सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Monday, December 19, 2011

शांति अध्ययनः सामाजिक प्रक्रिया एवं महत्व


शांति अध्ययनः सामाजिक प्रक्रिया एवं महत्व


मुनष्य मूलतः अहिंसक व शांतिमय वातावरण में रहने वाला सामाजिक प्राणी है। मानव ही क्यों? प्राणी मात्र का स्वभाव शांति व अहिंसक ही होता है। इसी बात की पुष्टि करते हुए गांधी हरिजन के एक अंक में लिखते हैं ‘‘ पशु रूप में मनुष्य हिंसक है, पर आत्मा रूप में वह अहिंसक है। उस के भीतर की आत्मा जाग्रत होते ही वह हिंसक नहीं रह सकता। या तो वह अहिंसा की ओर प्रगति करता है या फिर विनाश की ओर।’’ गांधी मानते हैं कि हिंसा मनुष्य में छिपे पशु का स्वभाव हो सकती है, पर मनुष्य का मूल स्वभाव नहीं हो सकती। मनुष्य का मूल स्वभाव तो अहिंसा ही रही है। ‘‘मानवीय चेतना के विकास का अर्थ है मनुष्य का निरंतर अहिंसक होते जाना- निषेधात्मक नहीं विधेयात्मक अर्थों में। जीवन मात्र के,अस्तित्व मात्र के प्रति लगाव, प्रति लगाव, प्रेम, करूणा, अनुकम्पा की सूक्ष्मतर अनुभूति अहिंसा के भाव की ही गुणाभिव्यक्तियां हैं। अहिंसक होना ही वास्तविक अर्थों में मनुष्य होना और जीवन के विकास की गति में सार्थक भूमिका निबाहना है।

लेकिन जब हम हिंसा या अहिंसा की बात करते हैं तो अक्सर उसका सन्दर्भ बहुत स्थूल और दैहिक होता है। हिंसा मनुष्य केवल हिंसक नहीं है- वह मनुष्य भी है इसलिए, बुद्धि का उपयोग भी करता है और यदि उस के उपयोग की मूल पे्ररणा हिंसा की प्रवृत्ति हो-जैसी कि आधुनिक सभ्यता की गांधी जी मानते हैं- तो उस के लिए बहुत सूक्ष्य और बौद्धिक तरीके भी ईजाद कर लिये जाते हैं। इसीलिए हिंसा सिर्फ व्यक्तिगत प्रवृत्ति नहीं रहती बल्कि अक्सर पूरे समाज के आचरण में भी प्रतिबिम्बित होती है। जाति, नस्ल, वर्ग, राष्ट्र, सम्प्रदाय आदि के आधार पर अपने को श्रेष्ठ और अन्य को ओछा मानना हिंसा का ही सूक्ष्य रूप है। इसलिए दैहिक बल या प्रयोग ही नहीं, किसी भी प्रकार का राजनीतिक दमन, आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न भी हिंसा की ही विभिन्न अभिव्यक्तियां है। इसलिए, हम उसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को धर्म कर सकते हैं जिसका आधार सकारात्मक अर्थों में अहिंसा हो।’’ प्राणियों में मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो चिंतन-मनन कर सकता है तथा अपना भला-बुरा समाज में रहते हुए देख सकता है, सोच सकता है, कर सकता है। मानव जब से सामाजिक प्राणी की सीमा में बंधा है, तभी से वह एक ऐसे समाज- व्यवस्था की रचना में दिन-रात लगातार प्रयत्नशील है जहां उसे शांति की प्राप्ति हो या शांतिमय समाज की स्थापना हो सके। इसके लिए उसने तरह-तरह के साधन उपयोग में लिये, जिसमें एक अनिवार्य साधन हिंसा भी रहा है। रांगेय राघव ने लिखा है कि पहला डंडा आदमी ने जानवर मारने को उठाया था, जिससे उसने दूसरे कबीले के आदमी का सिर तोड़ा और तब से तलवार, बंदूक, तोप होते हुए वह उद्जन बम तक आ गया है। बम बनाने की तुक ही क्या है! दोनों तरफ से आत्मरक्षा। और इसका नतीजा?’

