सरोकार की मीडिया

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Tuesday, October 18, 2011

मीडिया परहेज करें अपराध खबरों से

मैं कोई नई विधा नहीं बता रहा हूँ जैसा सभी जानते हैं कि भारत सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक देश है। जहां सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। इसके बावजूद यह अनेक विवादों और समस्याओं से लबालब भरा हुआ है और भरता ही जा रहा है। जिस हम मीडिया में आसानी से देख सकते हैं। वैसे मीडिया में आपराधिक कार्यक्रमों की बाढ़-सी आ गयी है। वह लगातार बढ़-चढ़कर उसका कवरेज कर रहा है। मीडिया ने अपने कार्यक्रमों के माध्यकम से क्षेत्रीय, धार्मिक, जा‍तीय एवं भाषाई विवादों का भी निर्माण किया है जिसमें अनेक संवेदनशील मुददों पर गंभीरतापूर्वक बहस को भी स्थान दिया है़ जो कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी रूप में सामाजिक सरोकरों से हमारा परिचय करवाती है। इन सामाजिक सरोकार के साथ-साथ मीडिया जन समस्याओं और आम लोगों की दु:ख-तकलीफों, उत्पीड़न, शोषण, प्रशासनिक बेरूखी और लापरवाही देह व्या‍पार एवं अंधविश्वास की समस्याओं से भी रू-ब-रू कराते रहते हैं। जो कहीं-न-कहीं किसी रूप में समाज में होने वाली अपराध घटनाओं को कम करने में सहायक सिद्ध होती हैं। इस आलोच्य में मीडिया से हम लोकतांत्रिक होने की आशा करते हैं। जो समाज में मौजूद विवधाओं के बावजूद एक लोकतांत्रिक समाज बनाने मदद करता है।

आम तौर पर देखा जाए तो जिस तरह से मीडिया कार्यक्रमों में निरंतर बदलाव हो रहें हैं जिस कारण से एक नई संस्कृति का उदभव हो रहा है। इस नई संस्कृति को भविष्य में होने वाले विनाशक के रूप में देखा जा सकता है। मीडिया विशेषज्ञों का मत है कि भारतीय मीडिया में नित्य नये प्रयोग किया जा रहे हैं। अगर हम संपूर्ण देश की तुलना भारतीय मीडिया से करें तो इतने समाचार चैनल वो भी एक भाषा में कहीं नहीं चल रहे होंगे। एक भाषा में चलने की वजह से मीडिया में प्रतिस्पर्द्धा बढ़ है। जो समय के साथ-साथ निरंतर गहरी होती जा रही है। इस प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप हर चैनल अलग दिखाने की कोशिश में लगा हुआ है। आज के आधुनिक जीवन में फेशन और क्राइम बड़ी खबरों के रूप में उभरकर सामने आयी हैं। सेलीब्रिटी आज एंकर बन गये हैं। जो पत्रकारिता में निरंतर बदलाव करने पर अमादा हैं। वर्तमान में मीडिया द्वारा खबरों को नये ढ़ग से परोसने का काम रहा है। जो मीडिया का अभिन्न अंग बन गया है। हालांकि मीडिया आज सच्चाई को या यर्थाथ को दिखाने से पहरेज करता रहता है वह केवल चटपटा मसाला और कंटेट को मिक्स कर खबरों का निर्माण कर रहा है। वह यह कहने से नहीं चूकता कि जो बिकता है उसी को परोसा जा रहा है। इसे हम बाजार की मांग भी कह सकते हैं।

इसके अनेकों उदाहरण हमारे आंखों के सामने से प्रतिदिन गुजरते रहते हैं जैसे राखी मीका का विवाद या मटुकनाथ का प्रेम प्रसंग। इन खबरों पर मीडिया ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और समाज के सामने परोस दिया। जिसे हम खबर कहे या एक संकट। जो हमारे लिए चितंन-मनन का विषय बना हुआ है। यह कहने में कोई दोराह नहीं होना चाहिए कि मीडिया दिनभर कचरा परोसता रहता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मीडिया अपराध से संबंधित खबरों व कार्यक्रमों पर जोर देने में लगा हुआ है जिसका ग्राफ लगातार बढ़ रहा है। दिनप्रति अपराधों से संबंधित खबरें देख-देखकर दर्शक उबने लगे हैं। यह कहना गलन न होगा कि निजी चैनल लड़कपन से निकलकर परिपक्य युवा हुआ है जिसे समझदार होने में समय लग सकता है। यह मीडिया के लिए बदलाव का दौर है इसमें सबकुछ जायज है। इस सबकुछ के चलते मीडिया से कंटेट ही गायब हो गया है। बिना कंटेट की खबरें और बदलते वक्त से मुखातिक होने के कारण समाज का नजरिया भी बदल गया है और 24 घंटे अपराधों को दिखाने के कारण समाज के सभी वर्गों पर एक बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है। क्योंकि जिस तरह से मीडिया नई तकनीक का सहारा लेकर अपराध से संबंधित खबरों को दिखा रहा है वो हमारे दिलों-दिमाग में जल्दी ही अपनी पैठ बना लेती है जिससे हमारे अंदर भी अपराध करने की प्रवृति पनपने लगती है। जो समाज और आने वाली पीढ़ी के हित में नहीं है। मीडिया को चाहिए कि अपराध खबरों को सामाजिक हितों को ध्यान में रखकर दिखाना चाहिए न कि अपने हितों को।

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