । हर कबीले का एक देवता होता था । कुलदेवता और कुलदेवी
भी होती थी ।
भारत में वैसे तो मूर्तिपूजा का प्रचलन पूर्व आर्य
काल (वैदिक काल) से ही रहा है । भगवान कृष्ण के काल में नाग, यक्ष, इंद्र
आदि की पूजा की जाती थी। वैदिक काल के पतन और अनीश्वरवादी धर्म के उत्थान के बाद
मूर्तिपूजा का प्रचलन बढ़ गया। वेद काल में न तो मंदिर थे और न ही मूर्ति, क्योंकि इसका इतिहास में कोई साक्ष्य नहीं मिलता। वैसे इंद्र और वरुण आदि
देवताओं की चर्चा जरूर होती है, लेकिन उनकी मूर्तियां थीं
इसके भी साक्ष्य नहीं मिलते हैं ।
यदि कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि वेद काल के पहले प्राकृतिक
शक्तियों की पूजा का विधान था । प्राचीन अवैदिक मानव पहले आकाश, समुद्र, पहाड़,
बादल, बारिश, तूफान,
जल, अग्नि, वायु,
नाग, सिंह आदि प्राकृतिक शक्तियों की ताकत से
परिचित था । और वह इन्हीं की पूजा-अर्चना करता था । क्योंकि वह जानता था कि यह
मानव शक्ति से कहीं ज्यादा शक्तिशाली है इसलिए वह इनकी प्रार्थना करता था । बाद
में धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आने लगा । वह मानने लगा कि कोई एक ऐसी शक्ति भी है,
जो इन सभी को संचालित करती है ।
इसके अलावा हड़प्पा काल में देवताओं (पशुपति-शिव)
की मूर्ति का साक्ष्य मिला है, लेकिन निश्चित ही यह आर्य और अनार्य का मामला था । शिवलिंग की पूजा का
प्रचलन अथर्व और पुराणों की देन है । शिवलिंग पूजन के बाद धीरे-धीरे नाग और यक्षों
की पूजा का प्रचलन हिंदू-जैन धर्म में बढ़ने लगा । बौद्धकाल में बुद्ध और महावीर
की मूर्तियों को अपार जन-समर्थन मिलने के कारण विष्णु, राम
और कृष्ण की मूर्तियां बनाई जाने लगीं । जो कि पत्थर की बनी होती थी ।
कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि पत्थर बोल नहीं सकते, वे हिल नहीं सकते । भगवान भी बोल भी नहीं सकते । वे हिल भी नहीं सकते,
अपना अच्छा–बुरा भी नहीं सोच सकते, तो वे हमारा क्या बना बिगाड़ सकते हैं ? और हमारे
भोलेपन की तो हद हो गई है कि हम ही में से एक आदमी गढ़े से मट्टी निकालता है। उसे
सड़ाता है । पैरों और हाथों से गूंधता है, फिर उससे सरस्वती
देवी की या राम–सीता या गणेश की मूर्ती बनाता है । मूर्ती
बनाते वक्त उसके गाल संवारता है और उसे कपड़ा पहना कर, बना
संवार कर एक स्थान पर रखता है । फिर पंडित जी आते हैं और लोग इकठ्ठा होकर उसकी पूजा
शुरु कर देते हैं । बुंदियां, जलेबियां, नारियल, फूल–पत्तियां और रुपये–पैसे चढ़ाएं जाते हैं । निर्जीव मूर्ती से विनती की जाती है । वहां सिर
झुकाए जाते हैं और बहुत सी चीजें की जाती हैं जिनकी जानकारी आपको अवश्य होगी।
प्रश्न यह है कि उस मूर्ती का बनाने वाला कौन है ? एक आम आदमी ही तो है, जिसने उसको बनाया, सजाया, संवारा
। तो क्या भगवान इतना मजबूर है कि वह हमारा–तुम्हारा मुहताज
हो ? फिर मट्टी की बनाई हुई वह मूर्ती क्या ईश्वर हो सकती है
? वह तो बोल भी नहीं सकती, सुन भी नहीं
सकती, देख भी नहीं सकती, चल फिर भी
नहीं सकती, या उस पर जो खान–पान चढ़ाएं
जाते हैं वह उसे खा पी भी नहीं सकती ।
वैसे ही ये पत्थर भी हैं । तुम चाहो तो किसी को
