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Friday, December 2, 2011

कचरे में ज़िंदगी


कचरे में ज़िंदगी
 
भारतीय संविधान की धारा 24 के अन्तर्गत यह स्पष्ट है कि 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चे किसी कारखाने या किसी ऐसी जगह काम नहीं करेंगे, जहां उनके स्वास्थ्य के लिए खतरा हो, लेकिन आजादी के 64 साल बाद भी हमारा देश इस सामाजिक बुराई से निजात नहीं पा सका है। संपूर्ण देश का अवलोकन करें तो कचरा बिनने, मंदिर-मस्जिद और रेल गाड़ियों में भीख मांगने तथा छोटी-सी उम्र में समान बेचने वाले बच्चों तथा उनके परिवार के सदस्यों की स्थिति को मैंने देखा तो स्थिति बहुत ही भयावह प्रतीत हुई। इन बच्चों को न तो रहने के लिए मकान है, न ही पहनने को ठीक-ठाक कपड़े। यह स्थिति इन लोगों की कैसे हुई यह गहन चिंतन/विचार करने और अध्ययन का मुद्दा है। जिस देश में गांधी, नेहरू, और विनोबा जैसे महान विभूतियों ने सामाजिक कार्य किया। क्या इनका ध्यान इस ओर नहीं गया? इसके बाद भी समस्याएं अभी जस-के-तस बनी हुई हैं। इन गरीब, असहाय, बच्चों को अपना पेट भरने के लिए कचरा बिनने के लिए मजबूर होना पड़ता है। ये बच्चे गंदगी में जिंदगी तलाशते नजर आते हैं। इससे पता चलता है कि समस्याओं के दलदल में फंसा है संपूर्ण भारत।

गरीबी क्या है? और किन अवस्थाओं से जुड़ी हुई है? अगर कहा जाए कि निरंतर भूख की स्थिति, एक उचित रहवास का अभाव, बीमार होने पर स्वास्थ्य सुविधा का लाभ ले पाने में असक्षम होना, विद्यालय न जा पाना, आजिविका के साधनों का अभाव और दोनों समय का भोजन न मिल पाना गरीबी है, तो गलत नहीं होगा। छोटे बच्चों की कुपोषण के कारण होने वाली मौतें गरीबी का प्रत्यक्ष प्रमाण है और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में शक्तिहीनता, राजनैतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न होना तथा अवसरों का अभाव गरीबी की परिभाषा का मुख्य आधार तैयार करते हैं।
मूलतः गरीबी सामाजिक और आर्थिक असमानता के कारण बनती है। जब तक किसी व्यक्ति या परिवार, समूह या समुदाय को व्यवस्था में हिस्सेदारी नहीं मिलती है तब वह शनैः-शनैः विपन्नता की दिशा में अग्रसर होता जाता है। यही वह प्रक्रिया है जिसमें वह शोषण का शिकार होता है। क्षमता का विकास न होने के कारण विकल्प के चुनाव की व्यवस्था से बाहर हो जाता है और उसके उपजीविका के साधन कम होते हैं तो वह सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में निष्क्रिय हो जाता है और निर्धनता की स्थिति में पहुंच जाता है।

