मीडियानेट व प्राइवेट ट्रिटीज का मामला
यह कहा जा सकता है कि मुनाफे के पीछे भागने के कारण कुछ मीडिया संगठनों ने पत्रकारिता के उंचे सिद्धांतों व अच्छे कामकाज की शैली की बलि चढ़ा दी है। कुछ समस पहले तक इस तरह की चीजों में सिर्फ कुछ लोग लिप्त पाए जाते थे, जैसे कि रिपोर्टर व संवाददाताओं को नगद या अन्य तरह से लुभाया जाता था। उन्हें देश-विदेश में किसी कंपनी या किसी शख्स के बारे में अनुकूल खबरें छापने पर पैसा मिलता था पर हाल में ये सारी चीजें नियम न होकर अपवाद की तरह ही थीं। इस तरह की खबरें संदिग्ध समझी जाती थीं क्योंकि भले ही खबर पूरी तरह सही व वस्तुनिष्ठ होने का दावा करे पर जिस अंदाज से घटनाओं या व्यक्तियों के बारे में चापलूसी की जाती थी, वह आसानी से पकड़ में आ जाती थी। पत्रकारों की बाइलाइन सबसे उपर प्रमुखता से छपती थी। पर धीरे-धीरे इस तरह के निजी विचलनों ने संस्थागत रूप धारण कर लिया।
1980 के दशक में जब टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की पत्र-पत्रकाओं का प्रकाशन करने वाली कंपनी बेनेट कोलमैन कंपनी लिमिटेड (बीसीसीएल) में समीर जैन एक्जी्क्यूटिव हेड बने तभी से भारतीय मीडिया के कामकाज की शैली व नियमों में बदलाव आने शुरू हो गए। मूल्यों को तय करने में गलाकाट प्रतियोगिता के अलावा बीसीसीएल को देश का सबसे अधिक मुनाफे वाला मीडिया समूह बनाने के लिए मार्केटिंग का सबसे ज्यादा रचनात्मक इस्तेमाल किया गया। अब यह अन्य सभी प्रकाशन उद्योगों की कुल आय की तुलना में अधिक मुनाफा कमाता है, हालांकि एक कार्पोरेट समूह के रूप में स्टार ग्रुप ने हाल के वर्षों में अधिक मात्रा में सालाना कारोबार किया है।
मीडिया के क्षेत्र में आगे चलकर जिस चीज ने काफी खलबली पैदा की, वह था 2003 में बीसीसीएल द्वारा पैसे के बदले प्रकाशन यानी पेड कंटेंट की मीडियानेट नाम से सेवाएं आरंभ करना। इसके तहत पैसों के बदले पत्रकारों को किसी प्रोडक्ट के लांच या व्यक्ति से संबंधी कार्यक्रमों व घटनाओं को कवर करने के लिए भेजने का खुला प्रस्ताव दिया गया। जब दूसरे अखबारों ने इस तरह की गतिविधियों से पत्रकारिता के उसूलों के उल्लंघन का सवाल उठाया तो बीसीसीएल के अधिकारियों व मालिकों ने तर्क दिया कि इस तरह के एडवरटोरियल्स टाइम्स ऑफ इंडिया में नहीं छप रहे हैं। केवल वे शहरों के रंगीन स्थानीय पेजों के लिए हैं जिसमें ठोस खबरों के प्रकाशन के स्थान पर समाज की हल्की-फुल्की मनोरंजक बातों के बारे में सामग्री प्रकाशित की जाती है। यह भी कहा गया कि अगर जनसंपर्क से जुड़ी एजेंसियां पहले ही अपने ग्राहकों के बारे में खबरें छपवाने के लिए पत्रकारों को रिश्वत दे रही हैं तब इस तरह की एजेंसियों जैसे बिचौलियों के खत्म करने में क्या बुराई है।
मीडियानेट के अलावा बीसीसीएल ने एक और नए तरह की मार्केटिंग व जनसंपर्क की रणनीति ईजाद की। 2005 में वीडियोकॉन इंडिया और कायनेटिक मोटर्स समेत 10 कंपनियों ने बीसीसीएल को अघोषित कीमत वाले इक्विटी शेयर प्रदान किए ताकि उन्हें बीसीसीएल द्वारा संचालित मीडिया के विभिन्न प्रकाशनों में विज्ञापन के लिए जगह मिल सके। इस योजना की सफलता ने बीसीसीएल को भारत के सबसे बड़े निजी इक्टिवी निवेशकों में बदल दिया। 2007 के अंत में इस मीडिया कंपनी ने अन्य क्षेत्रों समेत उडान, खुदरा बाजार, मनोरंजन, मीडिया आदि क्षेत्रों की 140 कंपनियों में निवेश का दावा किया जिसकी कीमत 1500 रूपये के करीब थी। बीसीसीएल के एक प्रतिनिधि (एस.शिवकुमार) द्वारा जुलाई, 2008 को एक वेबसाइट को दिए गए इंटरव्यू के मुताबिक कंपनी के साथ 175 से 200 के बीच निजी समझौतें (प्राइवेट ट्रीटी) वाले ग्राहक जुड़े हुए हैं और उनके साथ 15 से 20 करोड़ रूपये वाले समझौते किए गए हैं। इस तरह कुछ निवेश 2600 करोड़ रूपए से लेकर 4000 करोड़ रूपए तक का किया गया है।
