सरोकार की मीडिया

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Monday, February 27, 2012

वाह रे! बुन्‍देलखण्‍ड विश्‍वविद्यालय


वाह रे! बुन्‍देलखण्‍ड विश्‍वविद्यालय



आज दिनांक 27.02.2012 को मैं अपनी बी.कॉम की उपाधि लेने बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झांसी गया तो वहां के बाबू ने कहा कि अपनी तीनों साल की अंकतालिका की छायाप्रति जमा करो, हम 1 माह के अंदर आपके पते पर पहुंचा देगें। जैसा कि मैं आप सभी को बताना चाहुंगा कि मैंने बी.कॉम 2005 मे उत्तीर्ण किया था, जब से लेकर आज तक मुझे रघुवीर सिंह राजकीय महाविद्यालय से उपाधि नहीं प्राप्त हुई। महाविद्यालय वाले कहते है कि विश्वविद्यालय ने 2004 के बाद से उपाधि नहीं भेजी है हम कहां से दे। तो उपाधि लेने मैं विश्वविद्यालय जा पहुंचा। वहां मैंने उपाधि विभाग में अपनी तीनों साल की अंकतालिका जमा कर दी। और कहा कि मैं एक साल पहले भी अपनी तीनों साल की अंकतालिका जमा करा चुका हूं फिर भी मुझे उपाधि नहीं भेजी गई, तो जबाव मिला कि एक साल पहले कौन काम करता था, उसने क्या किया हमको नहीं पता। तुमको पुनः अंकतालिक जमा करानी होगी और 1 माह का इंतजार करना होगा। जैसा उन्होंने कहा मैंने किया, और वहां से वापस आ गया। तभी मेरे जहन में ख्याल आया क्यों न अधिकारी से मिला जाए। फिर उपाधि विभाग जा पहुंचा, वहां जाकर पता चला कि यहां बैठने वाले अधिकार जिनका नाम हरिशंकर हैं अभी तक नहीं आए हैं। मैंने अपनी घड़ी में समय देखा, 11.47 मिनट हो रहे थे। मैं उनका इंतजार करता रहा, और वो 12.34 मिनट पर आए, मैंने उनसे अपनी समस्या बतायी। पहले तो वो मेरी समस्या सुनना ही नहीं चाहते थे फिर मेरे बार-बार आग्रह के बाद उन्होंने कहा कि पांच बजे आना।
मैं कैंपस के अंदर पांच बजने का इंतजार करता रहा, ठीक पांच बजे एक बार फिर उपाधि विभाग पहुंच गया, जहां मेरी बी.कॉम 2005 की उपाधि बनकर तैयार हो चुकी थी। मैंने उपाधि हाथ में ली तो वहां पर बैठे अधिकारी महोदय हरिशंकर ने कहा कि 100 रूपये इस लड़के को दे दो, मैंने तुरंत ही कहा कि किसी बात के 100 रूपये। हरिशंकर ने कहा कि उपाधि बनाने में मेहनत लगी है और जल्दी ही बनाकर दे रहें हैं, नहीं तो महीने दो महीने चक्कर लगाने पड़ते। मैंने भी जबाव दिया, आप लोगों का काम छात्रों को उपाधि देने का ही है फिर रूपये कैसे? और मैं अपनी उपाधि लेकर वापस आ गया।
तभी से सोच में हूं कि बुन्देलखण्ड में जो मेरे साथ घटित हुए वैसा सभी छात्र-छात्राओं के साथ होता होगा, और सभी छात्र-छात्राओं को अपने काम के एवज में किसी न किसी अधिकारीगण को रूपये देने पड़ते होगें नहीं तो लगाते रहो चक्कर।
क्या छात्र-छात्राओं से लिए जाने वाले पैसों में से कुछ हिस्सा इन बड़े अधिकारियों को भी पहुंचता है? नहीं तो ऐसा नहीं है कि उनकी नाक के नीच ऐसा भ्रष्टाचार चलता रहे और वो चुप बैठे रहें। शायद बुन्देलखण्ड प्रशासन सब जानते हुए भी अंजान बना हुआ है? या अंजान बनने का ठोंग कर रहा है।
मेरी एक बात समझ में नहीं आती है ऐसा कब तक चलता रहेगा, क्या शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले इस भ्रष्टाचार पर रोक लग पायेगी या नहीं?