इस समावेश में कहा जाए तो देश के सभी शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चें कचरा बिनने और कचरों का इकठ्ठा करने का काम करते हैं। यह काम भी न केवल अपने आप में जोखिम भरा और अपमानजनक है, बल्कि क्षेत्र में कार्य करने वालों का आर्थिक और शारीरिक शोषण भी बहुत होता है। कई लोग आर्थिक रूप से उस निम्न स्तर पर जीवनयापन करने को मजबूर हैं जहां उन्हें खाने के नाम पर केवल चावल, नमक, और, रोटी, और-तो-और कभी-कभी उन्हें यह भी नसीब नहीं होती है। सरकार और समाज को इस विषय पर सोचना चाहिए कि इनको उचित पालन-पोषण की सुविधाएं मुहैया कराई जाए। वैसे सरकार कि बहुत-सी योजनाएं इस ओर चल रही हैं, किंतु सरकार द्वारा चल रही विभिन्न योजनाएं उन गरीब बच्चों खासकर कचरा बिनने वाले बच्चों की पहुंच से कोसों दूर है या यूं कहें कि इन बच्चों तक नहीं पहुंच पाती। इसके पीछे क्या वजह है? इस पर विचार करने की जरूरत है।
वर्तमान संदर्भ की बात करें तो सरकार की नीतियाँ ज्यादातर मशीनीकृत आधुनिक विकास और औद्योगिकीकरण पर ज्यादा जोर दे रही हैं, न कि इन बच्चों के भविष्य को लेकर किसी प्रकार के ठोस कदम पर। हमारे सामने हर वर्ष नित नये आंकड़े और सूचीबद्ध लक्ष्य रखे जाते हैं, व्यवस्था में हर चीजों को हर अवस्था को आंकडों में मापा जा सकता है, हर जरूरत को प्रतिशत में पूरा किया जा सकता है और इसी के आधार पर गरीबी को भी मापने के मापदण्ड तय किए जाते हैं। ऐसा नही है कि, गरीबी को मिटाना संभव नहीं है परंतु वास्तविकता यह है गरीबी को मिटाने की इच्छा कहीं नहीं है। गरीबी का बने रहना समाज की जरूरत है, व्यवस्था की मजबूरी है और सबसे अहम् बात यह है कि वह एक मुद्दा है। प्रो. एम. रीन का उल्लेख करते हुए अमत्र्य सेन लिखते है कि ‘‘लोगों को इतना गरीब नहीं होने देना चाहिए कि उनसे घिन आने लगे, या वे समाज को नुकसान पहुंचाने लगें। इस नजरिये में गरीबी के कष्ट और दुखों का नही बल्कि समाज की असुविधाओं और लागतों का महत्व अधिक प्रतीत होता है। एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में 35 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे रहकर जीवन गुजारते हैं।
आज अपने आप में यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि कौन गरीबी की रेखा के नीचे माना जायेगा। भारत में गरीबी की परिभाषा तय करने का दायित्व योजना आयोग को सौपा गया है। योजना आयोग इस बात से सहमत है कि किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए निम्न न्यूनतम वस्तुएं उपलब्ध होनी चाहिए।

1.
संतोषजनक पौष्टिक आहार, तन ढ़कने के लिए कपड़ा एक उचित ढंग का मकान और अन्य कुछ सामग्रियां, जो किसी भी परिवार के लिए जरूरी है।

2.
न्यूनतम शिक्षा, पीने के लिए स्वच्छ पानी और पर्यावरण।
3.
गरीबी के एक मापदण्ड के रूप में कैलोरी उपयोग (यानि पौष्टिक भोजन की उपलब्धता) को भी स्वीकार किया जाता है।
योजना आयोग ने गरीबी की रेखा को गरीबी मापने का एक सूचक माना है और इस सूचक को दो कसौटियों पर परखा जाता है।
1. गरीबी की रेखा-आय का वह स्तर जिससे लोग अपने पोषण स्तर को पूरा कर सकें, वह गरीबी की रेखा है।
2. गरीबी की रेखा के नीचे-वे लोग जो जीवन की सबसे बुनियादी आवश्यकता अर्थात् रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था नहीं कर सके, गरीबी रेखा के नीचे माने जाते हैं।
 
वास्तव में गरीबी की रेखा वह सीमा है जिसके नीचे जाने का मतलब है जीवन जीने के लिए सबसे जरूरी सुविधाओं, सेवाओं और अवसरों का अभाव। इससे पता चलता हैं कि संपूर्ण देश में रहने वाले बच्चे पढ़ने की उम्र में कचरा बिनने तथा कंधों पर बोझ उठवाकर इनके भविष्य को चैपट किया जा रहा है। इस कच्ची उम्र में इन बच्चों के हाथ में जहां कलम-किताब होनी चाहिएं, वहां इनके हाथ में कचरे की बोरी देखी जा सकती हैं। नन्हें कंधों पर घर की जिम्मेदारी, नन्हें-नन्हें हाथ कॉपी व कलम न उठाकर घर की पूरी जिम्मेदारी उठाते हो तो यह देखकर आँखों में आंसू आना स्वाभाविक है। देश में आज भी अधिकतर बच्चों की दशा ऐसी ही है। आर्थिक रूप से पिछड़े परिवारों के बच्चों का न तो बचपन बचता और न ही उनकी शिक्षा का मौलिक अधिकार बच पाता है।
अक्सर देखा जा सकता है कि कचरा बिनने वाले नालियों और नालों या अपने आस-पास के क्षेत्र में कीमती कचरे को ढूंढते फिरते हैं। कुछ बच्चों को देखा जो बड़ी तेजी से कूड़े के ढेर में हाथ मार रहे थे। उन्हें जो भी कुछ काम का मिलता वे झट से अपनी बोरी में डाल लेते। उम्र कुछ 7-12 वर्ष के बीच रही होगी। मगर उनकी निरंतरता को देखकर लग रहा था कि मानों सारा बोझ उनके कंधो पर हो। किस तरह से कूडे़ं के ढेर में बचपन बेहाल है। यह स्थिति मैंने अपने आँखों से देखी है। उन बच्चों की दयनीय दशा लोगों को सोचने पर जरूर मजबूर कर देती होगी।

