मीडिया चरित्र और बाज़ारवाद
मीडिया का मूल उद्देश्य सूचना देना शिक्षित करना तथा मनोरंजन करना है। इन तीन उद्देश्यों में सम्पूर्ण मीडिया का सार तत्व समाहित किया जा सकता है अपनी बहुमुखी प्रवित्तयों के कारण पत्रकारिता व्यक्ति और समाज के जीवन को गहराई की चिन्तवृत्तियों, अनुभुतियों और आत्मा से साक्षात्कार करती हुई मानव मात्र को जानने की कला सिखाती है। मीडिया संचार का सामाजिक माध्यम है वह जन-समान्य की भावनाओं को अभिव्यक्ति देता है। समाज को कोई पक्ष हो, राष्ट्र की कोई भी चिन्ता हो, वह मीडिया के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाती है जन-मन के विचार भी इसी माध्यम से सामने आते हैं।
भारतीय मीडिया सामाजिक, धार्मिक रूढियों-आडम्बरों के खिलाफ निरंतर संघर्ष करता रहा है। लोकहित, लोक-कल्याण उसका प्रमुख पक्ष रहा है। वह जनता को शिक्षित करने से लेकर उसे सचेत करने व सच-झूठ की वास्तविकता को सामने लाने का सूत्र धार रहा है।
स्वतन्त्रता के पश्चात मीडिया के मानक बिन्दु यही रहे पर, उनके संदर्भ व अर्थ निरंतर बदलते रहे। बाजार की अंधी दौड ने सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया, जिससे खासकर मीडिया सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है।
1980 के दशक के आरंभ में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने ढेर-सारी बहुराष्ट्रीय उपभोक्ता सामग्रियों के लिए देश के बाजारों के दरवाजें खोल दिए और संबंधित व्यापारिक प्रतिष्ठानों को अपने उत्पादों के बारे में सूचनाएं देने अपने मार्कानामों की छवि बनाने और उनका उपभोक्ता आधार बढ़ाने के लिए प्रसार माध्यमों की दर थी। सन् 1976 में व्यवसायिक हुआ टेलीविजन सबसे सशक्त माध्यम था जिसका इस्तेमाल व्यापार जगत ने उपभोक्ताओं तक पहुंचने में किया, दूसरा माध्यम भी चमकीले चिकने पत्रों पर छपने वाली नई पत्रिकाएं जो नए उत्पादों को विज्ञापित करने के लिए रंगीन माध्यम उपलब्ध कराने को वेताब थी। इन जुड़वा चुनौतियों का सामना करने के लिए अख़बारों के मालिकों ने अपने प्रतिष्ठानों का काया कल्प कर दिया और अपने-अपने अखबारों की प्रकाशन सामग्री को दूसरे माध्यमों के मुकाबले ज्यादा प्रतिस्पर्धी बना दिया। उनके यह सब करने का उद्देश्य न सिर्फ अपने अस्तित्व को बनाए रखना था, बल्कि नए माहौल में उपलब्ध इस अवसर को भुनाना भी था। उनकी मंशा बाजार में अपनी सबसे अलग हैसियत का उपयोग करके व्यापारिक निगमों से अधिक से अधिक विज्ञापन राजस्व जुटाने की थी।
निगमीकरण और उसके फलस्वरूप अख़बार मालिकों के दृष्ठिकोण में आए बदलाव से मुनाफा तो कई गुना बढ़ गया है लेकिन अब अख़बार बजाय जनमत तैयार करने के मंच के विज्ञापनदाताओं के वाहन बन गए हैं। 1990 से 1995 के बीच अख़बारों को मिलने वाले विज्ञापनों में तीन गुने की वृद्धि हुई और विज्ञापनों से आने वाला राजस्व आठ सौ करोड़ रूपये से बढ़कर 26 सौ करोड़ रूपये तक जा पहुँचा, लेकिन इसी के साथ एक चीज का जबर्दस्त क्षरण हुआ जिसे हम पत्रकारीय नैतिकता कहते थे। राजनीतिक सिद्धान्तों की समझ पैदा करने या घटनाओं की व्याख्या करने की प्रतिबद्धता नहीं रह गयी। कुल मिला कर बाजारवाद का नतीजा यह हुआ कि संपादकों की भूमिका घटती चली गयी और मालिकों की दखलंदाजी बढ़ती गयी, जो आम जनता के प्रति नहीं, सिर्फ, शेयर धारको या विज्ञापनदाताओं के प्रति जवाबदेह होते है।