हिंसा क्या है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अब तक हुए प्रयासों का यही नतीजा रहा है कि न तो कोई मूल परिभाषा बन पाई है और न ही इस पर विचारक एकमत हुए हैं। अपने-अपने संस्कृति के आधार पर अलग-अलग मत हुए हैं। चूंकि, सभ्यता-संस्कृति सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ उतार-चढाव में रहती है। और, इस उतार-चढ़ाव में किसी विषय-वस्तु की परिभाषाएं भी अछूती नहीं रहीं। यथा सम्भव यही हाल शांति का रहा है। स्वभाविक प्रश्न है कि जिस साध्य की प्राप्ति के लिए मनुष्य अपनी उत्पत्ति के समय से ही प्रयास कर रहा है तथा इस प्रयास में उसे अनेक दूसरे साध्यों की प्राप्ति भी हुई है। यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं है। लेकिन, मूल साध्य शांति प्राप्ति है जो आज भी मानव से उतनी ही दूर है जितनी साध्य निर्धारण के समय थी।
शांति की स्थापना हेतु हुए अब तक प्रयासों में से कुछ प्रयास जरूर आंशिक रूप से सफल हुए, जैसे-गांधी। ‘‘ मेरा मानना है कि मानवजाति की ऊर्जा का कुल योग हमारे अपकर्ष के लिए नहीं बल्कि हमारे उत्कर्ष के लिए है और यह प्रेम के नियम के अचेतन किन्तु निश्चित प्रवर्तन का ही परिणाम है। मात्र यह तथ्य कि मानवजाति का अस्तित्व बरकरार है, इस बात का प्रमाण है कि संसक्तिशील बल विचछेदक बल से अधिक शक्तिशाली है, अभिकेन्द्री बल अपकेन्द्री बल से बढ़कर है।’’ महात्मा गांधी हिंसा और अहिंसा के बीच एक द्वन्द्व को देखते हैं लेकिन उनके अनुसार दोनों की श्रेष्ठता में अहिंसा ही श्रेष्ठ होगी, और उनकी यह मान्यता किसी तर्केतर आस्था के कारण नहीं बल्कि मानवीय अनुभव और इतिहास से समर्थित है। यहां तक की गांधी की इतिहास दृष्टि भी हिंसा, अहिंसा के बीच का द्वन्द्व पहचानती है।

शांति को परिभाषित नहीं करने के बावजूद भी इसकी प्राप्ति के लिए जो निरंतर प्रयत्न हो रहे हैं, वे प्रयत्न कहीं-न-कहीं हमें इस बात का अहसास दिलाते हैं कि आज हमे अगर सबसे ज्यादा किसी चीज की जरूरत है, तो वह हैं- शांति। आंतकवाद, जातिवाद, आरक्षण की मांग, लिंग-भेद, राजनैतिक युद्ध, नक्सलवाद, सेरोगेट मदर, भाषावाद, सेना, युद्ध, क्षेत्रवाद, नशा, भष्ट्राचार, चुनाव सशक्तीकरण, शिक्षा, आस्था, व्यापार, धर्म आदि के पीछे जो मानवीय प्ररेणा अथवा सोच काम करती है, उसका एक मात्र उद्देश्य शांति प्राप्ति ही है। यह एक कड़वा सच है, जो हमें स्वीकारना होगा। दरअसल, इन सबके पीछे कहीं-न-कहीं व्यक्तिगत या सामाजिक हित की भावना जुड़ी रहती है, जो हमें हमारे साध्य की बजाय साधन तक ही सीमित कर देती है। और, यहां शांति के साथ -साथ हमारी मानवता भी गौण हो जाती है। 1930 में कीन्ज ने कहा था: ‘‘अभी तो आने वाले कम से कम सौ साल तक हमें अपने आप को और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है वह गलत है और जो गलत है वह उचित है, क्योंकि जो गलत है वह उपयोगी है- जो उचित है वह नहीं। अभी हमें कुछ अर्से तक लोभ, सूदखोरी और एहतियात की पूजा करनी होगी क्योंकि इन्हीं की सहायता से हम आर्थिक आवश्यकताओं के अंधरे रास्ते से निकल कर रोशनी में कदम रख सकेंगे।’’ कीन्ज के इस वाक्तव्य के 80 साल बाद भी हम गलत, उपयोगी और उचित की स्थिति समझ नहीं पाए हैं।

मानव प्राणी यह सच्चाई (डार्विन का सिद्धांत) जानते हुए भी यदि एक लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते हैं, तो इस बीच हुई चूक को पकड़कर, उसे सुलझाने के बाद ही वे लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकते हैं। वर्तमान समय में मानव की परछाई मात्र बनकर हरदम साथ रहने वाली अशांति व हिंसा से भरे इस समाज में शांति की बात करना व्यर्थ प्रतीत होता है। लेकिन, इसी अशांति में हमें शांति की एक किरण भी दिखती है, जो सतत हमे हमारे साध्य की ओर बढ़ने में मददगार रहती है, ताकि हम सहज जीवन जी सकें।