गर्मी, सर्दी और बरसात से सुरक्षा के लिए मकान की आवश्यकता होती है। लेकिन उन कचरा बिनने वाले बच्चों के लिए मकान तक नहीं है। एक ही कमरे में 8 से 10 लोग एक साथ रहते हैं। विशेष रूप से गंदी गलियों में लगे एक ही नल से सैकड़ों व्यक्ति पानी पीते हैं, एक ही शौचालय का प्रयोग करते हैं, स्नान घरों और बच्चों के खेलकूद का तो कोई प्रबंध ही नहीं है। इससे स्वास्थ्य हानि, अकुशलता, दूषित सामाजिक वातावरण आदि समस्याओं का जन्म होता है। किसी भी क्षेत्र का अवलोकन करने पर पता चल जायेगा कि सरकार ने देश के उन गरीब बच्चों के लिए अभी तक क्या किया है? मैंने संपूर्ण देश के बच्चों को तो नहीं देखा, पर जिन शहरों का भ्रमण किया वहां के कचरा बिनने वाले बच्चों का हाल देखा कि कचरा बीनकर अपना और अपने परिवार के लोगों का पेट भरते हैं। इससे तो पता चलता है कि उनका स्वास्थ्य कैसा होगा जब किसी बच्चे को पौष्टिक भोजन नही मिलता तो वह बच्चा जो कमाता है, उसी से पेट भरता है, तो स्वाभाविक है कि उसका स्वास्थ्य कैसे ठीक होगा। इन लोगों कि भारत की सामान्य आबादी के सामांतर एक अलग ही दुनिया है। सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद भी इनके जीवन को सुधारा नहीं जा सका है। परंतु अब वक्त आ गया है कि सरकार इस बात को गंभीरता से ले और इनके जीवन को बद से बदत्तर होने से बचाएं। क्योंकि किसी भी राष्ट्र का भविष्य बच्चों में निहित होता है। इन नैनिहालों का विकास एवं उचित पालन पोषण सरकार और हम सबका कर्तव्य है। ये बच्चे देश के कर्णधार और अपने परिवार की धरोहर होते हैं। इसलिए सरकार को पहले इन बच्चों की विभिन्न समस्याओं पर ध्यान देना अति आवश्यक है। कूड़े कचरे के ढ़ेर में दबता जा रहा बच्चों का भविष्य पढ़ने-लिखने की आयु में कूड़ा-कचरा के ढेर से प्लास्टिक, कागज, लोहा आदि बिनने को बाध्य है। पढ़ाई तो दूर की बात रही। वैसे तो ये खुद मासूम हैं। कचरा बीनकर अपना पेट पाल ही रहे हैं साथ ही घर के लोगों का बोझ भी अपने कंधों पर लिए चल रहे हैं। कचरा ही उनके लिए भोजन की व्यवस्था करता है। जिस दिन कचरा नहीं मिला उस दिन घर का चूल्हा नहीं जल पाता और घर में भूखे सो जाते हैं ये बच्चे।
इस परिपे्रक्ष्य में कहा जाए तो सरकार द्वारा संचालित सभी योजनाएं कारगर साबित नहीं हो रही हैं। तभी तो इन बच्चों का भविष्य गर्द के अंधकार में दिन-प्रतिदिन धसता जा रहा है। क्या ये भारत सरकार व समाज के लिए शर्मसार करने वाली बात नहीं है? कि देश के भविष्य ये बच्चें तिल-तिल अपनी जीविका के लिए जद्दोजहद करते नजर आते हैं। वहीं मानवाधिकार आयोग भी हाथों पर हाथ रखकर तमाशबीन की भांति तमाशा देख रहे हैं।

एक अपील सबसे करने जा रहा हूं कि इन बच्चों के भविष्य को मद्देनजर रखते हुए सरकार पर दवाब बनाएं ताकि इन बच्चों को कचड़े की जिंदगी से निजात मिल सकें और समाज में एक सम्मान दर्जा।

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