सरोकार की मीडिया

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Friday, November 25, 2011

अपराध और मीडिया

                                               अपराध और मीडिया

अपराध का इतिहास तो बहुत ही पुराना है। देखा जाय तो हर समाजशास्त्री ने अपराध को अपने-अपने नजरियें से परिभाषित किया है और अपराध को एक सामाजिक संबंध में बांध दिया है। जिसमें उसके नियम और कानून का पालन करना पड़ता है। भारतीय समाज में अपराध कई रुपों में व्याप्त है। यह बात सही है कि अपराध के लिए भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितयाँ उत्तरदायी हैं, जैसे-गरीबी, आर्थिक-पिछड़ापन, विषमता, सामाजिक व्यवस्था, निरक्षरता, अज्ञानता आदि, जिनसे विवश होकर लोग आपराधिक प्रवृत्ति का रास्ता चुन हैं। एक ओर अपराध जगत आकर्षित करता है और दुसरा अपराध जो घृणा, द्वेष, राजद्रोह, अलगाववाद, मजहवी उन्माद आदि से प्रेरित होता है। जिसके कारण आतंकवादी एवं हिंसक गतिविधियाँ बढ़ती हैं।
निजी चैनल के आगमन की बात कहें तो सबसे पहले निजी चैनलों में जी.टी.वी. का आगमन 1993 में हुआ, उसके बाद स्टार न्यूज आया।  निजी चैनलों ने अपने प्रसार कार्यक्रमों के निमार्ण में, सबसे पहले सामाजिक परिवेश को समझा और धीरे-धीरे अपने अनुरुप कार्यक्रमों का निमार्ण किया। दर्शकों को अपनी ओर खीचा, दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए नये-नये कार्यक्रमों का प्रसारण शुरु कर दिया, जिसे मानवीय रिश्तों के कार्यक्रम कहा जाता है। लेकिन अवमानवीय संबंधों को अनसुना कर दिया गया। नये कार्यक्रमों के साथ-साथ अपराध कार्यक्रमों का भी प्रसारण किया जाने लगा। जिसे अमानवीय कहा जा सकता है। लेकिन आज हर न्यूज चैनल अपराध की खबरों को महामंडित करके खुलेआम परोस रहे हैं। जो अपराधी नहीं हैं, उनको भी अपने कार्यक्रमों के द्वारा उन पर मुकद्मा चलावा देते हैं। और दर्शकों को लगता है, कि यही अपराधी होगा। क्योंकि दर्शक जब टेलीविजन कार्यक्रम देखता है तो जो दृश्य उसके समाने परोसे जाते हैं वो उसके चेतन मन में घर कर जाते हैं। चाहे वो सही हो या गलत,  वैसे दो प्रवृत्तियां समाज में काम करती हैं-
एक तत्यपरक रिर्पोटिंग और दूसरी प्रवृत्ति के रुप में पुरानी किसी घटना को जीवंत कर या नाटकीय रुपांतरण करके दिखाना। इस तरह के कार्यक्रमों में अपराध को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता है। अब तत्यपरक रिर्पोटिंग को देखा जाय तो आज तक, स्टार न्यूज और NDTV चेनलों में अपराध खबरे, सामाजिक प्रभावों के बारे में बिना सोचे दिखा दिया जाता है, कि अपराध आम जन-जीवन के लिए समस्या अंग हो। आज साधारण और असाधारण खबरों में फर्क ही महसूस नहीं हो पा रहा है। कौन खबर सामान्य है? और कौन असामान्य है? ये खबरियां चैनल अपराध को सकारात्मक रुप में पेस कर रहे हैं। अपराधी को किसी ग्रुप से जोड़कर, प्रचार-प्रसार किया जाता है। जिससे अपराधियों को और मद्द मिल रही है। अपराधी के व्यवहार को रोमांटिक रुप में पेश किया जा रहा है। अपराध के बारे में तो बताया जाता है लेकिन अपराधी की गिरफ्तारी को नहीं बताया जाता। आज अपराधियों को ताकतवर रुप, समाज पर तीव्रगति से असर करता है। अपराध की खबरे व्यक्तिगत न होकर सामाजिक होती है। अपराधिक कार्यक्रमों को देखा जाए तो सभी चैनल का यह एक अभिन्न अंग बन चुका हैं जो चैनल के लिए ज्यादा-से-ज्यादा टी.आर.पी. बढ़ाने के चक्कर में अचार संहिता को भी ताक पर रख दिया जाता है।
 यह बात सही है कि सामाजिक सरोकार नैतिक मान्यताओं के साथ जुड़ा हुआ है। सभी प्रकार के समाजों में कुछ व्यक्ति समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार प्रतिमानों का उल्लंघन करते हैं, जिसमें अपराध का प्रतिमान नजर आता है। दुनिया को एक नजर देखा जाए तो पूरे विश्व में किसी-न-किसी रूप में अपराध देखने को मिलता है। भारत में टेलीविजन के आगमन होना और समाज के लिए शिक्षा, सूचना और मनोरंजन के रूप में कार्यक्रमों का निर्माण करना और समाज को एक नई दिशा के रूप अहम भूमिका का निवर्हन करता है।
