वेलेंटाइन डे का अर्थशास्त्र या समाजशास्त्र
बाजार भी बड़ी अजीब चीज है। यह किसी को भी धरती से आकाश या आकाश से धरती पर पहुंचा देता है। यह उसकी ही महिमा है कि भ्रष्टाचारी नेताओं को अखबार के पहले पृष्ठ पर और समाज सेवा में अपना जीवन गलाने वालों को अंदर के पृष्ठों पर स्थान मिलता है। बाजार के इस व्यवहार ने गत कुछ सालों से एक नये उत्सव को भारत में लोकप्रिय किया है। इसका नाम है वेलेंटाइन दिवस।
हर साल 14 फरवरी को मनाये जाने वाले इस उत्सव के बारे में बताते हैं कि लगभग 1,500 साल पहले रोम में क्लाडियस दो नामक राजा का शासन था। उसे प्रेम से घृणा थी; पर वेलेंटाइन नामक एक धर्मगुरु ने प्रेमियों का विवाह कराने का काम जारी रखा। इस पर राजा ने उसे 14 फरवरी को फांसी दे दी। तब से ही यह ‘वेलेंटाइन दिवस’ मनाया जाने लगा।
लेकिन यह अधूरा और बाजारी सच है। वास्तविकता यह है कि ये वेलेंटाइन महाशय उस राजा की सेना में एक सैनिक थे। एक बार विदेशियों ने रोम पर हमला कर दिया। इस पर राजा ने युद्धकालीन नियमों के अनुसार सब सैनिकों की छुट्टियां रद्द कर दीं; पर वेलेंटाइन का मन युद्ध में नहीं था। वह प्रायः भाग कर अपनी प्रेमिका से मिलने चला जाता था। एक बार वह पकड़ा गया और देशद्रोह के आरोप में इसे 14 फरवरी को फांसी पर चढ़ा दिया गया। समय बदलते देर नहीं लगती। बाजार के अर्थशास्त्र ने इस युद्ध अपराधी को संत बना दिया।
दुनिया कहां जा रही है, इसकी चिंता में दुबले होने की जरूरत हमें नहीं है; पर भारत के युवाओं को इसके नाम पर किस दिशा में धकेला जा रहा है, यह अवश्य सोचना चाहिए। भारत तो वह वीर प्रसूता भूमि है, जहां महाभारत युद्ध के समय मां विदुला ने अपने पुत्र संजय को युद्ध से न भागने का उपदेश दिया था। कुन्ती ने अपने पुत्रों को युद्ध के लिए उत्साहित करते हुए कहा था -
यदर्थं क्षत्रियां सूते तस्य कालोयमागतः
नहि वैरं समासाक्ष्य सीदन्ति पुरुषर्षभाः।। (महाभारत उद्योग पर्व)
(जिस कारण क्षत्राणियां पुत्रों को जन्म देती हैं, वह समय आ गया है। किसी से बैर होने पर क्षत्रिय पुरुष हतोत्साहित नहीं होते।)
भारत की एक बेटी विद्युल्लता ने अपने भावी पति के युद्धभूमि से लौट आने पर उसके सीने में कटार भौंक कर उसे दंड दिया और फिर उसी से अपनी इहलीला भी समाप्त कर ली थी। गुरु गोविंद सिंह जी के उदाहरण को कौन भुला सकता है। जब चमकौर गढ़ी के युद्ध में प्यास लगने पर उनके पुत्र किले में पानी पीने आये, तो उन्होंने दोनों को यह कहकर लौटा दिया कि वहां जो सैनिक लड़ रहे हैं, वे सब मेरी ही संतानें हैं। क्या उन्हें प्यास नहीं लगी होगी ? जाओ और शत्रु के रक्त से अपनी प्यास बुझाओ। इतिहास गवाह है कि उनके दोनों बड़े पुत्र अजीतसिंह और जुझारसिंह इसी युद्ध में लड़ते हुए बलिदान हुए।
हाड़ी रानी की कहानी भी हम सबने पढ़ी होगी। जब चूड़ावत सरदार का मन युद्ध में जाते समय कुछ विचलित हुआ, तो उसने रानी से कोई प्रेम चिन्ह मंगवाया। एक दिन पूर्व ही विवाह बंधन में बंधी रानी ने अविलम्ब अपना शीश काट कर भिजवा दिया। प्रसिद्ध गीतकार नीरज ने अपने एक गीत ‘थी शुभ सुहाग की रात मधुर.... ’ में इस घटना को संजोकर अपनी लेखनी को धन्य किया है।
ऐसे ही तानाजी मालसुरे अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण देने जब शिवाजी के पास गये, तो पता लगा कि मां जीजाबाई ने कोंडाणा किले को जीतने की इच्छा व्यक्त की है। बस, ताना जी के जीवन की प्राथमिकता निश्चित हो गयी। इतिहास बताता है कि उस किले को जीतते समय, वसंत पंचमी के पावन दिन ही तानाजी का बलिदान हुआ। शिवाजी ने भरे गले से कहा ‘गढ़ आया पर सिंह गया’। तबसे ही उस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया।