Tuesday, February 14, 2012

आधुनिकता की मिसाल-विधान सभा में अश्लील वीडियों



आधुनिकता की मिसाल-विधान सभा में अश्लील वीडियों


मैं यहां किसी नेता का नाम नहीं लेना चाहूंगा, क्योंकि मुझे नेताओं से और उनके कूकर्मों से घिन्न होती है। जागरण जंक्शन द्वारा उठाया गया मुद्दा, विधान सभा में अश्लील वीडियों-क्या दम तोड़ रही है हमारी नैतिकता या यह आधुनिकता की देन है। तो मैंने बहुत सोचने के बाद संचार माध्यमों को ही कठघरे में खड़ा किया है। क्योंकि जब से संचार क्रांति का तीव्र गति से विकास हुआ है तब से ही अश्लीलता अपने चरम पर पहुंच गई है।

आज मीडिया ने कुछ नेताओं द्वारा विधान सभा में मोबाईल फोन पर अश्लील वीडियों को देखना दिखाया है। यह मीडिया के लिए एक बे्रकिंग ख़बर थी,जिसको बढ़ा-चढ़ाकर परोसा गया। मैं यहां तथाकथित मीडिया से एक सवाल पूछना चाहता हूं, कि क्या कभी उसने यह जानने की कोशिश की कि, बाजार में और समाज में अश्लील वीडियों कहां से आता है? और इस पर कैसे रोक लगाई जाए। क्या मीडिया संस्थानों का ध्यान कभी इस ओर नहीं गया? गया भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भारतीय समाज में अश्लीलता सदियों से व्याप्त रही है। जिसको भिन्न-भिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। परंतु समाजशास्त्रियों तथा बुद्धजीवियों ने अश्लीलता को असभ्यता से जोड़कर देखा है। ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास हुआ त्यों-त्यों समाज ने अश्लीलता को नग्नता से जोड़ दिया। आज अश्लीलता दिन-प्रतिदिन अपनी चरम सीमा को लाघंते हुए बाजार तक पहुंच गया है। इस अश्लीलता को सभ्य समाज ने कभी भी मान्यता प्रदान नहीं की। परंतु वो ही समाज अब धीरे-धीरे उसका समर्थन करने लगा है। इसका मूल कारण कुछ भी हो सकता है, चाहे मजबूरी कहें या वक्त की मांग। समर्थन तो दे दिया है।

यह बात सही है कि जब से इंटरनेट और मल्टीमीडिया मोबाईल फोन आया है तब से अश्लीलता का जिन्न बंद बोतल से बाहर की हवा खाने लगा है। पहले अश्लीलता लुके-छिपे बहुत कम संख्या में अश्लील साहित्यों में प्रकाशित होती थी। परंतु टी.वी. और इंटरनेट ने इसमें चार चांद लगा दिए हैं। इस मुखरता और आर्थिकीकरण ने अश्लीलता को बाजार की दहलीज तक पहुंचा दिया है। ध्यातव्य है कि, अश्लीलता का आरोप हम केवल-और-केवल पश्चिमी देशों पर नहीं मड़ सकते, कि सिर्फ वहां से ही अश्लीलता का बाजार गरमाता है और उसकी गरमाहट हमारे देश तक आती है। यह बात हमारे देश पर भी लागू होती है कि अश्लीलता के बाजार की आग हमारे यहां भी जलायी जा रही है। वो भी बिना रोक-टोक के। अश्लीलता की अग्नि को रोकने के लिए बने कानून भी कारगर सिद्ध नहीं हो रहे हैं, इसलिए अब यह बाजार कानून को मुंह चिड़ाता हुआ खुल्लम-खुल्ला चलाया जा रहा है।