लूटो, चाहो तो किसी को मारो, भगवान डायरेक्ट तुम्हें कुछ नहीं कहते, तो पत्थर
भी कुछ नहीं कहता । न कुछ बिगाड़ता, न बनाता । और जहां तक
तुम अच्छे-बुरे और बनाने-बिगाड़ने की बात कर रहे हो, वह भी
तुम्हारी सोच के मुताबिक है । अच्छे में, बुरे में,
बनाने में, बिगाड़ने में, हर हरकत में उसकी मर्जी तो है ही ।
यदि सबको पता चले कि भगवान मर गए, तो क्या होगा? कई लोगों की दिनचर्या तो बहुत प्रभावित हो जाएगी। बड़ी दिक्कत होगी,
किसे पूजेंगे, किसकी आराधना करेंगे, किसके लिए झुकेंगे? दोनों एक-दूसरे के बिना कुछ भी
नहीं । अगर भगवान इंसान के बगैर कुछ होता तो वे इंसान को नहीं बनाता । जैसे ईंधन के बिना कोई वाहन । या वाहन के बिना कोई ईंधन ।
दोनों एक-दूसरे के बिना बेकार । जब तक ईंधन, तभी तक वाहन ।
जब तक आत्मा, तब तक परमात्मा । जब तक इंसान तब तक भगवान ।
भगवान न तो मजबूर है और न मुहताज । जो उसे करना है, वह करता है । पर तुम्हारे लिए हर
वक्त आदेश ज़ारी नहीं करता । उसने इंसान को समझ दी है, दिमाग
दिया है, भावनाएं दी हैं, तो इंसान को
उससे किसी आदेश को पाने का इंतज़ार छोड़ देना चाहिए । भगवान ने जो तुम्हें देना
था, वह देकर धरती पर भेज दिया है । अब और क्या चाहते हो?
खुद भी कुछ करो? अच्छा करो या बुरा, वह तुम पर निर्भर । उसका फल तुम पा ही लोगे । नरक या स्वर्ग, जहन्नम की आग या जन्नत के बाग ।
हालांकि किसी भी ऑब्जेक्ट को हम भगवान का प्रतीक
समझकर पूजें, तभी यह
सार्थक है। मूर्ति को ही भगवान समझकर पूजने बैठ जाने से नहीं हो सकता । ऐसे में न
तुम पत्थर चूमकर परमात्मा को पा सकते हो, न हम मूर्ति को
नहला-सजाकर । महापुरुषों ने मूर्ति पूजा का विरोध इसलिए ही किया क्योंकि हमारे
भटकाने वालों ने कुमार्ग पर लाकर खड़ा कर दिया । हम इतना भटक गए कि महापुरुषों को
सख्त आदेश जारी कर देने पड़े । गुरु नानक, मुहम्मद साहब ने
कहा- छोड़ो इन्हें, मूर्ति पूजा मत करो… भगवान को, सर्वशक्तिमान को पूजो । मतलब मूर्ति तो
तुम्हारी याद बनाए रखने के लिए है, प्रतीक है । तुम उसी
प्रतीक की पूजा करने बैठ गए और समझने लगे कि यही भगवान है । इसे ही साधना है ।
हमें यह ख़्याल एक पल के लिए भी नहीं आया कि यह केवल प्रतीक है, मालिक कोई और है । तो इसलिए महापुरुषों को हमारा ध्यान सही रास्ते पर
लाने के लिए कठोर शब्दों में, डराते हुए हमें कहना पड़ा-
छोड़ो, मत करो मूर्ति पूजा । पर हमने हमारे महापुरुषों के
वचन, आदेश भी किसी कोड़ा बरसाने वाले शासक के आदेश की तरह
माने, पशुओं की तरह कोड़े से डरकर उनका अंधानुसरण किया ।
वैसे महापुरुषों ने सोचा होगा कि जब इन्हें मूर्ति
पूजा करने से रोका जाएगा तो शायद ये कुछ समझें,
पर हम नहीं समझे । हमने डरकर मूर्ति पूजा से तो ध्यान हटा लिया पर
किन्हीं अन्य पत्थरों, पन्नों पर फोकस कर दिया । बात
वहीं की वहीं आ गई । मूर्ति की जगह हम ”पन्ने पूजक” या ”किताब पूजक” हो गए.
महापुरुषों का डांट-डपट से हमें सही रास्ते पर लाने का प्रयास भी विफल गया ।
अंत में कहना चाहूंगा-
मेरे महबूब की हर शै महबूब मेरी
समझोगे नहीं तुम मेरे ज़ज्बात-ए-मुहब्बत….
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