महिलाओं के लिए बने कानून कितने
कारगर.......
तीन तलाक के मामले पर आज सुप्रीम
कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए इसे 6 माह के लिए असंवैधानिक घोषित कर दिया है और यह
कहा है कि केंद्र सरकार इस मामले पर कानून बनाए.... यहां तक तो ठीक है कि कानून
बनाए, पर कानून का कितना पालन किया जाना चाहिए इस बात पर सुप्रीम कोर्ट ने
मामला साफ नहीं किया। क्योंकि इसके पहले भी महिलाओं के अधिकारों और उनकी सुरक्षा
के संबंध में भारत में बहुत से कानून बन चुके हैं। जिनमें सती प्रथा निवारण अधिनियम
1827, दहेज निवारण अधिनियम 1961 (संशोधित 1986), अनैतिक व्यापार निवार अधिनियम 1956 (संशोधित 1986), बाल विवाह अवरोध अधिनियम 1929 (संशोधित 1976),
औषधियों द्वारा गर्भ गिराने से संबंधित अधिनियम 1971, स्त्री
अशिष्ट रूपण (प्रतिबंध) अधिनियम 1986, चलचित्र अधिनियम 1952, विशेष विवाह अधिनियम 1954, प्रसव पूर्व निदान
तकनीकी अधिनियम 1994, समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976, कार्य स्थल पर यौन शोषण अधिनियम 1997, घरेलू हिंसा
से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 एवं 2006 बनाए गए हैं। साथ ही भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत अभिज्ञेय अपराध
में बलात्कार (धारा 376), अपहरण एवं अपावर्तन (धारा 363 एवं 373),दहेज मानवहत्या (धारा 302 एवं 304ठ), उत्पीड़न.शारीरिक व मानसिक (धारा 498अ), छेड़छाड़ (धारा 354), छेड़छाड़ अथवा यौन उत्पीड़न (धारा 509), लड़कियों का आयात व्यापार (धारा 366.ठ) और हत्या (दहेज हत्या के अतिरिक्त धारा 302)
के तहत सजा का प्रवाधान है। पर क्या इन बने हुए कानूनों से
महिलाओं पर अत्याचार कम हो गए हैं या होने बंद हो गए हैं तो सभी का जबाव होगा
नहीं.... क्योंकि कानून तो बने हैं ऐसे कानून बनाए जाने से क्या फायदा जिससे
महिलाओं पर होने वाले अपराधों में कमी आने के बजाय साल दर साल वृद्धि होने
लगे।
आप बलात्कार को ले लीजिए कानून तो बना है पर हर
15.2 मिनट पर एक महिला के साथ बलात्कार होता है। जिन पर हमारी सुरक्षा का भार है
वो भी बलात्कार को अंजाम देने से नहीं चूकते, क्योंकि हर 3.8
दिनों में पुलिस कस्टडी में एक महिला के साथ बलात्कार होता है। वहीं 6 साल से कम उम्र की
बच्चियों के साथ भी हर 17 घंटे में एक रेप की वारदात को अंजाम दिया जाता
है। और तो और हर 4 घंटे में एक गैंगरेप की वारदात को अंजाम दिया
जाता है। वहीं हर 2 घंटे में एक बलात्कार का असफल प्रयास होता है। इस संदर्भ में
कानून कहता है कि 86 प्रतिशत बलात्कार के मामले अभी लंबित हैं सिर्फ 29 प्रतिशत
मामलों में सजा मिली है। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को जल्द से जल्द
न्याय दिलाने के लिए देश में 275 फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाए
गए हैं लेकिन ये कोर्ट भी महिलाओं को कम वक्त में न्याय दिलाने में कामयाब नहीं हो
पा रहे। महिलाओं के खिलाफ अपराध
से जुड़े 332 से ज्यादा मामले इस वक्त सुप्रीम कोर्ट में लंबित
हैं। और
देश भर की उच्च न्यायालयों में ऐसे लंबित मामलों की
संख्या 31
हज़ार 386 है।
देश की निचली अदालतों
में 95
