सरोकार की मीडिया

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Sunday, October 9, 2011

पेड न्‍यूज या मीडिया की हवस

पेड न्‍यूज या मीडिया की हवस
मीडिया एक सामाजिक संस्था है। इसका उद्भव और विकास व्यक्तियों और समूहों की सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन के रूप में हुआ था, लेकिन वर्तमान समय में इसका संचालन व्यापारिक संगठनों की तरह, से किया जा रहा है। हाल के वर्षों में मीडिया-व्यापार का अनेक कारणों और साधनों से तीव्र गति से विस्तार हुआ है। जिसका एक मुख्य कारण पेड न्यूज भी है, जो संभवत: एक दृष्टि से व्यापार के दबदबे के चलते मीडिया की रग-रग में समा चुका है। जिसका नकारात्मक असर कम करना मीडिया के लिए चुनौती है।
वैसे पेड न्यूजकोई नई तकनीक नहीं है। इसका जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है। पहले यह लुक-छिप कर होता था, परंतु वैश्विकरण के दौर में यह खुलेआम हो रहा है। पेड न्यू‍जएक ऐसा बहुरूपिया है जो समय-समय पर अपना रूप बदलता रहता है। इस बदलते रूप के कारण मीडिया का समाज के प्रति दायित्व से भटकाव हो रहा है, जो वर्तमान सामाजिक यथार्थ में साफ देखा जा सकता है। अगर हम मीडिया में सामाजिक नियंत्रण की बात पर जोर दे तो हकीकत से रू-ब-रू हो सकते हैं, कि किस प्रकार मीडिया पर हावी बाजारीकरण इनकी आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है। इस पूर्ति हेतु मीडिया अपने सामाजिक उत्तरदायित्व से भटक रहा है और पेड न्यूज का सहारा ले रहा है। भटकाव के इस दौर में मीडिया उच्चम समूह की पूर्ति अपनी अवश्यकताओं के साथ-साथ करता रहता है, क्योंकि ये उच्च वर्ग मीडिया पर ही निर्भर रहते हैं। चाहे वोटरों को लुभाना हो, किसी खास मुद्दे पर जनमत तैयार करना हो या अपने उत्पादकों को बाजार में बेचना। जिस कारण मीडिया में एक तबका नदारत होता जा रहा है। जबकि मीडिया सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है, बावजूद इसके मीडिया की पूर्ण स्वायत्तता और नैतिकता सामाजिक दायित्वों से उन्मु्क्त होकर आर्थिक और राजनीतिक दशाओं पर प्राय: निर्भर पाया जाता है।
      इस आलोक में कहा जाए, तो इस बात में बहुत दम है कि मीडिया एक प्रभुद्ध वर्ग के लिए कार्य करता है। वह यथार्थ की ऐसी छवियां पेश करता है जिनसे आभिजात्य वर्ग के हितों की पूर्ति की दिशा में नये रास्ते् खुलते हैं। वह संसदीय लोकतंत्र में नौकरशाही तथा कॉरपोरेट घरानों की सामाजिक सत्ता और उनके मान-मूल्यों को बनाए रखने में अपनी अहम भूमिका देता है। इस परिप्रेक्ष्य में नोम चॉम्सकी ने कहा है कि, ‘मुक्ता बाजार अमी‍रों के लिए समाजवादहै, जनता कीमत अदा करती है और अमीर फायदा उठाता है- गरीबों के लिए बाजार और अमीरों के लिए ढेर सारा संरक्षण।
इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया की प्रक्रियाओं में प्रकट या अप्रकट रूप से नियंत्रण का तत्व मौजूद रहता है। इस नियंत्रण की प्रक्रिया को ढ़ाल बनाकर मीडिया अपना हित साधने में प्रत्यनशील है। जिसके लिए कीमत का कोई मोल नहीं होता। मीडिया में दावन की भांति हावी पेड न्यूजआज एक गंभीर चुनौती बन चुकी है। चाहे मीडिया चिंतक हो, मीडिया विद् हो, विश्लेषक हो या फिर आलोचक सभी इस दावन रूप बाजारवाद के प्रभाव के सकते में हैं, कि क्या होगा आने वाले समय में मीडिया का। जिस प्रकार अपने हितों की पूर्ति के लिए मीडिया पेड न्यूजका सहारा लेकर अपनी हवस की पूर्ति करने में लगा हुआ है उससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया में संपादक की जगह प्रबंधक ने हथियाली है। जिस वजह से मीडिया की खबरों में कंटेंट न होकर प्रबंधन की झलक देखने को मिल जाती है। मीडिया में प्रबंधन के संदर्भ में बात करें तो प्रबंधन ने प्रबंधक के कार्य-क्षेत्र में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है और इसका मूल मकसद सामाजिक सरोकार से नहीं बल्कि अपनी टी.आर.पी. से है, क्योंकि जिसकी टी.आर.पी. जितनी अधिक होगी, उसे विज्ञापन उतने अधिक मिलेंगे। इसके लिए वो खबरों पर ज्यादा ध्यान न देकर टी.आर.पी. पर देते हैं। और टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए खबरों का स्वरूप कैसा भी हो क्या फर्क पड़ता है। कमाई तो हो ही जाती है विज्ञापनों से। बाकी कमाई उच्च स्तर पर विराजमान सभी लोगों को खबरों के स्थानों को बेचकर पूरी कर ली जाती है। जिसे हम मीडिया और सामजिक दृष्टिकोण में पेड न्यू़ज कहते हैं। 
इस प्रकार खबरों के स्था्न को बेचकर मीडिया सामाजिक हितों की अनदेखी करता है। इस अलोच्य की गहराईयों में जाय तो मीडिया कर्मियों का कुछ भी रोल नहीं है, ये सारा माजरा मीडिया घरानों व उसको संचालित करने वाले प्रबंधकों की मिली-भगत का नतीजा है, जिसकी चपेट में सारा मीडिया समुदाय आ चुका है। अगर गौर करें तो इसका एक कारण बेरोजगारी भी है, जिस कारण से मीडिया कर्मियों को अपने मालिकों के बताए रास्ते पर चलना पड़ता है क्यों कि, इसका विरोध करने पर उनको कुछ हासिल होने वाला नहीं है, यदि हासिल होता तो बस.........,यह सभी जानते हैं, फिर आज के समय में कौन अपनी रोजी-रोटी पर लात मारना चाहता है। अत: मीडिया को जिस दिशा में चलाया जा रहा है उसे चलने की मजबूरी कहा जा सकता है, पर रजामंदी नहीं । और वो मजबूरी को मद्देनजर रखते हुए प्रबंधकों के हाथ की कठपुतली बन चुके हैं। जिस कारण मीडिया सामाजिक सरोकर से इतर होकर अपनी नैतिकता भूलता जा रहा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया को शर्मसार कर रहा है। यह शर्मसार चेहरा व्यक्तिगत से बढ़कर संस्थानिक हो गया है। यह स्थिति देश और समाज के हित में नहीं है। क्योंकि, जिस प्रकार खबर और विज्ञापन का अंतर समाप्त होता जा रहा है। उससे साफ प्रतीत होता है कि मीडिया अपनी भूख मिटाने के चलते अपनी नैतिकता दांव पर लगाता जा रहा है। जिस कारण मीडिया का वर्चस्व और पावर खत्म होने की करार पर खड़ा दिखाई दे रहा है।

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