आधुनिक अखबार, अखबार नहीं, विभिन्न स्वार्थो के होल्डाल (टैबलायडीकारण) बन कर रह गये हैं। आजकल बड़ा और सफल दैनिक निकालने का सूत्र हैं- फैशन और डिजाइनिंग पर, खान-पान केन्द्रों पर, बडे़-बडे़ लेख छापना फिल्मी अ़फवाहें, स्त्रियों की अर्द्धनग्न अश्लील तस्वीरें, ताजा-तरीन फिल्मों, व्यापारिक गातिविधियों, खेल गातिविधियों, पूंजी-बाजार के सूचकांक और यात्रा स्थलों के बारे में छापना, इनमें से बहुत सारे लेख संबंधित व्यापारिक घरानों, व्यक्तियों, मालिकों और सितारों पर मुफ़्त के विज्ञापन होते हैं।
विज्ञापनदाता अपने उत्पादों के बारे में लेखों की मांग करने लगे हैं। नतीजतन ‘एडवरटोरियल’ नाम की अभूतपूर्व परिघटना का उद्य हुआ है। साफ है कि समाचार पत्रों की विज्ञापनों पर निर्भरता अत्याधिक बढ़ गयी हैं। नतीजन अखबारों पर विज्ञापनदाताओं का दबाव काफी बढ़ गया है। वे न सिर्फ अपनी शर्ते थोप रहे हैं बल्कि कुल मिला कर समाचारपत्र की अंतर्वस्तु को भी प्रभावित कर रहे हैं। अधिकांश सफल समाचारपत्रों में आर्थिक उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण के खिलाफ समाचार-टिप्पणियों का प्रकाशन संभव नहीं है। समाचार पत्रों या चैनलों में कारपोरेट भ्रष्टाचार और अपराधों से जुड़ी खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। समाचारपत्रों या मीडिया के कारपोरेटीकरण का एक और नतीजा यह हुआ है कि निवेशकों और खास करके विज्ञापनदाता के दबाव में अख़बार और चैनलों की अंतर्वस्तु में इस तरह से परिवर्तन किया गया है, कि वह नागरिकों के बजाय उपभोक्ताओं की जरूरत को पूरा करें क्योंकि, विज्ञापनदाता को उपभोक्ता चाहिए न कि पाठक। और जहाँ तक राजनीतिक खबरों का सवाल हैं, मीडिया समाज राजनीतिक पार्टियों और उनके नेताओं की सत्ता की आपाधापी में की जाने वाली बयानबाजियों को निष्पक्षता से बराबर की जगह देते है और विभिन्न मुद्दों पर सरकारी विज्ञप्तियों की खब़रे छापते हैं। मुद्दे उठानें, सरकारी कार्यक्रमों योजनाओं की सफलता उनकी नाकामी या उनसे उठने वाली समस्याओं को रेखाकित करने की कोशिश नहीं की जाती, अब मीडिया सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक सुधारों को लेकर जनजागरण अभियान चलाने जनमत तैयार करने के धर्मयोद्धा नहीं रहे जैसा कि 1947 के आसपास के दौर में था जब उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ राष्ट्रवादी आंदोलन में हिस्सा लिया था या किसी हद तक 1975 के राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया था। राजनीतिक दृष्टि से टकराववादी, यथार्थवादी रूझान चल रहा है जबकि 1947 में सत्ता हस्तांतरण के बाद मीडिया कुटीर-उद्योगों से बडे उद्योगों में बदल गयी और पत्रकारिता पेरो की जगह व्यावसायिक कैरियर बन गई। प्रेस पर आपात काल के दौरान लगाई गई सेंसरशिप की प्रतिक्रिया में खोजी पत्रकारिता का चलन चला उस समय राजनीतिक भ्रष्टाचार पसंदीदा विषय था। उन दिनों दहेज- हत्याओं, भुखमरी कच्ची शराब पीकर होने वाली मौतों और ऐसी ही दूसरी सनसनी ख़ेज ख़बरे छापना अख़बारों के लिए फायदे का सौदा था और पाठक भी इस तरह की ख़बरें पढ़ना चाहते थे। चूंकि अखबार समस्याओं के समाधान सुझाने में अक्षम थे। जिनको वह उजागर कर रहे थे इसलिए मामूली अंशों में ही सही, लेकिन जनता और पत्रकार-बिरादरी दोनों के मन में संदेश और निराशा पैदा हो गई थी। खोजी पत्रकारिता को छोड़ कर वह नया रवैया अपनाया गया जो कि उदारीकरण की प्रक्रिया से मेल खाता था आज की तारीख में पत्रकार सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा बन गये हैं और मीडिया के मालिकान सत्ता के स्वयंभू दलाल बन गए हैं और भष्ट्र राजनीतिज्ञयों की कृपा दृष्टि चाहते है।