यह अलग बात है कि 2008 में स्टाक मार्केट के धराशायी होने के फलस्व़रूप बीसीसीएल द्वारा किए गए निजी समझौतों के उद्देश्यों की हवा निकल गई। बीसीसीएल द्वारा खरीदे गए विभिन्न कंपनियों के शेयरों की कीमतें गिर गईं, उसके बावजूद मीडिया कंपनी को विज्ञापन की जगह देने के पुराने समझौते को पूरा करना पड़ा, वह भी शेयरों की पुरानी उंची कीमतों पर और उसे आमदनी में भी दिखाना पड़ा जिस पर टेक्स भी चुकाना पड़ता है।
निजी समझौतों की इस योजना का उद्देश्य टाइम्स ऑफ इंडिया में विज्ञापन की प्रतिस्पर्धा को कमजोर करना था, पर बाद में कई दूसरे अखबारों व टीवी चैनलों ने भी इसी योजना को आरंभ कर दिया। बीसीसीएल द्वारा शुरू की गई निजी समझौतों की योजना में इक्विटी निवेश के बदले निजी कंपनियों व विज्ञापनदाताओं के लिए विज्ञापन प्रसारित किए जाते थे, हालांकि कंपनी के अधिकारी इस बात से इंकार करते हैं कि निजी समझौते करने वाली कंपनियों व ग्राहकों के बारे में प्रशंसापूर्ण खबरें छापी जाती हैं या उनके बारे में आलोचना को छापने से रोका जाता है।
पर भले ही बीसीसीएल के प्रतिनिधि अपनी पत्र-पत्रकाओं व चैनलों में पैसे लेकर अनुकूल खबरें छापने व दिखाने की बात का खंडन करें पर सच यह है कि खबरों से जुड़ी ईमानदारी व निष्पक्षता में समझौता किया गया है। 4 दिसंबर, 2009 को इकोनामिक टाइम्स व टाइम्स ऑफ इंडिया में निजी समझौतों (प्राइवेट ट्रिटीज) की सफलता पर जश्न मानते हुए आधार पेज के रंगीन विज्ञापन छपे, ‘हाउ टू परफार्म द ग्रेट इंडियन रोप ट्रिक’ जिसमें पेंटालून का खास उदाहरण दिया गया। जो बताने की कोशिश की जा रही थी, वह यह थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के साथ पेंटालून की रणनीतिक साझेदारी ने किस प्रकार से लाभ पहुंचाया है। विज्ञापन के मुताबिक, मीडिया हाउस के लाभ के तौर पर टाइम्सन प्राइवेट ट्रिटीज (टीपीटी) अपने साझीदार पर आर्थिक बोझ कम करते हुए निवेशक की चिर-परिचित भूमिका से बाहर निकल गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्यों कि भारत के सबसे आगे रहने वाले मीडिया घराने के पास विज्ञापन की अतुलनीय ताकत है। जब पेंटालून का तेजी से विकास हुआ, टाइम्सी प्राइवेट ट्रिटीज ने भी पूरी कोशिश की कि उसे विज्ञापनों के लिए अखबार में पूरा स्पेस मिले। टीपीटी ने इसके लिए बेहतर शब्द इजाद किया, ‘बिजनेस सेंस’।
कई मीडिया संगठनों में खबर को विज्ञापनों से अलगाने के लिए एडवरटोरियल या एडवरटीजमेंट जैसे शब्दी इस्तेमाल किए जाते हैं। विज्ञापनों के लिए अलग किस्म के फांट व फांट साइज, उनके चारों ओर लकीरें खींचने या स्पांसर्ड फीचर अथवा विज्ञापन में कहीं कोने में एडीवीटी जैसे शब्द बहुत छोटे आकार में लिखने का काम किया जाता है जो कई बार पाठकों की निगाह में पड़ता है और कई बार नहीं। जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया के सिटी सप्लीमेंट के तौर पर छापने वाले दिल्ली टाइम्स के त्वंचा की देखभाल वाले प्रोडक्ट ओले के बारे में एक साल तक छपी स्टोरी अपने सारे खंडन या अखबार के द्वारा किए इंकार के बावजूद पेड न्यूज की ही श्रेणी में आती है। बीसीसीएल के प्रतिनिधि प्राय: यह कहते हैं कि कंपनी की प्राइवेट ट्रिटीज स्कीम किसी भी सार्वजनिक जांच के लिए खुली हुई है, क्योंकि जिन कंपनियों में बीसीसीएल की भागीदारी है, वह सब कुछ सार्वजनिक ही है और उसका अपनी वेबसाइट में उल्लेख है। पर बहस व विवाद का कारण कुछ और है। वह यह कि ये सभी कंपनियां अखबार में छपने वाली सामग्री को प्रभावित करती हैं।
इसी तरह सीएनएन-आईबीएन टीवी न्यू्ज चैनल पर प्रसारित रेजर ब्लेड बनाने वाली कंपनी जिलेट का विज्ञापन अभियान-वार अगेंस्टू लेजी स्टरबल में फीचर कथाएं व नामचीन हस्तियों के साक्षात्कार दिखाए गए। इसके अलावा इस मुद्दे पर पैनल की बहस आयोजित की गई कि मर्दों को शेव करना चाहिए या नहीं और इस निष्कुर्ष को पहले से इस बहस में केंद्र में रखा गया कि भारतीय स्त्रियां क्लीन शेव मर्दों को ज्यादा पसंद करती हैं। यह दावा किया गया कि जिलेट व सीएनएन-आईबीएन की साझेदारी दोनों के लिए लाभप्रद है। एडवरटोरियल से जुड़े ऐसे अन्य कई उदाहरण और भी हैं।
No comments:
Post a Comment