लगातार सभी जगह व क्षेत्रों में एक अधूरा सिद्धांत जो चलता है, वह है-भारतीय परिप्रेक्ष्य व पाश्चात्य परिपे्रक्ष्य। इन दोनों ही सिद्धांतों की यदि हम व्याख्या करें, तो सम्भवतः हम कुछ हद तक शांति को भी व्याख्यित कर पाएंगे। हम शांति को समझ सकें कि इससे पहले हमें एक बात और अधूरा कर देती है कि भारतीय दृष्टिकोण/परिप्रेक्ष्य में क्या हम श्रीलंका, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान, बंगाल आदि को बाहर रखें या भारतीय दृष्टिकोण में समाहित कर लें। इस प्रश्न का उत्तर हम भविष्य के गर्भ में ही छोड़ते हैं। क्योंकि, यह सरल नहीं है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में शांति को समझना कोई छोटा काम नहीं है। शांति एक अखण्ड स्थिति है, जिसमें मानव जीवन से संबंधित प्रायः सभी पक्ष सम्मिलित हैं। चूंकि, भारतीय परम्परा में जीवन को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष-इन चार भागों में बांटा गया है। यहां धर्म द्वारा काम व अर्थ को नियंत्रण करने की जो परम्परा रही है, वह अन्य किसी सभ्यता व संस्कृति में नहीं मिलती। इस प्रकार जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है, जो शांति का ही पर्याय है। भारतीय परंपरा में अंतिम लक्ष्य मोक्ष है, अतः भौतिक संघर्ष स्वतः ही नहीं होते और शांति सहज रूप से प्राप्त होती है। भारतीय संस्कृति में सभी धर्म-सम्प्रदायों में शांति को मूल में रखा गया है।
पाश्चात्य देशों में शांति की अवधारणा को स्पष्ट करने से पहले जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित कामायनीकी कुछ पक्तियां ध्यातव्य है, जिससे संभवतः शांति को समझने में सहजता महसूस की जा सकती हैं-

‘‘हिमगिरि के उंतुग शिखर पर , बैठ शिला की शीतल छांह,
एक पुरूष, भीगे नयनों से देख, रहा था प्रलय प्रवाह।
नीचे जल था, ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,
एक तत्व की ही प्रधानता-कहो उसे जड़ या चेतन।।’’

 
जयशंकर प्रसाद ने एक ही तत्व को दो रूपों में बताया, अर्थात् नीचे जल है ऊपर बर्फ, फिर ऊपर जल। ठीक वैसे ही मूल भावना शांति है, परन्तु सुविधा के दृष्टिकोण से हमने शांति को भी बांटा। पाश्चात्य देशों में मांग की पूर्ति को ही शांति कहा गया है, अर्थात् वहां पर भौतिक पदार्थो की मांग तथा उनकी पूर्ति, शांति है। लेकिन, संसाधनों अर्थात मांग की पूर्ति की अपनी एक सीमा है, और परिणामस्वरूप संघर्ष उत्पन्न होता है। दरअसल, बडे़ रूप में हम देखें, तो दोनों ही क्षेत्रों में लक्ष्य एक है, और उसकी प्राप्ति के साधन अलग-अलग हैं।

विश्लेषणात्मक संदर्भ में शांति के व्यावहारिक पक्ष अवलोकनीय हैं, ध्यातव्य हैं। समाज में शांति स्थापना के साधनों में प्रमुख साधन है- सम्प्रेषण अर्थात् मीडिया। ‘‘प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक इवान इलिंच सम्प्रेषण की भूमिका में शिक्षा को महत्व देते हैं, और उनके अनुसार शिक्षा व्यवस्था के दो पाठ्यक्रम होते हैं। ऐ तो वह जो घोषित है जिसे सब जानते हैं पर एक वह जो गुप्त है, जो शिक्षा व्यवस्था की या स्कूल की प्रक्रिया में ही निहित है। इलिच कहते है कि यह दूसरा पाठ्यक्रम ही वास्तव में इतना प्रभावी होता है कि घोषित पाठ्यक्रम औपचारिक रूप से पढ़ाये जाते रहने के बावजूद निष्प्रभावी हो जाता है। एक प्रकार से यह वही बात है जिसे गांधी साधन और साध्य के एकत्व के सिद्धान्त के माध्यम से हमें समझाना चाहते हैं।’’

