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Sunday, April 29, 2012

धन से सच्चाई छिप जाती है


धन से सच्चाई छिप जाती है
हमारी पारंपरिक मूल्य-व्यवस्था एवं स्थापित आचार-संहिता के अनुसार, कोई भी व्यक्ति चाहे वह धनी हो या निर्धन, जवान हो या बूढ़ा, पुरूष हो या महिला, विकलांग या स्वस्थ्य हो, उसकी पहचान और उसका मूल्यांकन उसके धन या संपत्ति से नहीं बल्कि उसकी सच्चाई और ईमानदारी के गुणों से किया जाता था। यहां तक कि स्वतंत्र भारत सरकार ने सत्यमेव जयते का प्रतीक अपनाया जिसका अर्थ है हमेशा सत्य की विजय होती है। उत्तर भारत के अंतिम हिंदू शासक, हर्षवर्धन केवल अपनी बहादुरी और विजयों के लिए नहीं अपितु निजी एकता और पवित्र जीवन के लिए प्रसिद्ध थे। किंतु अब ऐसा लगता है कि ये मानदंड पूरी तरह से बदल चुके हैं। अब धन का मायाजाल फैल गया है। पहले हम यह सुनते थे कि धन ही सब कुछ नहीं होता, लेकिन अब हम उक्त कथन कहने को मजबूर हैं कि आज के परिप्रेक्ष्य में धन ही सब कुछ होता है। क्योंकि आज कोई भी वस्तु क्यों न हो धन से उसे खरीदा जा सकता है। आज धन बड़े और छोटे लोगों का सद्भाव खरीद सकता है। एक तरफ धन से अंधे लोगों में कोर्नियां का प्रतिरोपण करके दृष्टि वापस लाई जा सकती है और धन से ही ह्रदय भी परिवर्तित करवाया जा सकता है। यह केवल दिवा-स्वप्न नहीं बल्कि हकीकत है कि  आज रोगग्रस्त एवं बेकार ह्रदय को किसी मरणासन्न व्यक्ति के ह्रदय से, जिसका ह्रदय अच्छी तरह कार्य कर रहा हो, बदला जा सकता है।
जीवन के इन उच्च मूल्यों की प्रवृत्ति में यह परिवर्तन कैसे आया? सोच का विषय है। स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत ने तीव्र औद्योगीकरण देखा। प्रारंभ में, नव-स्वतंत्र भारत में, अधिक भ्रष्टाचार नहीं था। झूठ केवल कचहरियों की चारदीवारी तक सीमित था जहां गवाह ईश्वर की शपथ लेकर भी झूठ बोलते थे। किंतु तीव्र औद्योगीकरण तथा परमिट-कोटा राज ने युवाओं के विकास को जन्म दिया और मध्यम वर्ग के लोगों को किसी भी माध्यम से तथा किसी भी कीमत पर अधिक धन प्राप्त करने की ओर प्रवृत्त किया। अंग्रेजों के चले जाने के बाद स्वतंत्रता संघर्ष के नेता एक-एक करके राजनीतिक दृश्य से ओझल होते गए तथा उनकी जगह पर उनके पुत्र, पुत्रियां, भतीजे, दमाम तथा अन्य लोग आते गए, जिससे वस्तु-स्थिति में परिवर्तन हो गया। नए उभरते ठेकेदार, जो राजनीतिक दादाओं की दूसरी पीढ़ी हैं, जो अपनी पैतृक राजनीति को किसी भी माध्यम एवं कीमत पर कायम रखना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें चुनाव लड़ने होते हैं जिसमें काफी धन लगता है। इन दो वर्गों के बीच धन का लालच और सत्ता की भूख के कारण जल्द ही एक संबंध स्थापित हो जाता है। देश के परंपरागत देश भक्त पैसे वालों के हाथों की कठपुती बन जाते हैं जो राजनीतिज्ञों को किसी भी कीमत पर चुनाव जिताने के लिए पैसों से भरे ट्रक की आपूर्ति करते रहते हैं और सत्ता में आ जाने के बाद अच्छे राजनीतिज्ञ इन पैसे वालों का उपकार चुकाने के क्रम में उनका गैर-जिम्मेदाराना समर्थन करने लगते हैं। इस प्रकार पैसे वाले लोग, जो राजनीतिक अनुदानों में कुछ करोड़ रूपये खर्च करते हैं, बदले में उन्हें हजारों करोड़ रूपये मिल जाते हैं। जब उनसे प्रश्न पूछे जाने लगते हैं तो राजनीतिज्ञ सदन के अंदर या बाहर झूठ बोल देते हैं। पैसे वाले लोग जब किसी कानूनी कार्रवाही के दौरान पकड़ जाते हैं तो यह दावा कर देते हैं कि उन्होंने अमुक-अमुक व्यक्तियों को अमुक-अमुक उद्देश्यों के लिए करोड़ों रूपए दिए हैं। जिन व्यक्तियों पर पैसे लेने के आरोप लगाए जाते हैं वे एक पंक्ति का कथन देकर बताते है कि उन्होंने इस प्रकार का कोई पैसा किसी से नहीं लिया है। किंतु यह आदमी नहीं बल्कि धन और अधिकार बोलते हैं। क्योंकि सभी जानते है कि दोषी कौन है फिर भी सच्चाई छिप जाती है या छिपा दी जाती है। चोर-चोर मौसरे भाई के रिश्तों की तरह सभी इनका साथ देने लगते हैं और यह प्रमाणित करने लगते है कि उक्त दोषी नहीं है। विचित्र दलीलें देने लगते हैं। वहीं सत्य अपनी आंखें नीची किए हुए एक तरफ खड़ा रहता है क्योंकि वह धन की तरह ऊंची आवाज में नहीं बोल सकता। यदि वह बोलता तो उसे कोई नहीं सुनता। उसे हमेशा डर रहता है कि उसे ईश-निंदा के लिए जेल में बंद किया जा सकता है।
यह बीमारी और भी असाध्य हो गई है। न्यूनतम प्रयासों से अधिक धन के लालच में अपराधियों ने साधुओं का वेश धारण कर लिया है और राजनीति के क्षेत्र में कूद पड़े हैं। भारतीय राजनीति के इस संक्रमण से, जिसे राजनीति का अपराधीकरणकहा जाता है, भारतीय प्रशासन व्यवस्था पर धन की पकड़ मजबूत हो चुकी है। अपराधी-राजनीतिज्ञ गठजोड़ की जांच करने वाली वोहरा समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि माफिया एक समांतर सरकार चला रही है जो सरकार को भी अप्रसांगिक बना रही है।
धन के बल का कुरूप चेहरा भारत के लोक जीवन में केवल राजनीतिज्ञों के बीच ही लोकप्रिय नहीं है अपितु नौकरशाहों, शिक्षाविदों एवं यहां तक कि बुद्धिजीवियों में भी यह काफी लोकप्रिय हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि इसके कारण कई घोटाले हुए हैं। बोफोर्स घोटाला, बैंक प्रतिभूति घोटाला, जैन हवाला, बिहार चारा घोटाला, यूरिया घोटाला, आवास घोटाला, 2जी घोटाला और आने वाले समय में 3 जी घोटाले की संभावना।
अगर कहां जाए तो सरकार के बनने तथा गिराने से लेकर हर चीज में धन को बल दिया जाता है क्योंकि मत-पत्रों की इस क्रांति के बाद भी, कोई भी सरकार बिना खरीद-फरोख्त के स्थायी नहीं बनी है। इस खरीद-फरोख्त के लिए पुनः पैसों की आवश्यकता होती है। और धन से हर सच्चाई छिप जाती है।

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