आज बाजार में अश्लील साहित्यों से लेकर, विज्ञापन, खबरें, पोर्न फिल्में सभी कुछ उपलब्ध है। एक सर्वे के अनुसार, ‘‘लगभग 386 पोर्न साइटें अश्लीलता को बढ़ावा दे रही हैं, जिस पर करोड़ों लोग प्रतिदिन सर्च करते हैं।’’ इसके साथ-साथ प्रतिदिन भारत में 10-12 नई अश्लील किल्पें बाजार का रूख कर लेती हैं। एक बात पर गौर किया जा सकता है कि अश्लीलता युवा पीढ़ी के साथ-साथ नन्हें हाथों में चली गई। जिसको रोकना आज नमुमकिन है। आज के परिप्रेक्ष्य में कहें तो 5साल के बच्चों के हाथों में मोबाईल फोन आसानी से देखा जा सकता है। वैसे बड़े घरानों के लड़के-लड़कियों को आसानी से उनकी जिद पर मल्टीमीडिया फोन उपलब्ध करवा दिया जाता है। जिसका उपयोग देर रात तक बातों और न जाने किस-किस काम के लिए उपयोग होता है, यह शायद ही फोन देने वाला गौर करता हो। फिर चाहे बच्चे इससे अश्लील एमएमएस बनाए या अश्लील वीडियों देखें। हां युवा पीढ़ी है टेक्नीकल तो होनी ही चाहिए, चाहे अश्लीलता के क्षेत्र में क्यों न हो? कभी मीडिया का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं गया। और हम बात करते है दम तोड़ती हमारे या समाज की नैतिकता की। कहां गायब है नैतिकता? आज हर जगह से नैतिकता गायब हो चुकी है। हम नैतिकता का रोना रोये, या आधुनिक समाज के विकास का उल्लास मानये, समझ से परे की बात है। वहीं मीडिया विधान सभा में चंद नेताओं द्वारा अश्लील वीडियों को उठा रहा है कि यह नैतिकता का हनन है या आधुनिकता की मिसाल। इसे मिसाल का दर्जा देना ही उचित रहेगा क्योंकि आधुनिकता के आते ही नैतिकता का पतन पहले ही हो चुका है अब तो इसको अपनाने की बारी है। चाहे मौन स्वीकृति देकर या खुल्लम-खुल्ला समर्थन देकर। स्वीकार तो करना ही पड़ेगा?