समाज में घटित होने वाली घटनाओं को दूरदर्शन पर ‘आँखों देखी’ का एक कार्यक्रम में प्रस्तुत किया जाता रहा, लेकिन जैसे ही दूरदर्शन का एकाधिकार समाप्त हुआ और टेलीविजन की दुनिया में निजी चैनलों का आगमन होने तथा वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण ने हर चैनलों को अपने मुनाफे कमाने का एक रास्ता खोल दिया। इसके साथ-साथ अधिक-से-अधिक टी.आर.पी. को बढ़ाने के लिए आपराधिक कार्यक्रमों का बोलबाला होने लगा। अमेरिकन ‘मोस्ट वाटेड’ कार्यक्रम के तर्ज पर सुहेव इलियासी ने इंडियाज मोस्ट वांटेड कार्यक्रम को चर्चित कर दिया। इस कार्यक्रम ने अनेक अपराधी पकड़वाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। निजी चैनलों में क्राइम शो को लेकर सभी चैनलों में एक होड़-सी मच गयी और क्राइम शो के आधार पर हर समाचार निर्मित किये जाने लगे हैं। अपने शो को चलाने के लिए अपने विषय का चुनाव करने वाले NDTV ने FIR शुरू किया तो वहीं आज तक ने (जुर्म) और जी न्यूज ने (क्राइम फाइल) और (रेड एलर्ट) स्टार न्यूज ने शुरू किया। 2005 तक आते-आते क्राइम शो का बाजार इतना फैल गया की अन्य समाचारों की अपेक्षा अपराध कार्यक्रमों की टी.आर.पी. अधिक होने लगी, जिस कारण से अपराध कार्यक्रमों से अधिक-से-अधिक विज्ञापन मिलने लगे।
क्राइम शो के निर्धारण का समय लगभग 11 बजे रात को किया गया, जिसे आज (टी.आर.पी.) की दृष्टि से भी दर्शक की संख्या कम नहीं होती है। क्राइम घटनाओं में मसाला लगाकर इस तरह परोसा जाने लगा कि दर्शक कार्यक्रमों से बंधे रह जाते हैं। हर चैनल अधिक- से-अधिक टी.आर.पी. बटोरने के चक्कर में पड़ गया है व अपराध और सामाजिक नैतिक मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं रह गया है। हर ख़बरियां चैनल ही टी.आर.पी. की लूट-घसोट में पड़ा है। एक-दूसरे से प्रतिस्पद्र्धा है। सभी तरह से समझौता करके चैनल नंबर वन होना चाह रहे हैं। देखा जाय तो टेलीविजन पर सेक्स और अपराध का आधारित कार्यक्रमों की भरमार लगी है।
आज समाज जागरूक हो रहा है। जब ‘इण्डियाज मोस्ट वांटेड’ क्राइम शो शुरू किया गया था तो लगभग छियासी (86 अपराधी पकड़े गये थे। कार्यक्रमों के उपलब्धि के रूप में माना जाता है। जैसे जालसाजी, ठगी, बेईमानी, धोखेबाजी, की वारदातों से समाज का हर व्यक्ति जागरूक हुआ है। आज देखा जाय तो 2011 में हर चैनल आपराधिक कार्यक्रमों समय जरूर दे रहे हैं। आज दर्शक को एक उपभोक्ता के रूप में देखा जा रहा है। फिर भी सामाजिक जन-जीवन को ध्यान में रखकर ही कार्यक्रमों का निर्माण किया जाता है। इससे दर्शकों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। अगर समाज का अध्ययन किया जाए तो जितनी भी विचारधारा होती हैं, वे किसी के लिए सकारात्मक होती है तो किसी के लिए नाकारात्मक। उसी तरह से दर्शक में कुछ में नकारात्मक तो कुछ में सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है। यह कारण सर्वमान्य हो सकते हैं कि समाज में अगर अपराध नहीं होता, तो अपराध खबरों के कार्यक्रमों का निर्माण खबरियां चैनलों द्वारा नहीं किया जाता। इससे समझ में आ रहा है कि समाज में भी हर कोई आपराधिक कार्यक्रमों से कहीं-न-कहीं प्र्रभावित तो जरूर होता है।
अब बात यहां आकर रूक जाती है कि अपराधिक खबरों के प्रसारण से समाज में कितना सकारात्मक और कितना नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके लिए एक शोध की आवश्यकता महसूस होती है। परंतु संपूर्ण कार्यक्रम के प्रसारण करने का ढंग देखा जाए तो अपराधिक प्रवत्तियों को कहीं-न-कहीं बढ़ावा देती नजर आती है। क्योंकि समाज जितना अच्छाई को स्वीकार करता है उसकी तीव्र गति से उसकी बुराईयों को स्वीकार कर लेता है। इस आलोच्य में कहा जाए तो जब से अपराधिक कार्यक्रमों की बाढ़-सी आई है तब से समाज में अपराध बढ़े हैं कम नहीं हुए, और इन अपराधों की संख्या में इजाफा का जिम्मेवार उन अपराधियों के साथ-साथ मीडिया भी है जिसे मीडिया माने या न माने पर जिम्मेवारी तो उसको लेनी ही पडे़गी। क्योंकि मीडिया, अपराध को जिस तरह बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, और समझता है कि हमारा कम तो हो गया। हां काम तो हो गया, समाज को उस अपराध से रू-ब-रू कराने का, जिनसे अभी तक समाज अनभिज्ञ था। इस तरह अपराधों को यदि मीडिया दिखाता रहा तो समाज में अपराधियों की बढ़ोत्तरी को सरकार तो क्या खुद मीडिया भी नहीं रोक पायेगा। वक्त रहते संभलने की जरूरत है या टी.आर.पी. के खेल के चलते, समाज में अपराध को बढ़ाने की, यह मीडिया और समाज भलीभंति सोच सकते हैं। सोचों, आखिरी सोच आपकी है और समाज हमारा।

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