मीडिया और मानवाधिकारों का हनन
टेलीविजन समाचारों के आने के बाद समाचार के क्षेत्र में क्रांति आई है। जल्दी और ताजा खबरों की मांग बढ़ी है। फोटो का महत्त्व बढ़ा है। स्वयं को देखने सजने, संवरने और ज्यादा से ज्यादा मुखर होने की प्रवृत्ति में इजाफा हुआ है। व्यक्तिवाद में वृद्धि हुई है। किंतु इसके साथ साथ खबरों को छिपाने या गलत खबर देने की प्रवृत्ति में भी वृद्धि हुई है। खासकर मानवाधिकारों के हनन की खबरों को छिपाने के मामले में मीडिया खासकर टीवी सबसे आगे है। चूँकि मानवाधिकार का संदर्भ किसी व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा से सम्बद्ध है। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948 विश्व की एक महत्त्वपूर्ण घटना है और संयुक्त राष्ट्रसंघ की महान उपलब्धि है।
मानवाधिकार स्थैतिक नहीं है। ये गतिशील है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के विकास कार्यक्रम के तहत् हर वर्ष प्रकाशित मानव विकास रिपोर्ट में नए आयामों की झलक मिलती है। वे सब तत्व जो मानव के विकास के मार्ग में बाधक हैं वहां मानवाधिकारों का उल्लंघन है, रोजगार भी उतना ही बड़ा मानवाधिकार है जितना जीने का अधिकार है। मंहगाई भी मानवाधिकार का हनन है, आबादी की विस्फोटक बाढ़ मानवाधिकार का हनन है, प्रदूषित पर्यावरण मानवाधिकार पर अतिक्रमण है।
भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन अक्टूबर 1993 में हुआ। राष्ट्रीय तथा राज्य मानवाधिकार आयोगों को विशेष रूप से उन मानवाधिकारों की रक्षा का भार सौपा गया है जिनका पुलिस तथा सुरक्षा बलों द्वार अतिक्रमण किया जाता है, यह पर्याप्त नहीं है वास्तव में मानवधिकार आयोग को दण्ड तथा राहत देने का भी अधिकार दिया जाना चाहिए।
मानवधिकार आयोग के अब तक जितने अध्यक्ष रह चुके है उन सबने ज्यादा अधिकारों की मांग की है। मानवाधिकारों की मौजूदा परिभाषा में व्यक्ति अधिकारों की मांग की है। मानवाधिकारों की मौजूदा परिभाषा में व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता और गरिमा से जुड़े संवैधानिक अधिकारों में वे अधिकार भी जोड़े जाए जो उन अतंरराष्ट्रीय संधियों व परम्पराओं में किए गये है जिनमें भारत का एक पक्षकार है। साथ ही सरकार को आयोग की सिफारिशें भी मानना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पश्चिमी संगठनों का एकतरफा पक्षपातपूर्ण नजरिया रहता है। एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित सभी संगठन केवल अपराधियों एवं आतंकवादियों के मानवाधिकारों को बात करते हैं। लेकिन आतंकवादियों के हाथों मारे गए निर्दोष लोगों के बारे में कुछ नहीं कहते। भारत में जम्मू-कश्मीर में मारे गए निर्दोष लोगों की बात एमनेस्टी इंटरनेशनल नहीं करता है। पाश्चात्य देशों में मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट इतनी ज्यादा एकतरफा और पूर्वाग्रह ग्रस्त होती है कि उनकी नीति और उद्देश्यों पर शक होने लगता है।
जर्मनी यदि भारत के कालीन उद्योग में बच्चों के अधिकार का सवाल उठाता है तो इसके पीछे उसका व्यावसायिक हित छिपा दिखाई देता है। अमेरिका भी यदि चीन में किसी घटना के बहाने मानवाधिकार का प्रश्न उठाता है तो उसके पीछे मकसद वहां की सरकार और उसकी व्यवस्था को बदनाम करना होता है। वास्तव में मानवाधिकार का पूरी तरह से राजनीतिकरण हो गया है। एमनेस्टी इंटरनेशनल के ब्रिटिश विभाग के एक पत्र में मुखपृष्ट पर इस मानवाधिकार संघ ने कश्मीरी महिलाओं पर सुरक्षा बलों द्वारा किए जाने वाले अत्याचार बताने के नाम पर एक दक्षिण भारतीय स्त्री का चित्र दे दिया था। ऐसे कई उदाहरण है जिनमें इन संगठनों का पक्षपातपूर्ण रवैया रहा है।
प्रत्येक व्यक्ति को ज्ञान, सूचना और बौद्धिक संतुष्टि पाने का मानवाधिकार है। इसके लिए मीडिया उसका उपयुक्त एवं स्वतंत्र साधन है। मीडिया लोकतंत्र की आत्मा है, राजनैतिक और सामाजिक संवाद का प्राण तत्व है। यह स्वतंत्रता का प्रतीक है। जन-जन की आवाज है, लेकिन मीडिया यह तभी कर सकता है, जब उस पर सरकारी अंकुश न हो, उसकी आवाज दबाई न जाए। जैसे-जैसे सरकार राजनैतिक, संगठन अपनी मर्यादाओं और नियमों के बाहर जाकर फायदा उठाने की कोशिश करंगे, उतना ही मीडिया पर दबाव और हमले बढ़ते जाएंगे। लोकतंत्र के आधारों में से मीडिया एक महत्त्वपूर्ण आधार स्तम्भ है। परंतु विश्व में मीडिया के ऊपर हमले बढ़ते जा रहे हैं। मीडियाकर्मी की हत्याएं बढ़ती जा रही हैं। इंटरनेशनल प्रेस इंस्ट्यूट ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पत्रकारों का पूरे विश्व में सरकारी दमन हो रहा है। पत्रकारों पर हमले की घटनाएं विश्व के अधिकांश देशों में हो रही हैं। इनमें कई विकासशील तथा पूर्वी यूरोप के देश शामिल है। मीडिया को दबाने की कोशिश पश्चिमी देशों में भी हो रही है। विश्व के विभिन्न देशों में पिछले वर्षों में कई पत्रकारों की हत्याएं हुई।