शांति के व्यवहारिक पक्ष की बात करें तो शांति की स्थापना में वही अड़चने आती हैं जो उसके सिद्धांत में आती हैं, अर्थात् जब हम शांति का एक सुनियोजित सिद्धांत तैयार नहीं कर सकते हैं, उसे व्यवहार में कैसे लागू करें? उसका माध्यम क्या हो? माध्यम के रूप में सम्प्रेषण (मीडिया) का नाम लिया जा सकता है। लेकिन, सम्पे्रषण अपने आप में एक अलग वि़धा है, उसका एक अपना शास्त्र है, गणित है। समाज में व्यापत परम्पराएं, संस्कृतियां आदि पर हमें नजर रखनी होगी कि किस तरह एक अच्छी परम्परा या संस्कृति का निर्माण हो सकता है। क्योंकि, अच्छी संस्कृति का अर्थ है ऐसी समाज व्यवस्था जिसमें प्रेम, दया, मैत्री, करूणा, अहिंसा, सत्य आदि जैसे आदर्श मूल्यों की भरमार हो। गांधी के लिए अहिंसा और प्रेम में कोई अंतर नहीं है 12 मई,1920 यंग इंडिया में वे लिखते है कि अपने विशुद्धतम रूप में अहिंसा का अर्थ अधिकतम प्रेम है।कुछ लोगों की यह राय है कि अहिंसा एक नकारात्मक शब्द है, अतः बेहतर होता कि गांधी सदैव प्रेम शब्द का ही प्रयोग करते है। निश्चित ही स्वयं गांधी को यह अधिक प्रिय होता लेकिन कुछ गलतफहमियों से बचने के लिए ही वह प्रेमकी जगह अहिंसा शब्द का प्रयोग करते हैं क्योंकि ‘‘कम से कम अंग्रेजी भाषा में प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव-प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है।’’ मोटेतौर पर मानव समाज में शांति को निम्न भागों में बांटकर समझा जा सकता है-

1.      मानसिक शांति:- आत्मसंतोष, सेवा, प्रेम, मोक्ष, संयम, अपरिग्रहण, करूणा एवं मैत्री आदि।

2.      भौतिक शांति:- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक शांति, मानवाधिकार, लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, न्याय एवं संसाधनों की पूर्ति आदि।

वैश्वीकरण के इस दौर में शांति लगभग संसाधनों की पूर्ति व मशीनीकरण पर निर्भर होती जा रही है। चूंकि, मानव स्वभाव परिवर्तनशील है। अतः उससे निर्मित सभी संज्ञाएं भी परिवर्तनशील होंगी। मसलन सभ्यता, संस्कृति, परम्पराएं, रीति-रिवाज और समाज के मूल्य। जब ये सारी चीजें परिवर्तनशील हैं तो बदलाव इनका अनिवार्य गुण है। फिर शांति की एक मात्र घोषित परिभाषा कैसे हो सकती है? जिन संज्ञाओं की परिभाषाएं घोषित हैं, उन्हें न्याय की जगह एक निश्चित जगह के मानव की सोच में परिणाम कहा जा सकता है। समाज के निरंतर परिवर्तनशील बनाने वाले पहलू-मीडिया, साहित्य, भाषा, परंपराएं, समाजिक रीति-रिवाज पर भी निर्भर होता है कि शांति क्या है? और यह समाज में कैसे कायम रह सकती है? विकास की जो प्रक्रिया मानव के प्रारम्भिक काल से लेकर वर्तमान समय तक रही,उसमें शांति ने अलग-अलग रूप धारण करके मानव का साथ सहजता से निभायी है। चूंकि, मानव एक बुद्धिसम्पन्न प्राणी है, अतः वह संज्ञाओं के साथ हमेशा परिवर्तनशील रहता है।