हज़ार से ज्यादा
महिलाओं को न्याय का इंतज़ार है।
वहीं घरेलू
हिंसा कानून बनने के बावजूद राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण कार्यक्रम
से ज्ञात हुआ है कि 37.2 प्रतिशत महिलाओं ने यह स्वीकार किया कि विवाह के बाद ये
अपने पति के हिंसात्मक आचरण का शिकार हुई हैं। विवाहित महिलाओं के विरूद्ध की
जाने वाली हिंसा के मामले में बिहार सबसे आगे है, जहां 59 प्रतिशत महिला घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं। शहरी इलाकों
में यह प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे राज्यों की स्थिति भी बहुत ठीक नहीं है, मध्य प्रदेश में 45.8, राजस्थान में 46.3, मणिपुर में 43.9, उत्तर प्रदेश में 42.4, तमिलनाडु में 41.9 तथा पश्चिम बंगालमें
40.3 प्रतिशत विवाहित महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हुई हैं।
इस संदर्भ में आगे देखा जाए तो महिला उत्पीड़न की
स्थिति के संदर्भ में आंकड़े इसकी कहानी खुद व खुद दर्शाते हैं क्योंकि महिला उत्पीड़न
संबंधी घटनाएं बेकाबू होती जा रही है। वैसे तो महिलाओं से संबंधित बहुत कम मामले
पंजीकृत हो पाते हैं, पर जो पंजीकृत होते
हैं, उनमें प्रताड़ना 30.4 प्रतिशत, छेड़छाड़ 25 प्रतिशत, अपहरण 12 प्रतिशत, बलात्कार 12.8 प्रतिशत, भ्रूण हत्या 6.7 प्रतिशत, यौन उत्पीड़न 25
प्रतिशत, दहेज मृत्यु 4.6 प्रतिशत, दहेज उत्पीड़न 2.3 प्रतिशत व अन्य 0.3 प्रतिशत
हिंसा आदि के मामले दर्ज किए गए थे।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने देशभर
में 2014
में हुए कुल अपराधों एक
बार फिर मध्य प्रदेश रेप के मामले में पहले नंबर पर है। इसके साथ ही कुल अपराध
(आईपीसी) में भी उसका स्थान पहला है। भले ही अपराधों के मामलों में दिल्ली, बिहार और उत्तर प्रदेश
का नाम सुर्खियों में रहता हो पर एनसीआरबी के ताजा आंकड़े और ही कहानी बयां कर रहे
हैं। बीते सालों की तुलना में सबसे ज्यादा अपराध मध्य प्रदेश में हुए हैं। इनकी
बढ़ोत्तरी दर 358 प्रतिशत रही है। भले ही दिल्ली को रेप कैपिटल कहा
जाता हो पर एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार बीते साल में मध्य प्रदेश में 5,076
रेप की घटनाएं हुई।
यानी हर दिन करीब 14 रेप इस प्रदेश में हुए। रेप के मामले में
दूसरे नंबर पर राजस्थान है यहां 3759 और तीसरे नंबर पर उत्तर
प्रदेश है जहां 3461 इस तरह के मामले दर्ज किए गए। दिल्ली में 2,096
ही दर्ज किए गए। दिल्ली
के मुकाबले मध्य प्रदेश में इसकी दर दोगुनी है। सबसे कम रेप के मामले नागालैंड से
है यहां एक साल में कुल 30 प्रकरण सामने आए हैं। 2013
में महाराष्ट्र में 4335
और महाराष्ट्र में 3065
मामले सामने आए थे।
भारत सरकार के गृह मंत्रालय
के राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में
महिलाओंके विरूद्ध हुए अपराधों की दर 11.9 प्रतिशत रही, जबकि अन्य प्रदेशों में यह दर 30.8 आंध्र प्रदेश,
13.9 गुजरात, 21.9 हरियाणा, 22.3 मध्य
प्रदेश, 13.8 महाराष्ट्र, 20;1 उड़ीसा, 26.2 राजस्थान, 23.9 दिल्ली तथा केंद्र शासित प्रदेशों में औसत अपराध दर 22.1 एवं
संपूर्ण भारत वर्ष में अपराध दर 17.4 प्रतिशत रही। एन.सी.आर.बी. की नवीनत रिपोर्ट