संयुक्त राष्ट्रसंघ के अधिकांश देशों में से कुछ ही मीडिया की स्वतंत्रता का गंभीरतापूर्वक सम्मान करते है। सत्तारूढ़ व्यक्तियों की आलोचना करने वाले पत्रकारों का दमन किया जाता है। युनेस्को के महानिदेशक ने कहा कि सच्चाई बताने वालों को अक्सर राजनैतिक, जातीय, धार्मिक, असहिष्णुता का कोपभाजन बनना पड़ता है। चीन, इरान, म्यांमार, जाम्बिया, इण्डोनेशिया, मैक्सिको, सर्बिया टयूनीशिया और यमन में हालात खराब है। उगांडा तथा अलजीरिया में मीडिया के विरूद्ध हिंसा की घटनाएं इस्लामी विद्रोहियों तथा सरकारी सैनिकों दोनों ही पक्ष से हुई है। इसके कारण कई पत्रकारों को देश छोड़कर भागना पड़ा है। रूस में भी पत्रकारों के लिए काम करना कठिन रहा है।
संपादकों को रासुका में बंद रखना तानाशाही मानसिकता के सूचक है। कोयंबटूर में राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं ने पत्रकारों को चाकू मारे। कश्मीर घाटी में पत्रकारों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। वहाँ पत्रकारों को सरकार तथा आतंकवादियों दोनों का शिकार होना पड़ता है। महाराष्ट्र से प्रकाशित समाचार पत्रों के कार्यालयों पर शिवसैनिकों ने कई बार हमले किए।
तमिलनाडू में पत्रकारों के खिलाफ झूठे मुकदमें लगाए गए। तहलका डाट काम के पत्रकारों पर भी मुकदमें दायर किए जा रहे है। नागालैण्ड में पुलिसकर्मियों ने पत्रकारों पर हमला किया। मानवाधिकार आयोग ने इसे घोर आपत्तिजनक माना है। शिवानी हत्याकाण्ड में एक आई.पी.एस. अधिकारी पर मुकदमा चल रहा है। बहुजन समाज पार्टी के सुप्रिमों भी पत्रकारों को पीट चुके है। फिल्मों में काम करने वाले कलाकार भी कई बार पत्रकारों पर हमला बोल देते है। राजनैतिक लोगों के अपराधियों से संबंध होते है और उनके माध्यम से पत्रकारों को डराया धमकाया जाता है।
उपर्युक्त सभी घटनाएँ यह परिलक्षित करती है कि मीडिया की स्वतंत्रता पर खतरा और दबाव बढ़ रहा है उस पर नियंत्रण आवश्यक है। लोकतंत्र के लिए विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं खबरपालिका चारों स्तंभ महत्त्वपूर्ण है। भारत के संविधान में विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के संबंध में स्पष्ट प्रावधान है परंतु मीडिया के संबंध में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। न तो उनके अधिकारों के बारे में और न ही उनकी सुरक्षा के संबंध में। बल्कि शासनीय गुप्त बात अधिनियम जैसे कानून आज भी विद्यमान है। इस अधिनियम के प्रावधानों से मीडियाकर्मियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है। सूचना के अधिकार बिल को संसद में रखा जा रहा है परंतु सरकारी गोपनीय कानून को समाप्त करने या संशोधन करने के विषय में सरकार बिल्कुल भी नहीं सोच रही है। वर्तमान समय में सरकारी गुप्त बात अधिनियम अप्रासंगिक हो चुका है। इसी प्रकार मानहानि तथा न्यायलय की अवमानना कनूनों में भी संशोधन की आवश्यकता है। इस संबंध मं सरकार को गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
मीडिया से संबंधित लोगों पर हो रहे हमलों के संबंध में सरकार को कारगर कदम उठाना चाहिए। जो मानवाधिकारों के प्रति जागरूकता लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है यदि उसी के मानवाधिकारों का हनन होगा तो वह इतनी महत्त्वपूर्ण जिम्मदारी कैसे निभायेगा। इसलिए मीडिया पर बढ़ रहे दबाव एवं उनके मानवाधिकारों के हनन को रोकना होगा। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। मीडिया की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना होगा तभी मीडिया अपनी भूमिका प्रभावी ढंग से निभा पायेगा। इस प्रकार मानवाधिकार संस्कृति को बढ़ावा देने में मीडिया महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
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