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Friday, August 14, 2015

स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न भी जरूरी है!

स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर प्रश्नचिह्न भी जरूरी है!

लोकतंत्र की आयु जैसे-जैसे परिपक्व हो रही है लोग विकास और राष्ट्रहितकारी विचार के विपरीत भ्रष्ट से भ्रष्टतम होते जा रहे हैं।
‘‘हम आजादी का जश्न तो मना रहे है लेकिन कुछ प्रश्नों को क्यों झुठला रहे है? सार्वजनिक स्तर पर लोकहित, उत्तरदायित्व, विवेकाधिकार, संरक्षण, सामन्जस्य और समन्वय कमजोर होते नजर आ रहे है तो न्याय, स्वतंत्रता और बंधुत्व की संकल्पना आज कटघरे में भी साबित हो रही है। ऐसे में वर्तमान भारत की बदलती तस्वीर के बरक्स स्वतंत्रता की पड़ताल और प्रश्नचिह्न भी लगना जरूरी है ।’’
स्वतंत्रता के बाद भारत को पुनः स्थापित करने के लिए जिन विचारों और सैद्धांतिकी को स्थापित किया गया था। उसे अक्सर इतिहास की पुस्तकों में हम सभी मौजूद पाते हैं। स्वतंत्र भारत ने समृद्ध संस्कृति के साथ देश को विकसित करने की चुनौती के अलावा जरूरी-गैरजरूरी कई झंझावत झेले जिनकी तस्वीर और सिलसिला आज भी रोजमर्रा है। देश की आबादी किसी न किसी रूप में अधिकांशतः निर्भरता में है। अलग-अलग समुदाय अभी विभिन्न बुनियादी आवश्यकताओं के लिए किसी ना किसी रूप में सरकारी या गैर सरकारी ईकाईयों पर निर्भर हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि देश की निर्भर अवाम के लिए संचालन और समन्वय की स्थिति कब सुनिश्चित हो पाएगी।
देश में गुलामी के समय से विरासत में मिली समस्याओं से इतर विभाजन की स्थिति से आरंभ समस्याओं की गिनती अभी घटती नजर नहीं आ रही है। समय बदलाता रहा और समस्याओं के सापेक्ष निवारण स्थापित नहीं हो पाए। हालांकि विभिन्न क्षेत्रों में जो कुछ विकास हुए हैं उन्हें बड़े स्तर पर देखे जाने से पहले जमीनी स्तर भी देखा जाना चाहिए। विविधताओं के देश में संतुलित और समग्र विकास एक चुुनौती अवश्य है। लेकिन कार्य शैली के अनुसार कार्यपालिका विधायिका और न्याय पालिका के क्षेत्र सर्व सार्वजनिक स्तर पर लोकहितकारी साबित होते नहीं दिख रहे हैं। यही कारण है कि आज जनता में कई अविश्वास पनप रहे है। यही अविश्वास प्रगति के बाधक भी है। स्वतंत्रता आंदोलन से उपजी राष्ट्रहित की भावना और प्रतिरोध का परिवेश लगातार सीमित हो रहा है। आंदोलनों के संचालन जिनके हाथों पहुंचते है वह समूह राजनीतिक हितों व लोभ में जन आंदोलनों को करिश्माई तरीके से शून्य कर दते है। सार्वजनिक क्षेत्र, प्राकृतिक संसाधन, व्यापार वाणिज्य, उद्योगजगत में हमें भारत की विविधता में एकता अजीब सी दिखती है। शीर्ष स्तर पर ऐसे अनेक क्षेत्रों में आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और पिछड़े समाज के लोगों की उपस्थिति लोकतंत्र स्थापित होने के अरसठ वर्ष में भी न्यूनतम है। वहीं कई समाज तो अभी भी शून्य की स्थिति में हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर विकास के किस माॅडल पर देश चल रहा है? स्वतंत्र परिवेश में प्रत्येक को अवसर की समानता के साथ विकसित करने का सपना कब साकार होगा?
