मुनि श्री बताएः उनके किस धर्म लिखा है, दूसरे धर्म के पूज्यनीय देवी-देवताओं
पर आपत्तिजनक टीका-टिप्पणी करना
सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में यूं तो सभी
धर्मों के लोग आपसी भाई-चारा और प्रेम सौहार्द के अटूट बंधन में कुछ इस तरह बंधे हैं
कि एक-दूसरे की छोटी-बड़ी शिकायतें आपस में कह सुनकर ही नज़रअंदाज कर देते हैं। किसी
भी धर्म के अनुयायी को दूसरे धर्म की आलोचना करने में झिझक ही नहीं गिलानी भी
महसूस होती है क्योंकि उसे श्रृद्धा से मानने वाले हमारे ही बीच रहते हैं और हम सब
भाई बंधु के रिश्ते में बंधे हैं। परंतु हमारे बीच जब कभी कोई बड़ी वजह धर्म को
लेकर प्रहार करने लगे तो निश्चय ही हम धर्म गुरूओं की शरण लेते आए हैं। यही तरीका
भी है लेकिन जब कोई धर्म गुरू महात्मा ही आघात का कारण बन जाए तो कहां जाएं, किससे कहें, या घुटते रहे और बस घुटते रहें।
जी हां मैं तुच्छ प्राणी उन महान् मुनियों को
आरोपित करने पर मजबूर हुआ हूं जो मेरी भी अटूट श्रृद्धा के पात्र हैं मगर एक मात्र
वजह उनका नगर में वेपर्दा भम्रण व इस तरह उनके अनुयायियों द्वारा हिुदू धर्म के
देवी-देवताओं पर टीका-टिप्पणी करना मुझे सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं लगता, किससे कहूं? कौन है? जो समझायेगा इसे उचित समझने की तरकीब! क्योंकि इस तरह का वाक्या घटित
होने के उपरांत मैं भी उन पर और उन जैसे मुनि श्री के कृत्यों पर हस्तक्षेप करने
जा रहा हूं। क्योंकि मेरा ध्यान जाता है केवल मुनि श्री के चरणों में केवल वहीं
मेरा मार्ग दर्शन कर सकते हैं मगर मेरा संपूर्ण मनोविज्ञान मेरे प्रश्न को इतना
गलत ठहराता है कि सीधा कहने की हिम्मत जुटा पाना शायद मेरे वश में नहीं। यही कारण
है जो इसे इस तरह समाज के समक्ष व्यक्त कर रहा हूं। ऐसा नहीं है कि यह जिज्ञासा
केवल मेरी ही है जनपद का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इस विषय पर आज तक
तर्क-वितर्क न किए हो। प्रतिदिन भ्रमण काल में स्वयं मुनि श्री ने भी इस जिज्ञासा
को घूरती, शर्माती, या झुकती निगाहों में पढ़ा होगा। ऐसा मेरा अनुमान है अपनी जिज्ञासा को
व्यक्त करने में कुतर्क करने की भूल कर सकता हूं। जिसे क्षमा करने की कृपा करें।
मेरी जिज्ञासा सभी धर्म के अनुयायियों के समक्ष प्रस्तुत है।
मुनि स्वरूप यदि जैसा है आवश्यक है तो क्या
उनका नगर भ्रमण न होकर मंदिर परिधि में सीमित नहीं रह सकता। क्योंकि नगर में सभी
धर्मों के मानने वाले रहते हैं जबकि मंदिर में तो केवल एक धर्म के ही अनुयायी उस
समय होगें अथवा वह लोग होगें जो दर्शन लाभ लेना चाहेंगे। ऐसा सुना है कि उक्त
स्वरूप के पूर्व मुनि श्री एक वस्त्र धारण की अवस्था में रहते थे। क्या सर्व समाज
के हित में कुछ समय के लिए (केवल भ्रमण काल के वक़्त) पूर्व अवस्था में आना त्याग
की परिभाषा में स्वीकार हो सकता है।
उक्त निवेदनों के सापेक्ष मेरे तर्क जो शायद
कुतर्क हो। यह है कि आज त्याग की पराकष्ठा पार कर चुके मुनि श्री या वर्ग विशेष के
मेरे बंधु-बंधवों का ध्यान क्या इस ओर गया है कि जब सब कुछ त्याग दिया फिर उदर
पूर्ति में नगर की भीतरी सीमा ही आवश्यक क्यों? या
कीमती भवनों में प्रवेश वर्जित क्यों नहीं ? यदि