व्यापारीकरण की बाढ़ ने प्रेस की नैतिकता, उसकी प्रकृति और उसके आचरण में ऐतिहासिक बदलाव लाया है, सारे के सारे प्रसार माध्यमों में मुद्दों की जगह व्याक्ति-पूंजी हावी हो गयी है। मीडिया का सारा ढ़ांचा अभिजात है और पत्रकारों और जनता की ओर से जनमत तैयार करने का ठेका लिए लोगों, विशेषज्ञों को विशेषाधिकार दिलाता है, हाल फिलहाल में उभरकर आये नाम से खबरें आलेख छापने के चलन ने इस रूझान को और भी बढ़ावा दिया है। स्वयं सेवी, पत्रकार नामचीन शिक्षा, विद, वैज्ञानिक और लेखक भी अब इस खेल में शामिल हो गये है किया कुछ खोए वह कैरियर के लिहाज से अपने सामाजिक-पर्यावरणी आंदोलनों से काफी कुछ हासिल करते है। इन आन्दोलनो से संबंधित लोगों के लिए इसके नतीजे त्रासद होते हैं, क्योंकि मीडिया उन आन्दोलनों के सूत्रधारों के महिमामंडन के क्रम में उनसे जुडे़ मुद्दों की चर्चा करते है इस तरह के मुद्दों को लेकर संघर्ष करने वाले लोगों की भागीदारी और उनके महत्व को रेखांकित करने की कोशिश नदारद होती है आम तौर पर मामले को उठाने के बाद मुद्दों को दूसरी ख़बरों की बाढ़ में डूब जाने और भूला दिये जाने के लिए छोड़ दिया जाता है, आमतौर पर शोहरत की बाढ़ में बहकर आंदोलनों के प्रणेता (पत्रकार) यह गलतफहमी पाल बैठते है कि वह उद्देश्य की बड़ी सेवा कर रहे हैं। अलबत्ता कई बार होता यह है कि इससे बाजार में उनकी कीमत बढ़ जाती लेकिन यथास्थिति बनी रहती है लाखों तबाह-बर्बाद हो जाते है और उनकी आवाज कहीं नहीं पहुंचाती। पत्रकार भाडे़ के बास बन गए हैं, सच्चाई तटस्थता और जनता के बड़े तबके की अनावश्यक पीड़ा की चर्चा यों राह चलते कभी-कभार कर दी जाती है। ऐसे में आम नागरिक के मन में मीडिया की विश्वसनीता काफी गिर गई है जनता महसूस करने लगी है कि न सिर्फ राजनीतिज्ञ चुनावों में वोट मांगने के लिए बरसाती मेढ़कों की तरह बाहर आते और फिर परिदृश्य से अतंध्पति हो जाते हैं बल्कि पत्रकार भी किसी आपदा, किसी नरसंहार के बाद आते और उनका भला करने के बजाय बुत करके चले जाते हैं, दुबारा न लौटने के लिए दरअसल, अगर आपदाग्रस्त लोग पत्राकारों के सामने मुखर होकर अपनी व्यथा-कथा कहते है तो उनके जाने के बाद उनको स्थानीय सत्ताधरियों का कोपभाजन ही बनना पड़ता है यही कारण है कि लोग पत्रकारों के सामने मुहं खोलने से कतराते है। ऐसे में एैसा प्रतीत होता है कि आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी कहीं खो गई है। आश्चर्य नहीं कि आज मुख्य धारा के मीडिया में गरीबों के सवाल और मुद्दों के साथ-साथ उनके संघर्षों की खबरें गायब होती जा रही है। दूसरी ओर संपादकीय और पत्रकरीय मामलों में प्रबंधन की बढ़ती दखलंदाजी का नतीजा यह है कि पत्रकार यहाँ तक कि संपादक भी निश्चित अवधि के लिए अनुबंध पर आने लगे है। जो प्रबंधन, यानी मालिक की शर्तो पर चलना, उनके प्रति वफादार रहना, उनके विचारों वर्तावों के अनुरूप पेश आना उनकी सेवा-शर्तो का अनिवार्य हिस्सा हो गया है। बड़े अख़बार घराने रिपोर्टर और फोटोग्राफर के रूप में अस्थाई मज़दूर रखने