के अनुसार पिछले साल 133 बुजुर्ग महिलाओं पर यौन हमले किए गए तथा बलात्कार के कुल
20737 मामले दर्ज हुए।
इसके साथ-साथ भारत सरकार ने बताया कि दिल्ली पुलिस ने इस साल
जनवरी में बलात्कार के 140 मामले दर्ज किए हैं। इनमें से 43 मामले अनसुलझे हैं।
इसके अलावा छेड़छाड़ के 238 मामले दर्ज किए गए है, जिनमें से
133 अनसुलझे हैं। साथ ही अगर वर्ष 2016 की बात करें तो दिल्ली में बलात्कार के
2,155 मामले दर्ज किए गए। इनमें से 291 अनसुलझे हैं। छेड़छाड़ के 4,165 मामले दर्ज
किए गए, जिनमें 1,132 अनसुलझे हैं।
वहीं, छींटाकशी के 918 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 339 अनसुलझे हैं। इस साल जनवरी में छींटाकशी के 51 मामले दर्ज
किए गए हैं। एनसीआरबी द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, साल
2015 में बच्चियों के खिलाफ होने वाले अपराध के 94,172 मामले दर्ज किए गए। इनमें
10,854 रेप के मामले थे। इसी साल 8,390 ऐसे मामले देखने को मिले, जिसमें इरादतन बच्चियों की शीलता भंग की गई. वहीं, पॉस्को
एक्ट के तहत 14,913 मामले दर्ज किए गए थे।
वहीं बलात्कार के मामले में 16 जनवरी,
2017 को
दिल्ली पुलिस की गिरफ्त में एक ऐसा सीरियल रेपिस्ट आया, जिसके खुलासे सुनकर
पुलिस के पैरों तले जमीन खिसक गई। आरोपी सुनील ने पुलिस को बताया कि पिछले 12 सालों के दौरान उसने 700 से ज्यादा बच्चियों को
अपनी हवस का शिकार बनाया है। इस दौरान वह एक बार गिरफ्तार भी हो चुका है।
हालांकि
आपको याद होगा, फरवरी
2013 में
तत्कालीन यूपीए सरकार ने अपने केंद्रीय बजट में से महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान
में रखते हुए एक हज़ार करोड़ रुपयों का निर्भया फंड शुरू किया था। वर्ष 2013-14 से
लेकर 2015-16 तक
इस फंड में तीन हज़ार करोड़ रूपये दिए जा चुके हैं। Ministry of Women and Child Development को इस फंड के सही
इस्तेमाल का काम सौंपा गया है। अलग-अलग मंत्रालय और सभी राज्य सरकारें महिलाओं के
हितों को ध्यान में रखते हुए अपने प्रस्ताव भेजकर निर्भया फंड से रकम ले सकती हैं।
परंतु दुखद सच्चाई ये है निर्भया फंड लागू किए जाने के बाद से लेकर अब तक इसमें 2 हज़ार करोड़ रूपये की
वृद्धि होने के बावजूद ज़मीनी स्तर पर महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित ठोस कदम
दिखाई नहीं दे रहे हैं। Ministry of Home Affairs यानी गृह मंत्रालय ने GPS यानी Global
Positioning System के लिए Computer Aided Dispatch Platform तैयार करने की योजना
बनाई थी जिसकी मदद से पुलिस को जल्द से जल्द पीड़ित महिला के पास पहुंचने में मदद
मिलती। ये प्रोजेक्ट 114 अलग-अलग शहरों में लागू किया जाना है। निर्भया
फंड से इस प्रोजेक्ट के लिए 321 करोड़ रुपये की रकम भी
दे दी गई है लेकिन फिलहाल ज़मीनी स्तर पर कोई काम होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। Ministry
of Women and Child Development ने पीड़ित महिला की मदद के लिए दो योजनाएं लागू किए
जाने की बात कही थी जिनमें से एक थी हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए One