वेलेंटाइन डे का अर्थशास्‍त्र या समाजशास्‍त्र


वेलेंटाइन डे का अर्थशास्‍त्र या समाजशास्‍त्र

बाजार भी बड़ी अजीब चीज है। यह किसी को भी धरती से आकाश  या आकाश से धरती पर पहुंचा देता है। यह उसकी ही महिमा है कि भ्रष्टाचारी नेताओं को अखबार के पहले पृष्ठ पर और समाज सेवा में अपना जीवन गलाने वालों को अंदर के पृष्ठों पर स्थान मिलता है। बाजार के इस व्यवहार ने गत कुछ सालों से एक नये उत्सव को भारत में लोकप्रिय किया है। इसका नाम है वेलेंटाइन दिवस।
हर साल 14 फरवरी को मनाये जाने वाले इस उत्सव के बारे में बताते हैं कि लगभग 1,500 साल पहले रोम में क्लाडियस दो नामक राजा का शासन था। उसे प्रेम से घृणा थी; पर वेलेंटाइन नामक एक धर्मगुरु ने प्रेमियों का विवाह कराने का काम जारी रखा। इस पर राजा ने उसे 14 फरवरी को फांसी दे दी। तब से ही यह वेलेंटाइन दिवसमनाया जाने लगा।
लेकिन यह अधूरा और बाजारी सच है। वास्तविकता यह है कि ये वेलेंटाइन महाशय उस राजा की सेना में एक सैनिक थे। एक बार विदेशियों ने रोम पर हमला कर दिया। इस पर राजा ने युद्धकालीन नियमों के अनुसार सब सैनिकों की छुट्टियां रद्द कर दीं; पर वेलेंटाइन का मन युद्ध में नहीं था। वह प्रायः भाग कर अपनी प्रेमिका से मिलने चला जाता था। एक बार वह पकड़ा गया और देशद्रोह के आरोप में इसे 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया। समय बदलते देर नहीं लगती। बाजार के अर्थशास्त्र ने इस युद्ध अपराधी को संत बना दिया।
दुनिया कहां जा रही है, इसकी चिंता में दुबले होने की जरूरत हमें नहीं है; पर भारत के युवाओं को इसके नाम पर किस दिशा में धकेला जा रहा है, यह अवश्य सोचना चाहिए। भारत तो वह वीर प्रसूता भूमि है, जहां महाभारत युद्ध के समय मां विदुला ने अपने पुत्र संजय को युद्ध से न भागने का उपदेश दिया था। कुन्ती ने अपने पुत्रों को युद्ध के लिए उत्साहित करते हुए कहा था -
यदर्थं क्षत्रियां सूते तस्य कालोयमागतः
नहि वैरं समासाक्ष्य सीदन्ति पुरुषर्षभाः।। (महाभारत उद्योग पर्व)
(जिस कारण क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं, वह समय आ गया है। किसी से बैर होने पर क्षत्रिय पुरुष हतोत्साहित नहीं होते।)
भारत की एक बेटी विद्युल्लता ने अपने भावी पति के युद्धभूमि से लौट आने पर उसके सीने में कटार भौंक कर उसे दंड दिया और फिर उसी से अपनी इहलीला भी समाप्त कर ली थी। गुरु गोविंद सिंह जी के उदाहरण को कौन भुला सकता है। जब चमकौर गढ़ी के युद्ध में प्यास लगने पर उनके पुत्र किले में पानी पीने आये, तो उन्होंने दोनों को यह कहकर लौटा दिया कि वहां जो सैनिक लड़ रहे हैं, वे सब मेरी ही संतानें हैं। क्या उन्हें प्यास नहीं लगी होगी ? जाओ और शत्रु के रक्त से अपनी प्यास बुझाओ। इतिहास गवाह है कि उनके दोनों बड़े पुत्र अजीतसिंह और जुझारसिंह इसी युद्ध में लड़ते हुए बलिदान हुए।
हाड़ी रानी की कहानी भी हम सबने पढ़ी होगी। जब चूड़ावत सरदार का मन युद्ध में जाते समय कुछ विचलित हुआ, तो उसने रानी से कोई प्रेम चिन्ह मंगवाया। एक दिन पूर्व ही विवाह बंधन में बंधी रानी ने अविलम्ब अपना शीश काट कर भिजवा दिया। प्रसिद्ध गीतकार नीरज ने अपने एक गीत थी शुभ सुहाग की रात मधुर.... में इस घटना को संजोकर अपनी लेखनी को धन्य किया है।
ऐसे ही तानाजी मालसुरे अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण देने जब शिवाजी के पास गये, तो पता लगा कि मां जीजाबाई ने कोंडाणा किले को जीतने की इच्छा व्यक्त की है। बस, ताना जी के जीवन की प्राथमिकता निश्चित हो गयी। इतिहास बताता है कि उस किले को जीतते समय, वसंत पंचमी के पावन दिन ही तानाजी का बलिदान हुआ। शिवाजी ने भरे गले से कहा गढ़ आया पर सिंह गया। तबसे ही उस किले का नाम सिंहगढ़हो गया।
करगिल का इतिहास तो अभी ताजा ही है। जब बलिदानी सैनिकों के शव घर आने पर उनके माता-पिता के सीने फूल उठते थे। युवा पत्नियों ने सगर्व अपने पतियों की अर्थी को कंधा दिया था। लैफ्टिनेंट सौरभ कालिया की मां ने कहा था, ‘‘मैं अभिमन्यु की मां हूं।’’ मेजर पद्मपाणि आचार्य ने अपने पिता को लिखा था, ‘‘युद्ध में जाना सैनिक का सबसे बड़ा सम्मान है।’’ लैफ्टिनेंट विजयन्त थापर ने अपने बलिदान से एक दिन पूर्व ही अपनी मां को लिखा था, ‘‘मां, हमने दुश्मन को खदेड़ दिया।’’
ये तो कुछ नमूने मात्र हैं। जिस भारत के चप्पे-चप्पे पर ऐसी शौर्य गाथाएं बिखरी हों, वहां एक भगोड़े सैनिक के नाम पर उत्सव मनाना क्या शोभा देता है ? पर उदारीकरण के दौर में अब भावनाएं भी बिकने लगी हैं। महिलाओं की देह की तर्ज पर अब दिल को भी बाजार में पेश कर दिया गया है। अब प्रेम का महत्व आपकी भावना से नहीं, जेब से है। जितना कीमती आपका तोहफा, उतना गहरा आपका प्रेम। जितने महंगे होटल में वेलेंटाइन डिनर और ड्रिंक्स, उतना वैल्यूएबल आपका प्यार। यही है वेलेंटाइन का अर्थशास्त्र।
वेलेंटाइन की इस बहती गंगा (क्षमा करें गंदे नाले) में सब अपने हाथ मुंह धो रहे हैं। कार्ड व्यापारी से लेकर अखबार के मालिक तक, सब 250 रु0 से लेकर 1,000 रु0 तक में आपका संदेश आपकी प्रियतमा तक पहुंचाने का आतुर हैं। होटल मालिक बता रहे हैं कि हमारे यहां केंडेल लाइटमें लिया गया डिनर आपको अपनी मंजिल तक पहुंचा ही देगा। कीमत सिर्फ 2,500 रु0। प्यार के इजहार का यह मौका चूक गये, तो फिर यह दिन एक साल बाद ही आयेगा। और तब तक क्या भरोसा आपकी प्रियतमा किसी और भारी जेब वाले की बाहों में पहुंच चुकी हो। इस कुसंस्कृति को घर-घर पहुंचाने में दूरदर्शन वाले भी पीछे नहीं हैं। केवल इसी दिन भेजे जाने वाले मोबाइल संदेश (एस.एम.एस तथा एम.एम.एस) से टेलिफोन कम्पनियां करोड़ों रु0 कमा लेती हैं।
वेलेंटाइन से अगले दिन के समाचार पत्रों में कुछ रोचक समाचार भी पढ़ने का हर बार मिल जाते हैं। एक बार मेरठ के रघुनाथ गर्ल्स कालिज के पास जब कुछ मनचलों ने जबरदस्ती छात्राओं को गुलाब देने चाहे, तो पहले तो लड़कियों ने और फिर वहां सादे वेश में खड़े पुलिसकर्मियों ने चप्पलों और डंडों से धुनाई कर उनका वेलेंटाइन बुखार झाड़ दिया। जब उन्हें मुर्गा बनाया गया, तो वहां उपस्थित सैकड़ों दर्शकों ने हैप्पी वेलेंटाइन डेके नारे लगाये।
ऐसे ही लखनऊ के एक आधुनिकवादी सज्जन की युवा पुत्री जब रात में दो बजे तक नहीं लौटी, तो उनके होश उड़ गये। पुलिस की सहायता से जब खोजबीन की, तो वह एक होटल के बाहर बेहोश पड़ी मिली। उसके मुंह से आ रही तीखी दुर्गन्ध और अस्त-व्यस्त कपड़े उसकी दुर्दशा की कहानी कह रहे थे। वेलेंटाइन का यह पक्ष भी अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है। इसलिए इस उत्सव को मनाने को आतुर युवा वर्ग को डांटने की बजाय इसके सच को समझाये। भारत में प्रेम और विवाह जन्म जन्मांतर का अटूट बंधन है। यह एक दिवसीय क्रिकेट की तरह फटाफट प्यार नहीं है।
वैसे वेलेंटाइन का फैशन अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। चूँकि कोई भी फैशन सदा स्थायी नहीं रहता। बाजार की जिस आवश्यकता ने  देशद्रोही को संत वेलेंटाइनबनाया है, वही बाजार उसे कूड़ेदान में भी फ़ेंक देगा। यह बात दूसरी है कि तब तक बाजार ऐसे ही किसी और नकली मिथक को सिर पर बैठा लेगा। क्योंकि जबसे इतिहास ने आंखें खोली हैं, तबसे बाजार का अस्तित्व है और आगे भी रहेगा। इसलिए विज्ञापनों द्वारा नकली आवश्यकता पैदा करने वाले बाजार की मानसिकता से लड़ना चाहिए, युवाओं से नहीं.......


