फिल्म और संस्कृति
भारतीय फिल्में अपने आरंभ काल से ही हमारे समाज
का आईना रही हैं। जो समाज में हो रही गतिविधियों को समय-समय पर रेखाकिंत करती आई हैं।
वैसे तो सभी जानते है कि भारतीय जगत में फिल्में बनाने का संपूर्ण श्रेय दादा साहब
फाल्के को जाता है, जिन्होंने सन् 1913 में ‘राजा हरिश्चन्द्र’ फिल्म
बनाकर फिल्मों का सूत्रपात किया और भारतीय सिनेमा को जन्म दिया। हालांकि दादा साहब
फाल्के द्वारा निर्मित ‘राजा हरिश्चन्द्र’ मूक फिल्म थी फिर भी दर्शकों ने इसको
बहुत पसंद किया। उसके बाद अर्देशियर ईरानी द्वारा सन् 1931 में पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’ का निर्माण किया जिससे फिल्मी जगत में नई क्रांति उदय हुआ।
वैसे तो उस काल में अधिकांश फिल्में
राजा-महाराजाओं के शौर्य व वीर गाथाओं पर बनाई जाती थी। इसके पश्चात धीरे-धीरे
समाज में फैली बुराईयों पर भी आधारित फिल्मों का निमार्ण होने लगा। जिसका
सकारात्मक प्रभाव हमारे समाज पर बखूबी देखने को मिला। हिंदी सिनेमा में
नववास्तविकवाद तब दिखा जब विमल राय की दो बीघा जमीन, देवदास और मधुमती व राजकपूर की बूट पालिश, श्री 420 आई। साठ के दशक में आई मुगल
आजम ने नया रिकार्ड बनाया और सच्ची प्रेम कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत
किया। उसके बाद जिस देश में गंगा बहती है, वासु
भटटाचार्य की तीसरी कसम, देव आनन्द की गाईड सभी फिल्में समाज से
जुडी हुई थी। उसके बाद ही भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी। जिसमें
युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बाम्बे के लिये केन्स में
गोल्डन कैमरा आवार्ड जीता। नब्बे के दशक में सूरज बडजात्या की फिल्म मैंने प्यार
किया, हम आपके के कौन, हम साथ-साथ हैं और यशराज की दिलवाले
दुल्हनियां ले जाएंगे ने रोमांस, शादी
के रीति-रिवाज और करवाचैथ की परिभाषा ही बदल दी। तब से हर नई विवाहिताओं को
करवाचैथ का व्रत रखना भारतीय रिति-रिवाज में शामिल हो गया और हर नई विवाहित अपना
पहला करवाचैथ बड़े ही धूमधाम से मनाती है। इसमें उपयोग होने वाली सामग्री की
तैयारियां व्यापारी वर्ग महीनों पहले से करना प्रारंभ कर देते हैं।
अगर कहें तो आज से लगभग 25 से 30 साल पहले और आज के समाज और संस्कृति में अंतर साफ नजर आता है। पहले
जब माता-पिता अपने बच्चों की शादी की बात करते थे तब बच्चों से कोई सलाह नहीं लेते
थे, जिसका कारण मर्यादा थी। क्योंकि पहले
माता-पिता का मानना था कि बच्चों के जीवन का सही गलत निर्णय लेना उनका काम है न कि
बच्चों का। क्योंकि बच्चों को निर्णय लेने की समझ नहीं है। लेकिन आजकल माता-पिता
हर छोटी-से-छोटी बात बच्चों से पूछकर ही करते हैं। जिसका कारण कही हद तक हमारी
फिल्मों को ही जाता है। क्योंकि फिल्मों में वही जानकारी दिखाई जाती है, जो हमारे आसपास घटती हो रही होती हैं।
फिल्मी परिदृश्य में जो भी काल्पनिक या सत्य घटनाओं पर आधिरित होती हैं वह हममें
से ही किसी एक से कहीं-न-कहीं सरोकार जरूर रखती हैं। चाहे बच्चों की शिक्षा, बालिका शिक्षा, आगे बढ़ने का जुनून, कपडे पहनने का ढंग, रहने का तौर-तरीका, त्यौहार मनाने का ढंग सभी किसी-न-किसी
से संबंधित होते हैं।
अब शादियों को ही ले लीजिये। पहले आम आदमी की
शादियों में क्षेत्रीय रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलती थी, क्षेत्र के अनुसार ही बरातियों का
स्वागत, भोजन, कन्यादान और पहनावा हुआ करता था। लेकिन वर्तमान में फिल्मों को देखकर