जहां तक शांति की खोज का प्रश्न हैं, शोध का प्रश्न है, तो शांति शोध किसी अन्य शोध की तरह किसी घटना अथवा परिस्थिति का अध्ययन मात्र नहीं है। शांति शोध में निश्चय ही घटनाओं या परिस्थितियों का अध्ययन किया जाता है। लेकिन, इसके अलावा कैसे हम उन परिस्थितियों या घटनाओं का सामना करें, इसकी भी समझ विकसित की जाती है। यह शांति शोध की अपनी एक अलग विशेषता है। भारतीय शांति चिंतक सुगतदास गुप्ता के अनुसार एक समस्या का अध्ययन यदि इस प्रकार किया जाए कि वह हमें उन तत्वों की समझ की ओर ले जाता है, जो अशांति के लिए जिम्मेदार है या व्यक्त और अव्यक्त, दोनों प्रकार की हिंसा से लड़ने के लिए कदम निर्धारित करने में सहयोग करता है।सामाजिक विकास को आगे बढ़ाता है। हिसां के राष्ट्रीय और अति प्राकृतिक संदर्भों में परिवर्तन लाता है। ऐसे कार्यों को शांति शोध के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

यह सत्य है कि जब तक अशांति के कारणों की पहचान नहीं हो जाती अथवा हिंसा पर नियंत्रण नहीं हो जाता, तब तक विकास के मार्ग अवरूद्ध रहते हैं। शांति शोध वैसे तो हर एक में जुड़ा हुआ प्रयास है, लेकिन यदि सुविधा की दृष्टि से विभाजित करें तो इसे मोटे रूप में दो भागों में बांटा जा सकता है –

§  शांति व युद्ध की समस्या

§  राजनैतिक संघर्ष

जहां तक प्रथम क्षेत्र का प्रश्न है, तो वह है- युद्ध व शांति की समस्या, जो मानव विकास के साथ सतत विद्यमान रही है। वर्तमान में युद्ध अब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में सतत विद्यमान है। गाल्टुंग इसके पीछे तर्क देते हैं कि गरीबी, कुपोषण, हिंसा और युद्ध में एक निकट संबंध है। गरीबी अशांति का प्रमुख करण है। और, यह किसी-न-किसी रूप में युद्ध या हिंसा के लिए आंतरिक रूप से जिम्मेदार है। इसलिए शांति शोध में इनका अध्ययन आवश्यक हो जाता है।जहां तक राजनैतिक संघषों का संबंध है, तो विभिन्न राष्ट्रों की सीमाओं, अस्त्र-शस्त्र, संसाधन व धर्म आदि के कारण संबंध बनते हैं। विश्व में सदैव कोई न कोई राजनैतिक संघर्ष चलता है। अतः शांति के शोध का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है, क्योंकि इसमें व्यक्ति से लेकर विश्व तक के तमाम क्षेत्रों में शोध किया जा सकता है।

शांति शोध को किसी भी दिशा में विकसित किया जा सकता है। जिस प्रकार अहिंसक व न्यायपूर्ण लक्ष्य के लिये साधन की पवित्रता का ध्यान रखाा जाना आवश्यक होता है, उसी प्रकार से शांति शोध के लिए भी यह शर्त लागू होती है। शांति शोध अहिंसक समाज परिवर्तन के लक्ष्य का अनुसरण करता है। और, इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये सतत जागरूकता, सुविचरित एवं योजनाबद्ध प्रयत्न, सामुदायिक, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में किये जाने आवश्यक हैं। यहां निश्चित ही शुद्ध साधनों का सिद्धांत इन प्रयत्नों में समाविष्ट है। अतएव शांति शोध का स्वरूप क्रियात्मक, प्रयोगात्मक, निर्देशात्मक तथा भविष्योनमुखी है।

शांति और शांति स्थापना को लेकर कई प्रयास वर्तमान में चल रहे हैं। चूंकि, आज मीडिया समाज का प्रमुख आधार माना जाने लगा है, अतः समाज परिवर्तन व आधार में मीडिया अपनी अहम भूमिका निभा रहा है। शांति के लक्ष्य और प्रमुखता को मीडिया के संदर्भ में भी समझना इसलिए आवश्यक हो जाता है। मीडिया सामाजीकरण का प्रमुख माध्यम है। संचार द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचती है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया हिंसक हो या अहिंसक, मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। शांति अध्ययन एवं शोध की दिशा का व्यवहारिक होना इसलिए भी आवश्यक हो जाता है कि इसकी विषय वस्तु का संकेन्द्रण ही मानव कल्याण है, लोकहित है।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ई. एफ. शुमाकर अपनी किताब स्माल इज ब्यूटिफुलमें लिखते हैं कि ‘‘हम दरअसल एक तत्वमीमांसीय रोग के शिकार हैं, इसलिए इस का इलाज भी तत्वमीमांसीय होना चाहिए।’’

No comments: