पुरूषों की सोच से परे सोचें......महिलाएं
एक दिन...... हां जी सिर्फ एक दिन.... महिलाओं के नाम...चलो अच्छा
है थोड़ा सा चिल्लाने का मौका उनको भी मिल जाता है....कि हम महिलाएं हैं.....
हमारे साथ ऐसा होता है, वैसा होता…… यह पुरूष समाज हमारे साथ ऐसा करते आ रहे हैं, वैसा करते आ रहे हैं....
इनसे मुक्ति मिलनी चाहिए.....हां भाई जरूर मिलनी चाहिए....आप भी आधी आबादी का हिस्सा
है हमारी..... पर साल में एक दिन अपने अधिकारों को चिल्ला-चिल्लाकर याद करना कहां
की तुक है....साल के बाकि दिन भी आपके हैं उसमें भी अपने अधिकारों के लिए लड़ा जा
सकता है.....पर नहीं....चुप्पी साध के बैठे रहते हैं आप लोग.... इस एक दिन के
लिए.... कि मार्च की 8 तारीख आएगी और हमें कहना का मौका मिलेगा......हमको पता है
बहुत कुछ सहा है आप सभी ने...सह भी रहे हैं... पर क्यों..... वैसे कभी आप लोगों
ने अपने-अपने घरों में भी झांककर देखा होता तो आपको पता चल जाता कि आपके शोषण की
शुरूआत वहीं से हुई है...... जरा गौर कीजिए जब आपको कहीं जाना होता था और आप अपनी
माता से कहती थी, तो जबाव साफ मिलता है कहीं नहीं जाना.... जाना है तो भाई के साथ चली
जाना..... कभी आपकी माता ने आपके भाई से क्यों नहीं कहा कि जाना है तो अपनी बहन
के साथ ही जाना, नहीं तो कहीं जाना ही नहीं है......वहीं आपके भाई को खुली छूट है कि
वो रात्रि के 9-10 बजे तक आ सकता है और आपको.... घर में 6 बजे ही बंद कर दिया जाता
रहा है..... और तो और सुबह का नास्ता, खाना, घर का पूरा काम आप लोगों
को ही करना पड़ता है.... कभी आपके परिवार वालों ने कहा कि नास्ता या खाना या घर
का यह-यह काम तुम्हारा भाई ही करेगा....कभी ऐसा हुआ....कभी नहीं.......क्योंकि
वो पुरूष है आप महिला... वहीं यदि आपका भाई किसी से प्रेम करता है तो उसको आजादी
है मेरा लाल, मेरा बेटा... और आपने कर लिया तो पाबंदियां ही पाबंदियां.... कलमुंही, कुल्टा, और न जाने क्या–क्या
आपकी माता के मुखरबिंदु से अच्छे-अच्छे अल्फाज निकलने लगते हैं।
कभी अपने ही घर में अपने शोषण के प्रति आवाज उठाई है.....और उठाई है
तो वो आवाज आपके परिवार वालों ने ही दबा दी है..... और सबसे अधिक उसको दबाने वाली
कोई और नहीं आपकी माता जी ही होती है..... इस संदर्भ में और कहें तो विवाहित
महिलाओं को देखिए कि उनकी पूरी सोच पुरूषों के अनुरूप ही घूमती रहती है....सोचने
का नजरिया, देखने का नजरिया सब कुछ पुरूषों के अनुसार..... क्योंकि महिलाएं
अपने आपको आज भी उन पर निर्भर समझती है.... कमजोर समझती है बिना पुरूषों
के......(एक आध अपवाद स्वरूप महिलाओं को छोड़कर)..... शादी, बच्चे पैदा करने का
निर्णय, घर में आज क्या बनेगा, क्या बनना चाहिए सब कुछ
पुरूषों के अनुसार ही किया जाता है..... वहीं दहेज की मांग करने वाली अधिकांशत:
औरतें ही होती हैं.... दहेज की आग में जलाने वाली अधिकांश सास होती है.... और तो
और अपनी बहुओं से लड़का ही पैदा हो इस तरह की ख्वाहिशें भी सास ही करती देखी जाती
है... बहू पर अत्याचार करने वाली सास, या सास पर अत्याचार करने वाली बहू...जरा सोचिए महिला होने के बाद भी
वो महिलाओं के साथ क्या-क्या करती हैं....क्योंकि उनकी सोच आज भी पुरूष समाज के
समकक्ष चलती है। मेरे कहने का तात्पर्य सिर्फ इतना है कि जब आप अपने ही घर में
अपनी आवाज नहीं उठा सकते तो फिर इस तरह बाजार में चिल्लाने से फायदा ही क्या
है...... पहले अपने ही घर में हो रहे शोषण को देखिए जिसे आप अनदेखा कर देती
है....उसके खिलाफ आवाज उठाए....जब आप अपने घर में अपने अधिकारों के प्रति सजग हो
जाएंगे तो समाज अपने आप ही आपको वो अधिकार देने पर स्वत: मजबूर हो जाएगा जिसे वो
आज तक आप सभी से छिनता आया है.....आप सब का दोहन करता आया है..... वो अधिकार पुरूष
समाज ही क्या कोई भी नहीं छिन सकता जिसके प्रति आप लोग सजग है... नहीं तो इस देश
में उल्लू बनने वालों की कमी थोड़ी के है.....
यदि किसी को मेरा विचार किसी को अच्छे नहीं लगे हों तो मैं माफी
मांगता हूं.... बाकि महिला दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं...
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