लगे है कई जगहों कम वेतन पाने वाले प्रशिक्षु पत्रकारों को बरसों स्थाई नौकरी और तरीके का पद नहीं दिया जाता और उनसे मुख्य उपसंपादकों, समाचार संपादकों और सहायक संपादकों का काम लिया जाता है। एक नया चलन और देखने में आ रहा है कि अखबारी प्रतिष्ठानों में बिल्कुल नई उम्र के लड़के/लड़की भर्ती किए जा रहें है और उनसे नए तरीके की रिपोर्टिंग कराई जाती है और उनकी लाई ख़बरों को विशेष तरजीह दी जाती है, यह चलन अख़बारों में आम हो गया है कि वह नौजवानों से संबंधित सामग्री देकर उनकी जीवन शैली को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
इन प्रतिष्ठानों में बैठे युवा रिपोर्टरों और समाचार संपादकों को देशे के इतिहास और उसके सामाजिक यथार्थ का कोई ज्ञान नहीं हैं लेकिन यह फैशनशों की रिपोर्ट लिखने नामचीन हस्तियों के साक्षात्कार करने उनके व्यक्तित्व लिखने विश्वविद्यालय महाविद्यालय परिसरों की खबरें देने और शहर के नए-नए रेस्तराओं की जानकरी देने में पूरी तरह सक्षम होते हैं, उनकी भाषा फिसलन भरी और गलत होती है और आजकल के अख़बारों की प्रूफ रीडिंग का स्तर बहुत ही खराब है इन सबसे उस पीढ़ी का रवैया स्पष्ट झलकता है जो आसय कमाई की दीवानी है। कपड़ा-नीति जैसे विषयों पर डूबकर लिखने के लिए आवश्यक गंभीरता और अनुभाव का नितांत अभाव है फिर भी वह मीडिया प्रतिष्ठानों की मुनाफा-कमाओं नीति के साथ आसानी से संतुलन बना लिए हैं मुक्त बाजार के दौर में किस तरह कॉरपोरिट धराने मीडिया और लोकतंत्र को चला रहे है इसकी बानगी हमें पिछले लोकसभा और विधान सभा चुनाव में मिल चुकी है।
व्यावसायिक प्रतिस्पर्था के इस युग में कहीं न कहीं मीडिया उद्देश्य से विचलित होता दिखाई दे रहा है। भारत में पत्रकारिता की संकल्पना जनहित को को मूल में रखकर की गई थी स्वतंत्रता संग्राम में मीडिया की भूमिका की गहन छानबीन से इस बात की पुष्टि होती है कि पत्रकारिता किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति से परे भारत की आजादी और उसके नवनिर्माण को समर्पित थी। इसी वजह से तत्कालीन समाचार पत्र-पत्रिकाओं की बागडोर स्वतंत्रता सेनानियों के हाथ में थी। परंतु आज पत्रकारिता का परिदृष्य पूरी तरह से बदल चुका है यह मिशन से प्रोफेशन हो चुकी है। प्रिन्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों ही कारपोरेट कल्चर में पूरी तरह से रंग चुके हैं। समाचार के तत्वों में प्रमुख है सत्यता और विश्सनीयता। इससे समझौता करने का मतलब है कि मीडिया अपने मूल कर्तव्यों से विमुख हो रहा है। मीडिया ही एकमात्र ऐसा स्तंभ है जिसकी जन-जन में साख और विश्सनीयता बरकरार है। लेकिन जब जन पर धन को वरीयता दी जाएगी तो लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के नाम से अलंकृत मीडिया को भी सवालिया कठघरे में खड़ा होना पड़ेगा।
देश में मीडिया के भ्रमभगं का दौर शुरू हो चुका है। सवाल उठने लगे है। कि मुख्य धारा के मीडिया की संरचना क्या है। वह किसके हित और कब्जे में है। प्रभावशाली लोग कैसे उसका इस्तेमाल करते है। कोई खबर पाठकों या दर्शकों तक किस तरह पहुँचती है। एक तरफ से कॉरपोरेट मीडिया की पहचान स्वार्थी और मुनाफाखोर के तौर पर होने लगी हैं, ये बात भी छुपी नहीं रही कि मिथकीय पेशेगत पवित्रता की आड़ में यहां बहुत कुछ होता रहा है।
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