मीडिया तो अभी बच्चा है
मैं यह बात प्रिंट मीडिया के परिप्रेक्ष्य में नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संदर्भ में कह रहा हूं। जिसको पैदा हुए जुमा-जुमा 16-17 साल ही हुए हैं। इसको इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि, इलेक्ट्रॉनिक अपने बचपन के दिनों को पूर्ण करके युवा अवस्था में कदम रख रहा है। इसके पैदा होने पर ऐसा अभास नहीं होता था कि वो सारी दुनिया को अपने आगोश में समेट लेगा। पर, धीरे-धीरे इस मीडिया ने एक्टोपस की तरह काम किया। वैसे मीडिया की युवा अवस्था को लेकर मीडियाविद् और शिक्षक दोनों के विचारों में इसे लेकर खासा मतभेद नजर आता है। एक तरफ मीडियाविद् इसके द्वारा किए गये सभी कारनामों को उचित ठहराते हैं वहीं मीडिया शिक्षक कारनामों को पूर्णरूप से न नकारते हुए मीडिया पर लगातार उंगली उठाते रहे हैं। हम किसकी बात पर ध्यान दें? कौन सही है? कौन गलत? चिंतन करने की आवश्यकता है।
हालांकि हर एक वस्तु में कुछ सकारात्मक पक्ष और कुछ नकारात्मक पक्ष विद्यमान होते हैं, यह हमको ही तय करना पड़ेगा कि हमें किस पक्ष को आगे बढा़ना है और किसका परित्याग करना है। मूलतः वर्तमान परिदृश्य में मीडिया के कारनामों और अपनी कारगुजारियों के चलते सुर्खियों में बना हुआ है, जिसको नकारा नहीं जा सकता। चाहे मीडियाविद् इस पक्ष में कितनी भी दलीलें पेश कर दें।
आमतौर पर कहा जाए तो मीडिया का उद्देश्य शिक्षित बनाना, मनोरंजन करना आदि की पूर्ति हेतु हुआ था, परंतु धीरे-धीरे इस मीडिया ने अपने पैरों को चादर से बाहर निकालना शुरू कर दिया। यह सिलसिला यहीं थमने का नाम नहीं ले रहा है वो अपने पैरों को दिन-प्रतिदिन बढ़ाता ही जा रहा है, चादर तो अब रूमाल का रूप इख्तियार कर चुकी है। उसके द्वारा की जा रही बचपन की शरारतों को हम मौन स्वीकृति देते हुए हाथों पर हाथ रखे बैठे हुए हैं। और सोचते हैं कि वक्त के साथ-साथ इसकी हरकतों में सुधार जरूर आएगा। परंतु सब कुछ भ्रम के मायाजाल की भांति, सुधार तो दूर, उसकी हरकतें अब प्रायः सारी सीमाएं पार कर रही है। जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस आलोच्य में कहा जाए तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संविधान में प्राप्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का फायदा उठा रहा है, वैसे संविधान में मीडिया को मूलतः किसी भी प्रकार की आजादी प्रदान नहीं की गई है, वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ही अपनी आजादी मान बैठा है। जिसकी आड़ में वो लगातार अपने उद्देश्यों को अनदेखा करते हुए पथभ्रष्ट हो रहा है। चाहे हम इसे बच्चा कहें या युवा। फिर हमारे मीडियाविद्जन इसकी पैरवी क्यों करते रहते है यह बात सिर से ऊपर चली जाती है। हालांकि मीडियाविद् इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि वो पहले समाज का एक हिस्सा हैं या फिर मीडियाविद्। परंतु यह मीडिया अपने बच्चे होने का फायदा उठा रहा है। और, इसका साथ मीडियाविद्जन बखूवी दे रहे है, यह लगातार कहा जा रहा है कि मीडिया तो अभी बच्चा है। उसको कितना समय हुआ है जन्म लिए हुए। उसने अभी युवा अवस्था में प्रवेश नहीं किया है, इसलिए उसकी सारी गलतियों को बच्चा समझकर माफ कर देना चाहिए। वैसे यह गलतियां कब तक और चलेगी जिसको बच्चा के नाम पर माफ कर दिया जाएगा। सवाल अभी भी वक्त कठघरें में खड़ा कैद है? जिसका उत्तर हम सभी निकाल सकते है कि इस बौराई मीडिया या छुट्टा धूमता सांड़ पर कब लगाम लगेगी, जो इसके द्वारा मचाया जा रहा उत्पात को कम करने में मद्दगार साबित होगा।
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