सिद्धांतो के मूर्त रूप विरले ही पाए जाते है! बाकी कोरी कल्पनाएं संसद, विधानसभा, नियमों में यथावत विद्यमान और ढर्रे पर गतिमान हैं। आज सामाजिक आंदोलनों की स्थिति यह है कि वह किसी मुद्दे को सूचना तकनीक युग में बड़ी तेजी से प्रसारित होते दिखते है लेकिन उनकी परिणति प्रायः किसी मुकाम तक नहीं पहुचती। इसलिए वर्तमान में हो रहे आंदोलन प्रायः बुलबुला साबित होते हैं। राजनंीति में अत्यधिक धन व अपराधीकरण का शामिल होना मूल प्रेरणा साबित हो रही है। भविष्य की राजनीतिक परिपाटी के लिए यह चिंता का विषय है। इसी कारण सुयोग्य व्याक्ति राजनीति में फेल हो रहे हैं। गाहे-बगाहे राजनीति में आए सुयोग्यों की दूरगामी संभवानों को देखते हुए समीकरण और अवरोध तैयार कर सीमित कर दिया जाता है। लोकतंत्र की आयु जैसे-जैसे परिपक्व हो रही है लोग विकास और राष्ट्रहितकारी विचार के विपरीत भ्रष्ट से भ्रष्टतम होते जा रहे हैं। हमारी सरकारें कई मामलों में मूकदर्शक बनकर बैठी रहती है और समस्याओं का चक्रवृद्धि विस्तार होता रहता है। अधिकांश लोकसेवा के क्षेत्र आज पर्याप्त सेवा देने में सक्षम नहीं है यही नहीं उनमें सेवा की भावना भी लुप्त हो रही है। इस नकारात्मकता के पनपने से प्रायः लोग सहजता से स्वीकार करते हैं। लोक सेवा के कार्यालयों को भ्रष्टाचार की फुलवारी के रूप में फलते-फूलते देखा जा सकता है। सरकारी धन व संसाधनों का दुर्पयोग, लूट-घसूट, रिश्वतखोरी और सामान्य कार्य की गति में अवरोध देश भर में कहीं भी देखा जा सकता है। सरकारी क्षेत्र में तो मानों पूरा वेतन लेकर कार्य को रोकने का वाकया धीरे-धीरे सामाजीकृत हो गया है। निजी क्षेत्रों में अवसर की समानता कहने को तो कौशल आधारित माॅडल पर वितरित की जानी थी। लेकिन निजी क्षेत्रों में योग्य व्यक्ति से अधिक उनकी शर्तों के सिर्फ लक्षित कार्य करने वाला और लक्ष्य को चाणक्य के साम, दाम, दण्ड, भेद से क्रियान्वित करने वाला व्यक्ति चाहिए। ऐसे में उत्तदायित्व का बोध व नैतिकता का गायब होना स्वाभाविक होगा। निजी क्षेत्रों में प्रायः सेवा और गुणवत्ता को केंद्रित किया जाता है, लेकिन अधिकांशतः सिविल अधिकारों का हनन इन्हीं क्षेत्रों द्वारा होता है। न्यायपूर्ण दृष्टि की रिक्तता आज समाज और विविध क्षेत्रों के लिए खतरनाक साबित हो रही है। लोगों के व्यवहार में कर्तव्य, न्याय, समानता, बंधुत्व, और नैतिकता के सहज सिद्धांतों की छवि नहीं दिखती। परिणमतः लोकतंत्र मानों वेन्टिलेटर पर आ गया है जिसे सत्ता के लोग, बड़े अधिकारी, कॉरपोरेट, राजनीति के मठाधीश, आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग और उद्योगजगत के लोग अपनी सुविधानुसार ऑक्सीजन देते हैं और पूरी प्रणाली को संचालित करते हैं। किसानों से सहज ही भूमि लेकर चंद दिनों में एक बिल्डर लाभ के अंश को अधिकाधिक बना लेता है। वहीं किसान की उपज को लाभ की नजर से बढ़ाने का उपाय स्वतंत्रता के बाद आज तक नहीं इजाद किया जा सका है! जबकि राष्ट्रीय स्तर पर आज व्यापार वाणिज्य के सभी नियंत्रण और व्यापार नीति