कुछ अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को जन्म से ही मानवोचित गुण होने के कारण प्राप्त होते हैं.ये अधिकार मानव की गरिमा बनाये रखने के लिए अति आवश्यक हैं.इन अधिकारों का प्रभुत्व संदर्भ लैंगिक वैमनस्य के कारण मानवीय लक्ष्य को कमजोर बनाता है.ऐतिहासिक रूप से मानवीय विकास के साथ-साथ पुरूषों के सापेक्ष महिला अधिकारों में कमी को देखा जा सकता है .
समकालीन समाज में नारी का अस्तित्व पहले की तुलना में कही अधिक संकट में हैं.नारी पर दिनों-दिन अत्याचारों की संख्या में इजाफा हो रहा है,चाहे वो निम्न वर्गीय परिवार की हो या फिर उच्च वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हो. अबोध बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं पर भी अत्याचार हो रहे हैं. सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के आंकडें चीख-चीखकर बयां करते हैं कि किस तादाद में महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है और किस तरह से उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है. निसंदेह, वैदिक काल से चली आ रही मान्यताओं को तोडती आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति सचेत है.अपने अधिकारों और अधिकारों की लडाई लडते हुए आधुनिक नारी ने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने की संकल्पना धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मजबूती के साथ शुरू कर दी है. आज वो बाल्यावस्था में पिता,युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर निर्भरता आदि बंदिशें तोडकर अपनी देह पर स्वाधिकार की मांग कर रही है. नारी देह पर नारी के अधिकार का विमर्श एक व्यापक दृष्टिकोण की मांग करता है.इस संदर्भ में पाश्चात्य देशों में नारी की स्थिति भी तीसरी दुनिया की महिलाओं से कुछ खास अलग नहीं है. हालांकि, पश्चिमी देशों में नारी मुक्ति आंदोलन ने जिस गति से वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों को लेकर मुहिम चलाई है,उसका प्रभाव आज हर जगह देखा जा सकता है,महसूस किया जा सकता है.अब पुरानी मान्यताओं के विपरीत महिलाएं खुद महसूस करने लग हैं कि उनके शरीर पर पुरूष का अधिकार नहीं होगा.अपने शरीर की मालकिन वह स्वयं होगी. साथ ही में आज महिलाओं के खान-पान से लेकर रहन-सहन के तरीकों में बहुत बडा बदलाव देखा गया है.स्त्रियों के वैश्विक ध्रुवीकरण में हर जगह खुलेपन की मांग पर मतैक्य की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि- मेरी देह-मेरी देह.और मात्र मेरी देह.
भारतीय महिलाएं पश्चिमी देशों की स्त्रियों द्वारा अपनाये गये खुलेपन को अपना आधार मानती हैं और उसके लिए तमाम स्त्रीवादी नारियों ने आंदोलन आरंभ कर दिये हैं जिसकी ध्वनि शायद अभी हमारे कानों तक नहीं सुनाई दे रही है. परन्तु, ये आंदोलन एक दबे हुए ज्वालामुखी के समान धधक रहा है, जो कभी भी फट सकता है और संपूर्ण समाज को अपनी चपेट में ले लेगा. इन आंदोलन को न तो दबाया जा सकता है और न ही इसकी छूट दी जा सकती है.क्योंकि,नारी मुक्ति और अधिकार का प्रश्न निरपेक्ष नहीं है, इसलिए इस पर खासकर भारतीय परिवेश में एक खुली बहस का होना अनिवार्य प्रतीत होता है.आज नारी मुक्ति आंदोलन का रूख जिस खुलेपन को बढावा दे रहा है, जिस स्वच्छंदता को अपना रहा है, उसे नारी मुक्त्िा के नाम पर सामाजिक विघटन, नैतिक एवं मानवीय पतन जैसे परिणामों के साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता.