लोगों ने क्षेत्रीय रीति-रिवाजों को छोडकर फिल्मों में दिखाई जाने वाली संस्कृति
को अपने परिवेश में ग्रहण करना शुरू कर दिया है। पगडी पहनने से लेकर बारातों में
डीजे की धुन पर थिरकते देखा जाना अब आम बात हो चही है। अगर देखा जाये तो इस बदलाव
से लाखों लोगों को रोजगार मिला है, जिसमें
पढे़-लिखे युवाओं से लेकर दो जून की रोटी को तरसने वाले गरीब और महिलाएं भी शामिल
हैं। भारत में एक साल में सिर्फ शादी का टर्न ओवर लगभग 50 अरब रूपएं है जिसमें 25 से 30 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है।
वर्तमान में अधिकतर फिल्में नए जमाने के युवाओं
पर बनाई जा रही हैं, जिसमें युवा कंप्यूटर पर काम करता और
मोबाइल पर बात करता दिखाया जाता है। फिल्म थ्री इडियटस में युवाओं की सोच के बारे
में बताया गया है कि कैसे माता-पिता बच्चों पर इंजीनियर, डॉक्टर, वकील आदि बनने का दबाब बनाते हैं, जबकि
उन्हें उसमें रूचि ही नहीं है। फिल्म तारे जमीन पर, कोई मिल गया,
जिंदगी न मिलेगी दोबारा और हाल ही
रिलीज हुई काई पो चे। अधिकतर फिल्मों में युवाओं की सोच दिखाई गई है, क्योंकि वर्तमान में युवाओं की सोच आज
के दृष्टिकोण से अगल हटके तथा हमेशा कुछ नया करने के जज्बों से तल्लुकात रखती है।
यह बात सही है कि हम सोचते हैं कि बच्चे
फिल्में देखकर बिगड रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है, कि फिल्में देखकर ही लोगों ने अपनी पुरानी मानसिकता और सोच बदली और
बदलती चीजों को अपने चिंतन मन में जगह दी। क्योंकि पहले लोगों की सीमित सोच के
कारण वह संकुचित व पुराने ढ़र्रे पर आधारित मानसिकता के गुलाम हुआ करते थे। लेकिन
यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि भारतीय फिल्मों ने युवाओं को जीने का नया तरीका
सिखाया है। सही और गलत में निर्णय लेना सिखाया है, और यह भी बताया है कि हर इंसान में कुछ-न-कुछ अगल होता है। जिसको
केवल समझने की जरूरत होती है। और इस समझ के चलते वह अपने जीवन को प्रगति के पथ पर
असानी से अग्रसरित कर सकता है।
हालांकि फिल्मों के सकारात्मक पहलु के साथ-साथ
इसके कुछ नकारात्मक पहलु भी हमारे समाज के सामने परिलक्षित हुए हैं। वह हैं;- अश्लीलता, हिंसक प्रवृति और नैतिकता का पतन।
जिनमें अश्लीलता प्रमुख रूप हमारे समाज में फैलती जा रही है जिसका सहयोग फिल्में
भी कर रही है। आज कोई भी फिल्में को ले तो उसमें कुछ-न-कुछ अंश या पूरी कहानी व उस
फिल्म के गाने अश्लीलता से परिपूर्ण होते हैं। जिसका हमारे समाज पर बुरा प्रभाव
देखने को मिलता है। इसके साथ ही फिल्मों में जो ऐक्टिंग होती है वैसी ही ऐक्टिंग
युवा घर पर करते हैं जिससे हिंसात्मक प्रकृति बढ़ती है। युवा फिल्म कहानी, गीत-संगीत हम देखते हैं, मार-धाड़ के दृश्य ज्यादा देखते हैं और
देखते हैं अश्लीलता का चित्र। यह हिंसात्मक प्रवृत्ति आदर्श समाज बनाने में घातक
है। जैसे फिल्मों में एक अदाकार दूसरे अदाकर को चाकू मारता है वैसी ही मार-धाड़ की
सूटिंग युवा अपने घर में करते हैं। शिक्षा संस्थानों एवं सड़कों पर करते हैं।
फिल्मों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं इसके साथ’-साथ आजकल अंग-प्रदर्शनकारियों की कीमत भी बढ़ गई है। फिल्म निर्देशक
अंग-प्रदर्शन को कलात्मक कह रहे हैं। अंत में कहे तो फिल्म माध्यमों से समाज दूषित
होता जा रहा है। इसे ठीक करना बहुत मुश्किल है। जो समाज के लिए बहुत घातक है।
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