एक संस्मरण......
एक संस्मरण.... मैं कल बैठा था तो यकायक वो दिन याद
आने लगे जब मेरा प्रवेश महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पीएचडी में हुआ था। और मुझे विश्वविद्यालय
के तरह से रहने के लिए शांति कुटी छात्रावास मिला हुआ था। छात्रावास बहुत अच्छा था
एकांत और सेवाग्राम रेलवे स्टेशन के समीप। पर छात्रावास में कुछ सुविधाओं का अभाव
जरूर था....नहाने की पूर्ण व्यवस्था नहीं थी, खाने की व्यवस्था
का भी अभाव था। तो सभी वहां पर रहने वाले छात्र खुले में स्नान करते थे। एक दिन मैं
स्नान कर रहा था तभी वहां पर एक छात्रा का आगमन हुआ.....उसको देखकर मैंने असहजभाव
महसूस किया पर कर भी किया सकता था जल्दी-जल्दी स्नान किया।
और वह छात्रा किसी छात्र के रूम में दाखिल हो गई। बाद में पता चला कि इस विश्वविद्यालय
द्वारा मिले सभी पुरूष छात्रावास में छात्राओं के आने व रूकने की अनुमति है। चूकि मेरे
लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। खैर ऐसा कुछ दिनों तक लगातार चलता रहा। फिर मैंने
वहां मौजूद कुछ अपने मित्रों से इस संदर्भ में बात की, कि विश्वविद्यालय प्रशासन से कहा जाए या तो हम लोगों
के लिए स्नान की उचित व्यवस्था करवाई जाए या फिर लड़कियों का पुरूष छात्रावास में
आने से वर्जित किया जाए.....जिसके संदर्भ में हम लोगों ने तत्कालीन कुलपति महोदय को
एक पत्र लिख, जिस पर कार्यवाही करते हुए कुलपति ने पुरूष छात्रावास
में लड़कियों के जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। जिसके कारण बहुत लोगों की गालियां भी सुननी
पड़ी। खैर प्रतिबंध लगने के कुछ दिनों बाद विश्वविद्यालय में अध्ययनरत महिला अध्ययन
विभाग की छात्राओं एवं कुछ छात्रों द्वारों इस प्रतिबंध को उनके अधिकारों का हनन मानते
हुए कुलपति से मुलाकात की, कि इस प्रतिबंध को हटा लिया जाए। सहयोग से इस बात
की जानकारी मुझे भी लग गई....तो मैंने कुलपति महोदय से कहा कि मेरे द्वारा दिए गए पत्र
को नाकार दीजिए और छात्राओं को पुरूष छात्रावास में जाने की अनुमति पुन:प्रदान कर दे....और
साथ में महिला छात्रावास में पुरूषों को भी जाने की अनुमति दे दे.....जिस पर सभी छात्राओं
ने इसका विरोध किया कि पुरूष महिला छात्रावास में कैसे आ सकते हैं.....हम किस अवस्था
में रहते हैं.....तो उन छात्राओं की बात काटते हुए कहा कि जब आप लोग असहज महसूस कर
सकते है तो पुरूष भी असहज महसूस करते हैं। बात वहीं खत्म हुई।
कुछ दिनों के बाद फिर सभी छात्राओं ने इस बावत प्रतिकुलपति
से मुलाकात की.......तत्कालीन प्रतिकुलपति ने जो कहा उस बात से सभी की बोलती बंद कर
दिया.....उन्होंने साफ-साफ कहा कि जिन छात्राओं को पुरूष छात्रावास में जाना है, रूकना है वह पहले अपने माता-पिता से लिखित लिखवा
के लाए कि हमारी बेटी को पुरूष छात्रावास में जाने की अनुमति दी जाए, तो हम उस छात्रा को अनुमति दे देंगे....नहीं तो नहीं।
प्रतिकुलपति महोदय की वो बात आज भी याद है मुझे.....
वैसे आज देखा जाता है कि फलां-फलां को प्यार हो गया, प्यार के नाम से सब कुछ हो गया....जो नहीं होना
चाहिए वो भी हो जाता है। फिर बात आती है शादी की....तो अधिकांश लड़के यह कहकर उस लड़की
से संबंध तोड़ देते हैं कि मेरे घरवाले इस रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे....आपकी
जाति कुछ और है, मेरी कुछ और.....अरे भाई प्यार करने में सबसे आगे
रहते हैं और शादी के नाम पर नानी मरने लगती है। क्यों भाई प्यार करने से पहले अपने
माता-पिता से पूछा था कि मैं फलां-फलां लड़की से प्यार करने जा रहा हूं, वह इस जाति से है...क्या आपकी अनुमति है कि मैं
उससे प्यार कर लूं। प्यार करते वक्त क्यों नहीं पूछा....अब कहते हो कि हमारे घरवाले
हमारे रिश्ते को स्वीकार नहीं करेंगे.......वैसे आज के दौर में सभी लड़कियों को चाहिए
कि वो उस लड़के से पूछे कि क्या तुमने अपने माता-पिता से पूछा है कि मैं फलां-फलां
से प्यार करने जा रहा हूं....क्या अनुमति है। यदि वो अनुमति देते है तो ही प्यार
करें.....क्योंकि कल यदि वो लड़का यह कहें कि मेरे घरवाले इस रिश्ते के खिलाफ हैं
तो वो लिखित पत्र उसको दिखा सको कि देखों प्यार करने से पहले तुम्हारे घरवालों ने
अनुमति दी थी....इससे जो लड़के लड़कियों को प्यार के नाम पर धोखा देते हैं वो खत्म
हो जाएगा...और फिर यूं प्यार के नाम पर लड़कियां का शोषण बंद हो सकेंगा।
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