व्यवहारिक धरातल पर ऐसा महसूस होता है कि नारी मुक्ति आंदोलन के सारे प्रयास अपने मूल स्वरूप व लक्ष्य से हटकर कहीं और भटक गया है.नारी मुक्ति के तमाम प्रयास मानव संसाधन और विकास से जुडा हुआ होना चाहिए. लेकिन नारी विमर्श के केन्द्र से यह ज्वलंत मुद्दा लगभग गायब है,नारी मुक्ति का मतलब पुरूषों का विरोध नहीं है बल्कि पुरूषवादी मानसिकता का विरोध है जो किसी-न-किसी रूप में सामाजिक एवं मानवीय संसाधन के विकास मार्ग में बाधक है.अफसोस की बात यह है कि नारी अधिकार की समझ आज जिन महिलाओं के पास है उनकी बढी तदाद मॉल कल्चर, पब कल्चर आदि में न केवल आस्था व्यक्त करती हैं, बल्कि उसका पोषण भी करती हैं. खुद को आधुनिक और सशक्त मानने वाली अधिकांश महिलाओं के लिए नारी देह पर अधिकार का प्रश्न मानव संसाधन एवं विकास का प्रश्न नहीं है. उनकी सोच का मुख्य केन्द्र दुर्भाग्यवश शारीरिक खुलापन है, आंशिक या पूरी नग्नता................ बिना किसी रोक-टोक के. मशहूर मॉडल पूनम पाण्डे का क्रिकेट विश्वकप के दौरान का कृत्य किसी भी रूप में नारी मुक्ति और विकास से जुडा हुआ नहीं माना जा सकता.देह का प्रश्न निसंदेह व्यक्ति विशेष से जुडा हुआ है.हर व्यक्ति प्राकृतिक रूप से अपने शरीर का स्वामी होता है लेकिन शरीर का स्वामित्व उसके व्यक्तिगत विकास से जुडा हुआ है, सामाजिक एवं नैतिक विकास के साथ-साथ उसके समग्र एवं चंहुमुखी विकास से जुडा हुआ है.नारी का अपनी देह पर मौलिक अधिकार है और कोई व्यक्त्ि इसका हनन नहीं कर सकता. आज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानून भी इसकी संपुष्टि करते हैं. लेकिन देह पर अधिकार का प्रश्न आज केवल मुक्त सेक्स की अवधारणा तक सिमटकर रह गया है.निजी तौर पर समाज की सुशिक्षित, आधुनिक,सशक्त महिलाओं के साथ-साथ पुरूषों से मैं अपील करता हूँ कि नारी देह के प्रश्न को मुक्त सेक्स की अवधारणा से मुक्त कर मानवीय संसाधन एवं विकास के साथ जोडकर देखें.
समकालीन समाज में नारी का अस्तित्व पहले की तुलना में कही अधिक संकट में हैं.नारी पर दिनों-दिन अत्याचारों की संख्या में इजाफा हो रहा है,चाहे वो निम्न वर्गीय परिवार की हो या फिर उच्च वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती हो. अबोध बालिकाओं से लेकर वृद्धाओं पर भी अत्याचार हो रहे हैं. सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों के आंकडें चीख-चीखकर बयां करते हैं कि किस तादाद में महिलाओं पर अत्याचार हो रहा है और किस तरह से उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है. निसंदेह, वैदिक काल से चली आ रही मान्यताओं को तोडती आज की नारी अपने अधिकारों के प्रति सचेत है.अपने अधिकारों और अधिकारों की लडाई लडते हुए आधुनिक नारी ने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने की संकल्पना धीरे-धीरे ही सही, लेकिन मजबूती के साथ शुरू कर दी है. आज वो बाल्यावस्था में पिता,युवावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र पर निर्भरता आदि बंदिशें तोडकर अपनी देह पर स्वाधिकार की मांग कर रही है. नारी देह पर नारी के अधिकार का विमर्श एक व्यापक दृष्टिकोण की मांग करता है.इस संदर्भ में पाश्चात्य देशों में नारी की स्थिति भी तीसरी दुनिया की महिलाओं से कुछ खास अलग नहीं है. हालांकि, पश्चिमी देशों में नारी मुक्ति आंदोलन ने जिस गति से वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों को लेकर मुहिम चलाई है,उसका प्रभाव आज हर जगह देखा जा सकता है,महसूस किया जा सकता है.अब पुरानी मान्यताओं के विपरीत महिलाएं खुद महसूस करने लग हैं कि उनके शरीर पर पुरूष का अधिकार नहीं होगा.अपने शरीर की मालकिन वह स्वयं होगी. साथ ही में आज महिलाओं के खान-पान से लेकर रहन-सहन के तरीकों में बहुत बडा बदलाव देखा गया है.स्त्रियों के वैश्विक ध्रुवीकरण में हर जगह खुलेपन की मांग पर मतैक्य की पुरजोर कोशिश की जा रही है कि- मेरी देह-मेरी देह.और मात्र मेरी देह.