पराधीन नहीं है। मल्टी नेशनल कंपनियों को प्रोत्साहित किया जा रहा है उन्हंें जमीने और प्राकृतिक संसाधन सौपे जा रहे है। नीतियों को नीजी क्षेेत्रों के हित में बड़ी सहजता से सौंपा जा रहा है। शायद यही ऐसा तरीका है जिससे भ्रष्ट तरीके से धन अर्जित किया जा सकता है। क्योंकि यदि ऐसे व्यापार क्षेत्र किसी राज्य सरकार या सरकारी इकाई को सौपेगे तो कालाधन उगाही की गुंजाइश कम होेगी। हमारे सामने फिलीपीन्स, सउदी अरब, यूरोप सहित अमेरिका के कुछ राज्यों के उदाहरण है जहां सरकारी क्षेत्र नीजी क्षेत्रों से बेहतर और गुणवक्तायुक्त होने के साथ सरकारी खजाने को बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। वहीं भारत अधिकांशतः सिर्फ राजस्व (टैक्स) पर सीमिति है। जनता के सामने विकल्प ना रखकर नीजीकरण को तो जैसे मसीहा बनाकर पेश किया जा रहा है कि देश का विकास सिर्फ नीजीकरण ही कर सकता है। यदि सरकारी क्षेत्रों के ईमानदार कर्मियों को प्रोत्साहित कर आगे नई परियोजनाओं को सौपा जाए तो सरकारी क्षेत्र भी प्रबल हो सकते हैं। ईमानदारों के प्रोत्साहन की परम्परा आज नहीं दिखती जिससे भविष्य के ईमानदार भी निर्मित नहीं हो रहे हैं।
आज स्वतंत्रता दिवस को सिर्फ कैलेण्डर मे दर्शाए गए लाल कोष्ठक या अवकाश दिवस के रूप में देखकर दस्तूर निभाने की जरूरत नहीं है। स्वतंत्रता दिवस को अवकाश की बजाए कर्मठ कार्य दिवस घोषित किया जाना चाहिए। क्योंकि इस अवकाश को अधिकांशतः लोग मनोरंजन के अवसर के रूप में देखते हैं। लोग स्वतंत्रता दिवस को क्लब, डिस्को, पब, सिनेमा और पार्टी तक सीमित कर देते हैं। ऐसे में राष्ट्र निष्ठा, उत्तरदायित्व और मूल्य की उपज पाना कोरी कल्पना ही साबित होगी। आने वाली पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता और लोकतंत्र की मूल भावना के स्रोतों को समझने का वातावरण ही नहीं दिखेगा तो आने वाले समय का सृजन भी एक बड़ी चुनौती होगा। देश में जनसामान्य के लिए न्यायपूर्ण स्थितियां, सुरक्षा, भेद-भाव मुक्त परिवेश, भ्रष्टाचार मुक्त शिक्षा और रोजगार प्रणाली नहीं हैं। बाजार में उद्योग जगत द्वारा अनियंत्रित दाम निर्धारित कर सामग्री और सेवाएं दी जा रही हैं जबकि देश के लिए यह कोई मजबूरी नहीं है। संविधान और कानून में परिभाषित स्वतंत्रता को सुविधानुसार बना लिया जाता है। ऐसे में जनसामान्य के लिए ऐसी स्थिति नहीं दिखती जिससे समाज का अंतिम व्यक्ति स्वतंत्रता दिवस के रूप में गर्व से स्वीकार करे। देश भर में समस्याओं की सूची में अभी भी वही पुरानी समस्याएं हैं। तो फिर प्रश्न स्वाभाविक है कि यह विकास यात्रा जिसमें अनेक लोग करोड़पति, उद्योगपति और भूमण्डलीकृत हुए हैं उनमें शोषित, वंचित वर्ग की स्थिति लगातार कमजोर क्यों है? आज स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सामने खड़े प्रश्नों का सामना करना जरूरी है और नीति और नियति तय करने की भी आवश्यकता है।


सभार-
संदीप कुमार वर्मा
सहायक प्रोफेसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र
yesandeep@gmail.com


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