करगिल का इतिहास तो अभी ताजा ही है। जब बलिदानी सैनिकों के शव घर आने पर उनके माता-पिता के सीने फूल उठते थे। युवा पत्नियों ने सगर्व अपने पतियों की अर्थी को कंधा दिया था। लैफ्टिनेंट सौरभ कालिया की मां ने कहा था, ‘‘मैं अभिमन्यु की मां हूं।’’ मेजर पद्मपाणि आचार्य ने अपने पिता को लिखा था, ‘‘युद्ध में जाना सैनिक का सबसे बड़ा सम्मान है।’’ लैफ्टिनेंट विजयन्त थापर ने अपने बलिदान से एक दिन पूर्व ही अपनी मां को लिखा था, ‘‘मां, हमने दुश्मन को खदेड़ दिया।’’
ये तो कुछ नमूने मात्र हैं। जिस भारत के चप्पे-चप्पे पर ऐसी शौर्य गाथाएं बिखरी हों, वहां एक भगोड़े सैनिक के नाम पर उत्सव मनाना क्या शोभा देता है ? पर उदारीकरण के दौर में अब भावनाएं भी बिकने लगी हैं। महिलाओं की देह की तर्ज पर अब दिल को भी बाजार में पेश कर दिया गया है। अब प्रेम का महत्व आपकी भावना से नहीं, जेब से है। जितना कीमती आपका तोहफा, उतना गहरा आपका प्रेम। जितने महंगे होटल में वेलेंटाइन डिनर और ड्रिंक्स, उतना वैल्यूएबल आपका प्यार। यही है वेलेंटाइन का अर्थशास्त्र।
वेलेंटाइन की इस बहती गंगा (क्षमा करें गंदे नाले) में सब अपने हाथ मुंह धो रहे हैं। कार्ड व्यापारी से लेकर अखबार के मालिक तक, सब 250 रु0 से लेकर 1,000 रु0 तक में आपका संदेश आपकी प्रियतमा तक पहुंचाने का आतुर हैं। होटल मालिक बता रहे हैं कि हमारे यहां ‘केंडेल लाइट’ में लिया गया डिनर आपको अपनी मंजिल तक पहुंचा ही देगा। कीमत सिर्फ 2,500 रु0। प्यार के इजहार का यह मौका चूक गये, तो फिर यह दिन एक साल बाद ही आयेगा। और तब तक क्या भरोसा आपकी प्रियतमा किसी और भारी जेब वाले की बाहों में पहुंच चुकी हो। इस कुसंस्कृति को घर-घर पहुंचाने में दूरदर्शन वाले भी पीछे नहीं हैं। केवल इसी दिन भेजे जाने वाले मोबाइल संदेश (एस.एम.एस तथा एम.एम.एस) से टेलिफोन कम्पनियां करोड़ों रु0 कमा लेती हैं।
वेलेंटाइन से अगले दिन के समाचार पत्रों में कुछ रोचक समाचार भी पढ़ने का हर बार मिल जाते हैं। एक बार मेरठ के रघुनाथ गर्ल्स कालिज के पास जब कुछ मनचलों ने जबरदस्ती छात्राओं को गुलाब देने चाहे, तो पहले तो लड़कियों ने और फिर वहां सादे वेश में खड़े पुलिसकर्मियों ने चप्पलों और डंडों से धुनाई कर उनका वेलेंटाइन बुखार झाड़ दिया। जब उन्हें मुर्गा बनाया गया, तो वहां उपस्थित सैकड़ों दर्शकों ने ‘हैप्पी वेलेंटाइन डे’ के नारे लगाये।
ऐसे ही लखनऊ के एक आधुनिकवादी सज्जन की युवा पुत्री जब रात में दो बजे तक नहीं लौटी, तो उनके होश उड़ गये। पुलिस की सहायता से जब खोजबीन की, तो वह एक होटल के बाहर बेहोश पड़ी मिली। उसके मुंह से आ रही तीखी दुर्गन्ध और अस्त-व्यस्त कपड़े उसकी दुर्दशा की कहानी कह रहे थे। वेलेंटाइन का यह पक्ष भी अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है। इसलिए इस उत्सव को मनाने को आतुर युवा वर्ग को डांटने की बजाय इसके सच को समझाये। भारत में प्रेम और विवाह जन्म जन्मांतर का अटूट बंधन है। यह एक दिवसीय क्रिकेट की तरह फटाफट प्यार नहीं है।
वैसे वेलेंटाइन का फैशन अब धीरे-धीरे कम हो रहा है। चूँकि कोई भी फैशन सदा स्थायी नहीं रहता। बाजार की जिस आवश्यकता ने देशद्रोही को ‘संत वेलेंटाइन’ बनाया है, वही बाजार उसे कूड़ेदान में भी फ़ेंक देगा। यह बात दूसरी है कि तब तक बाजार ऐसे ही किसी और नकली मिथक को सिर पर बैठा लेगा। क्योंकि जबसे इतिहास ने आंखें खोली हैं, तबसे बाजार का अस्तित्व है और आगे भी रहेगा। इसलिए विज्ञापनों द्वारा नकली आवश्यकता पैदा करने वाले बाजार की मानसिकता से लड़ना चाहिए, युवाओं से नहीं.......
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