भारतीय महिलाएं पश्चिमी देशों की स्त्रियों द्वारा अपनाये गये खुलेपन को अपना आधार मानती हैं और उसके लिए तमाम स्त्रीवादी नारियों ने आंदोलन आरंभ कर दिये हैं जिसकी ध्वनि शायद अभी हमारे कानों तक नहीं सुनाई दे रही है. परन्तु, ये आंदोलन एक दबे हुए ज्वालामुखी के समान धधक रहा है, जो कभी भी फट सकता है और संपूर्ण समाज को अपनी चपेट में ले लेगा. इन आंदोलन को न तो दबाया जा सकता है और न ही इसकी छूट दी जा सकती है.क्योंकि,नारी मुक्ति और अधिकार का प्रश्न निरपेक्ष नहीं है, इसलिए इस पर खासकर भारतीय परिवेश में एक खुली बहस का होना अनिवार्य प्रतीत होता है.आज नारी मुक्ति आंदोलन का रूख जिस खुलेपन को बढावा दे रहा है, जिस स्वच्छंदता को अपना रहा है, उसे नारी मुक्त्िा के नाम पर सामाजिक विघटन, नैतिक एवं मानवीय पतन जैसे परिणामों के साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता.
व्यवहारिक धरातल पर ऐसा महसूस होता है कि नारी मुक्ति आंदोलन के सारे प्रयास अपने मूल स्वरूप व लक्ष्य से हटकर कहीं और भटक गया है.नारी मुक्ति के तमाम प्रयास मानव संसाधन और विकास से जुडा हुआ होना चाहिए. लेकिन नारी विमर्श के केन्द्र से यह ज्वलंत मुद्दा लगभग गायब है,नारी मुक्ति का मतलब पुरूषों का विरोध नहीं है बल्कि पुरूषवादी मानसिकता का विरोध है जो किसी-न-किसी रूप में सामाजिक एवं मानवीय संसाधन के विकास मार्ग में बाधक है.अफसोस की बात यह है कि नारी अधिकार की समझ आज जिन महिलाओं के पास है उनकी बढी तदाद मॉल कल्चर, पब कल्चर आदि में न केवल आस्था व्यक्त करती हैं, बल्कि उसका पोषण भी करती हैं. खुद को आधुनिक और सशक्त मानने वाली अधिकांश महिलाओं के लिए नारी देह पर अधिकार का प्रश्न मानव संसाधन एवं विकास का प्रश्न नहीं है. उनकी सोच का मुख्य केन्द्र दुर्भाग्यवश शारीरिक खुलापन है, आंशिक या पूरी नग्नता................ बिना किसी रोक-टोक के. मशहूर मॉडल पूनम पाण्डे का क्रिकेट विश्वकप के दौरान का कृत्य किसी भी रूप में नारी मुक्ति और विकास से जुडा हुआ नहीं माना जा सकता.देह का प्रश्न निसंदेह व्यक्ति विशेष से जुडा हुआ है.हर व्यक्ति प्राकृतिक रूप से अपने शरीर का स्वामी होता है लेकिन शरीर का स्वामित्व उसके व्यक्तिगत विकास से जुडा हुआ है, सामाजिक एवं नैतिक विकास के साथ-साथ उसके समग्र एवं चंहुमुखी विकास से जुडा हुआ है.नारी का अपनी देह पर मौलिक अधिकार है और कोई व्यक्त्ि इसका हनन नहीं कर सकता. आज राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानून भी इसकी संपुष्टि करते हैं. लेकिन देह पर अधिकार का प्रश्न आज केवल मुक्त सेक्स की अवधारणा तक सिमटकर रह गया है.निजी तौर पर समाज की सुशिक्षित, आधुनिक,सशक्त महिलाओं के साथ-साथ पुरूषों से मैं अपील करता हूँ कि नारी देह के प्रश्न को मुक्त सेक्स की अवधारणा से मुक्त कर मानवीय संसाधन एवं विकास के साथ जोडकर देखें.
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