इस का जबाव यह है कि उपरोक्त सब कुछ श्रृद्धालुओं की अनुनय विनय के कारण होता है न
कि मुनि श्री की इच्छानुसार, तो
क्या यह विनय श्रृद्धालुओं की सीमित स्वार्थी सोच का दर्शन नहीं कराती। और क्या
अनुनय विनय में एक विनय और शामिल नहीं हो सकता, यदि ऐसा है तो न्याय धर्म गुरू ही कर
सकते है। दूसरी बात में तर्क यह है कि यदि त्याग की पराकाष्ठा की ओर अग्रसित मुनि
श्री नगर सीमा में समाज कल्याण या प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से ही आते हैं
तो क्या एक वस्त्र धारण उनकी भावना को आहत कर सकता है।
मोह माया के संसार में श्वास तो सभी ले रहे हैं
फिर चाहें वह साधारण मनुष्य हो, अथवा
विलक्षण प्रतिभा के धनी और लोक-परलोक की जानकारी प्राप्त मुनि श्री जब मायावी
संसार में विरक्त भी रह सकते हैं और संसारिकता उनकी विरक्ति को क्षति ग्रस्त नहीं
कर पाती तब तन पर वस्त्र हैं अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। कहीं यह मात्र आकर्षण में
सहायक तो नहीं, ऐसा सुना है कि संसार में विपरीत का
आकर्षण है जैसे चुम्बक के विपरीत दो सिरे ही परस्पर आकर्षित होते हैं सामान सिरों
को यदि पास में लाया जाता है तो प्रति कर्षित ही होते हैं। इसी प्रकार संसार में
विपरीत लिंग का आकर्षण है। इसी क्रम में कहीं कपड़े के व्यापारी और वस्त्र विहीन
मुनि श्री का आकर्षण तो नहीं। वाणी की अति किसी तपस्वी को रूष्ट न कर दें इसलिए
क्षमा चाहता हूं। मेरे तर्कों पर मनन और चिंतन से अन्ततः लाभ की ही संभावना है यदि
मेरी बातें सत्यता के ओत-प्रोत हैं तो सर्व समाज की कुंठा शांत होगी। और यदि ऐसा
नहीं तो सर्व समाज कि कुंठा का मुनि श्री अपनी ज्ञान ऊर्जा से समाधान करें ऐसी
मेरी प्रार्थना है।
यह तो सभी ने जाना और समझा है कि मुनि श्री
किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं हैं अभी हाल में उन्होंने सभी समाज से कुछ अपीले कि
थी जिसका सर्व समाज ने पूरे मन से आदर किया था कि गरीक कन्याओं की उच्च शिक्षा
हेतु महाविद्यालय खोला जाएगा जहां पर गरीब तबके के लोग अपनी बालकाओं को कम फीस पर
शिक्षा प्रदान करा सकेंगे साथ-ही-साथ बहुतों ने उन कल्याणकारी प्रस्तावों को
आत्मसात भी किया, जिसमें एक समाज विशेष के लोग मांसाहार
जो उनके लिए खाद्य श्रृंखला है का त्याग कर सकते है और इसे सिद्ध किया जा सकता है
कि कई लोगों ने मात्र मुनि श्री से प्रभावित होकर उक्त मलक्ष्य का भक्षण तथा
व्यापार दोनों बंद कर दियें। तो क्या सर्व समाज की एक प्रार्थना मुनि श्री स्वीकार
नहीं करेगें। मेरा तर्क यह भी है कि पुरातन समय में जब तप के लिए आवादी से दूर घने
जंगलों और पहाड़ों की शरण लेना पड़ती थी। तब वस्त्रों कि अनुपलब्धता वस्त्रों का
त्याग करने पर तपस्वी का ध्यान केन्द्रित करती रही होगी। ऐसी हर वस्तु जिसे त्यागा
जा सकता है का ही त्याग तपस्वियों ने किया है वर्तमान परिस्थितियों में नकल के
आधार पर यदि उक्त को निभाया जा रहा है तो क्यों न इसे बदलने पर विचार किया
जाएं।
अग्रिम क्षमा मांगते हुए मेरा यह कुतर्क भी
प्रस्तुत है कि यदि वस्त्र तपस्या में इतने ही बाधक है तो इसे मेल तपस्वियों ने ही
क्यों त्यागा। इस पर भी गहन विचार मंथन की आवश्यकता है क्या तपस्वी महिलाएं
वस्त्रों की सहायता के बिना साधना में नहीं रह सकती? अथवा लोकलाज की भावना वस्त्र पहनने पर मजबूर करती है या साधना में