Monday, February 13, 2012

मोक्ष...................???


मोक्ष...................???


मोक्ष की तलाश में,
सदियां बीत गई
खोजा, हर जगह
गली-गली, दर-दर
आकाश के विशाल में
पाताल की गहराई में
विष्णु के शेष में,
शिव के नेत्र में,
ब्रह्मा के ब्रामांड में,
देवी के दैव्य में,
राक्षसों के दैत्य में,
राम की मर्यादा में,
सीता के त्याग में
हनुमान के बल में,
रावण के ज्ञान में
विभीषण के भेद में
कर्ण के दान में,
अर्जुन के निशाने में,
द्रौपदी के पांडवों में,
कृष्ण के चक्र में,
इंद्र के बज्र में
सुंदरियों के सौंदर्य में
तपस्वियों के तप में,
सुर्य के आग में
चंद्र की चमक में,
लक्ष्मी के धन में
धरती के धरातल में
चाणक्य की नीति में
धर्म के धर्मात्मा में,
काम के कामदेव में,
अर्थ के अर्थशास्त्र में
सृष्टि के मोक्ष में
नारी के लाज में,
पुरूष के पुरषार्थ में,
बच्चे की किलकारी में
मां की ममता में
बाप की डांट में
बहन के स्नेह में,
पत्नी के प्यार में
दोस्त की वफादारी में
दुश्मन की गद्दारी में
वेश्या की मजबूरी में,
किलोमीटर की दूरी में
हिंदू के हिंदुत्व में
मुस्लिम के पाक में
सिख के नानक में
ईसाई के यीशु में
गांधी के महात्मा में
अंग्रेजों की चालाकी में
भगत की कुर्बानी में,
शहीदों की शहादत में
भूकंप की तबाही में,
समुद्र की सुनामी में,
लोभियों के लोभ में,
नेताओं की भ्रष्टाचारी में
कवि की कल्पनाओं में
दिल की धड़कन में
खून के रंग में
पाप में, पुण्य में
आदि से अंत में
अंत से आदि में,
सदियां बीत गई,
खुद को तलाशते-तलाशते
कहां से चले थे, कहां हैं, कहां होगें
खुद को तलाश रहा हूं,
शायद कभी तलाश कर पाऊं