Stop Centre बनाने की योजना। ये 18 करोड़ 58 लाख रुपये की लागत से
बननी थी जबकि दूसरी योजना थी Women Helpline की जिसकी लागत 69 करोड़ 49 लाख रुपये थी। इसके लिए
वित्तीय वर्ष 2015-16 में रकम जारी करने की अनुमति भी मिल गई थी लेकिन
कर्नाटक और केरल को छोड़कर किसी भी दूसरे राज्य ने इस पर अपना Proposal
नहीं भेजा है। NCRB यानी National Crime Records
Bureau के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2012 में जहां 85 महिलाएं एसिड अटैक का
शिकार हुईं थीं। वर्ष 2013 में आंकड़ा बढ़कर 128 और 2014
में 137 तक पहुंच गया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने
ऑर्डर में एसिड की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाने की बात भी कही थी लेकिन कड़वी सच्चाई
ये है कि आज भी पूरे देश में बिना किसी रोक-टोक के एसिड की बिक्री हो रही है।
कहना गलत न होगा कि जितना पुराना भारत का
इतिहास है, उतना ही पुरान महिला उत्पीड़न का इतिहास है।
आज दुनिया भर में जितने भी अपराध होते हैं, उनमें से अधिकांश
किसी न किसी महिला के खिलाफ ही होते हैं। जैसे-जैसे मानव सभ्यता विकसित होती गई, वैसे-वैसे महिलाओं के साथ अपराधों की संख्या भी बढ़ती गई। महिलाओं के
साथ अपराध सिर्फ अशिक्षित और गरीब वर्ग में ही नहीं, बल्कि
उच्च शिक्षित, धनी और प्रतिष्ठित परिवारों में भी होता हैSA महिलाओं
के प्रति अपराध कई प्रकार के होते हैं.... वैवाहिक हिंसा, पारिवारिक हिंसा, दहेज उत्पीड़न व दहेज हत्या, महिला हत्या, जबर्दस्ती देह व्यापार के दलदल में
घकेलना,लैंगिक भेदभाव और लैंगिक अत्याचार, भ्रूण हत्या और लिंग निर्धारण, कार्यस्थल पर यौन
उत्पीड़न, स्कूल-कॉलेजों में यौन उत्पीड़न व अन्य उत्पीड़न, सामाजिक रूप से अपमानित करना, आर्थिक बंदिशों रखना, देवदासी, डायन बताकर मार डालना आदि।
महिलाओं के विरूद्ध होनेवाले अपराधों के संबंध
में भारत सरकार के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा आंकड़े एकत्रित किए गए
जो चौंकाने वाले हैं। आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं के उत्पीड़न से संबंधित यौन
उत्पीड़न, छेड़छाड, दहेज प्रताड़ना, वैवाहिक तथा हिंसा आदि मामलों में लगातार तीव्र गति से वृद्धि हो रही है।
तो अब आप ही बताए कि महिलाओं के लिए बने कानून
कितने कारगर साबित हो रहे हैं और तो और महिलाओं के साथ अपराध करने वालों का इन बने
हुए कानून का जरा भी भय नहीं दिखाई पड़ता, क्योंकि यदि भय
होता तो महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में वृद्धि दर्ज न हो रही होती। साथ
ही साथ सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय महिला आयोग भी इन महिलाओं को न्याय दिला
पाने में नाकारी साबित दिखाई पड़ती हैं।
मैं तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए
फैसले से खुश हूं इससे भविष्य में मुस्लिम महिलाओं को इसके दंश से मुक्ति मिल
जाएगी... परंतु ऐसा भी लगता है कि कहीं यह भी अन्य की भांति सिर्फ और सिर्फ कागजी
शोभा ना बढ़ाता दिखाई दे... जिसकी पृष्ठभूमि बाहर कुछ और, और अंदर कुछ और हो.....
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