वस्त्रों का होना या न होना मायने नहीं रखता। हां यदि किसी आदि ग्रंथ में उक्त सब
ऐसा ही लिखा हो जिसके बदलने में कठिनाई महसूस होती हो, तो उससे समाज को न सिर्फ परिचित कराना
चाहिए बल्कि शेष समाज की दृष्टि को, मनोदशा
को वर्ग विशेष की मनः स्थिति, दृष्टि
के समतुल्य बनाने की आवश्यकता है। ताकि श्रृद्धा में आ रहा व्यवधान समाप्त हो
सकें।
जैसा मैंने शुरूआत में कहा भी है कि मुनि श्री
मेरी अटूट श्रृद्धा के पात्र हैं उनके खिलाफ बोलना, लिखना मेरा स्वभाव नहीं मात्र जिज्ञासा है कुछ अनछुएं अनुत्तरित
प्रश्नों के उत्तर खोजना और सामाजिक आलोचनाओं पर विराम लगाना ही उद्देश्य है। इस
एक विडंबना को छोड़कर शेष सारे नियम सिद्धांत परम आदणीय अनुकरणीय है, लाभप्रद है, वर्ग विशेष की निरंतर प्रगति इसका
प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। अभी तक हमने वस्त्र विहीनता को आलोचित तो किया है मगर
उसकी उस विवेचना से परिचित नहीं कराया जोकि जहां-तहां नुक्कड चैराहों पर देखी सुनी
जाती है। मर्यादा में रहते हुए मैं थोड़ा-सा दर्शन कराना चाहूंगा ताकि मर्म को ठीक
से पहचाना जा सकें। एक दृश्य प्रस्तुत करता हूं- कि विगत कुछ महीनों से ललितपुर
जिले में स्थित क्षेत्रपाल जैन मंदिर में पधारे मुनि श्री सुधासागर जी अपने
प्रवचनों व ज्ञान से सभी को कृतज्ञ कर रहें हैं। इसके साथ-साथ जिले में गरीब जनता
हेतू स्कूल व महाविद्यालय खोले जाने का भी वचन दिया है। जो वक्त रहते बन ही जाएगा।
यह सब बातें अपनी यथा स्थान पर पूर्णतः सही है। इसके बावजूद यह वाक्या कि हिंदू
धर्म के देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक लेख प्रकाशित करवाकर बांटवाना क्या न्याय उचित
है। शायद इस का जबाव पधारे मुनि श्री ही दे सकते हैं कि उनके किस धर्म की पुस्तक
में लिखा है कि दूसरे धर्म में पूज्यनीय देवी-देवताओं पर इस तरह टीका-टिप्पणी
करें। यह वास्तव में निंदनीय है। जिस कारण से सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में
आज-कल हिंसा का माहौल देखा जा रहा है।
मैं पहले ही कह चुका हूं कि कहीं कोई शब्द किसी
के हृदय को चोट पहुंचाए तो क्षमा प्रार्थी हूं। इसके बाद मैं जैन धर्म के मुनि
श्री पर इसलिए प्रश्न चिह्न लगाना चाहता हूं क्योंकि उन्होंने अभी तक जैन धर्म के
अनुयायियों द्वारा हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक लेख की भर्षाणा नहीं
की है। जिस कारण से हालात बद-से-बदत्तर होते जा रहे हैं।
इसी आपत्तिजनक लेख के चलते ललितपुर जिले में
हिंदू संगठनों द्वारा बाहर से नागा बाबाओं का एक जत्था बुलाआ गया है। हिंदू धर्म
को मानने वाले लोग अब पूर्णतः क्रोध की अग्नि में जलते दिखाई दे रहे हैं। अब
सामाजिक सद्भाव की नगरी कहे जाने वाले ललितपुर और मुनि श्री के आगमन पर हुए पूरे
वाक्या का कहीं-न-कहीं इन मुनि श्री पर ही प्रश्न चिहृ लगाता है। देखना होगा कि
वक्त किस तरह मरहम का काम कर सकता है कहीं ऐसा न हो कि यह जातिगत-धर्मवाद, सांप्रदायिक हैजे का रूप एख्तियार न कर
ले जिसकी चपेट में आकर आपसी भाई-बंधु एक-दूसरे के बैर न करने लगें और यह बैर सभी
को नष्ट न कर दे।
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