सरोकार की मीडिया

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Monday, September 30, 2013

नहीं चाहिए कोई भी नेता.........

नहीं चाहिए कोई भी नेता.............
मसला न पुरुष का है न महिलाओं का और न ही बच्चों का। मसला न हिंदू का है न मुसलमानों का और न ही सिंखों का है। मसला न जमीन का है न किसान का, न गांव का, न कस्बों का और न ही शहरों का। मसला न प्यार का है न इकरार का और न ही पावर का। मसला न जाति का है न धर्म का और न ही धर्म के ठेकेदारों का। मसला न पुलिस का है न अपराधियों का और न ही कानून का। मसला न जानकारी का है न खबर का है और न ही खबरिया चैनलों का। मसला न पार्टी का है न चुनाव का और न ही नेताओं का। मसला है देश का..........? देश लोगों से बनता है। लोग यानि समूह, समाज, भीड़ और भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता। भीड़ को चेहरा देता है उसका नेता, और जो उस नेता का क्षेत्र विशेष होता है वही उसके लिए उसका देश होता है।
वैसे नेता जब आध्यात्मिक था तो देश बुद्ध था। जब नेता विलासी हुआ तो राजा मीहिर कूल। नेता कमजोर पड़ा तो सिकंदर और टूट गया तो बाबर। नेताओं ने व्यापार किया तो देश गुलाम हुआ और बागी हुए तो आजाद। जब देश आजाद हुआ तो नेता स्वार्थी हुए, और स्वार्थी हुए तो भ्रष्ट। भ्रष्ट हुए तो धनवान, धनवान हुए तो सफल और सफल हुए तो प्रगतिवान। लालच दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। जिस भीड़ को यह नेता चेहरा देते हुए वर्तमान समय तक पहुंचे हैं उस भीड़ की गरीबी, भूखमरी और लाशों पर अपनी-अपनी रोटियां सेंकते और राजनीति करते हमारे नेता। क्योंकि इन नेताओं का मनना है कि लालच खत्म तो तरक्की खत्म। तरक्की करना है तो लालच को साथ में लेकर चलना ही पड़ेगा। इस लालच की भूख ने आज पूरे देश को दांव लगा दिया है। मानों द्रौपदी को दांव पर लगा रहे हो, जीत गए तो ठीक नहीं तो सौंप देंगे किसी और के हाथों में नंगा होने के लिए। उसकी आबरू बचाने कोई नहीं आने वाला। कोई नहीं...................।
आज के नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र विशेष का राजा यानि भगवान भी कहा जाता है। जिसके इशारे पर पुलिस, कानून और यहां तक की मीडिया भी नत् मस्तक हैं, जी हजूरी करते हैं। वहीं इन नेताओं के कारनामों की क्या बात की जाए, दरबार लगता है फरयादियों का। जिसमें फरयादी अपनी-अपनी व्यथा लेकर आते हैं। जिनको श्रीश्री 1008 भगवानों के पुजारी झूठे आश्वासन के साथ लौटा देते हैं। मंदिर हैं न? जो जितनी अधिक चढ़ौत्री चढ़ाएंगा उसे, वहां पर विराजमान पुजारीगण शीघ्र ही और समीप से भगवान के दर्शन करवा देंगे। वैसे अगर देखा जाए तो मंदिरों के पुजारी भी रिश्वत लेने लगे हैं धर्म के नाम पर, आस्था के नाम पर। इसके साथ-साथ कुछ बाहूबली लोग चढ़ौत्री अपने-अपने कामों को बिना किसी रोक-टोक के करवाने के लिए भी चढ़ाते हैं। दरबार लगा है भगवान का, चढ़ाओं चढ़ौत्री चढ़ाओं। भगवान तभी प्रसन्न होंगे, तभी उनकी कृपा दृष्टि भगतों पर बनेगी। चढ़ौती नहीं तो दर्शन नहीं, दर्शन नहीं तो कृपा नहीं। एक सीधा तर्क है कि जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठी होगा। वैसे भगवान के दरबार की आरती तो रात्रि की बेला में ही संपन्‍न होती है (कुछ अपवादों को छोड़कर)। वहीं पर इन पुजारियों के साथ मिलकर भगवान अपनी रासलीलाओं, कुरूक्षेत्र आदि क्रियाकलापों की रणनीति तय करते हैं। इस रणनीति को तय करने में शराब, कबाव, मुजरा, ढुमकें, नाटक, नौटंकी सभी का समावेश होना आम बात है। क्योंकि यह भगवान जो है और भगवान कुछ भी कर सकता है। अगर आप लोगों ने नास्तिकपन दिखाया या इन भगवानों के क्रियाकलापों के खिलाफ आवाज उठाने की जुर्रत भी की, तो भगवान के कोप के साथ में पुजारियों के श्राप से धरती का कोई भी प्राणी तुमको बचा नहीं सकता है। ऑफर जो है एक के साथ एक फ्री का।
अगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हमारे नेताओं को देखा जाए और उनकी राजनीति को समझा जाए तो महाभारत आपके आंखों के सामने साफ होती चली जाएगी। वैसे हम अपने प्रधानमंत्री को धृष्ट्रराज का दर्ज दें तो मेरे हिसाब किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए? दोनों में थोड़ा-सा अंतर जरूर है- एक देख नहीं सकता था और दूसरा देखना नहीं चाहता। एक बोलता कम था दूसरा बोलना ही नहीं चाहता। अगर इनकों कुंभकर्ण का दर्जा भी दे तो भी चल सकता है। नाक के नीचे कुछ भी होता रहें इस देश में या देश का, इनको कोई फर्क नहीं पड़ता। अब जागने वाले हैं कुंभकर्ण महाराज। इनका समय आ गया है अपनी निंद्रा से जागने का। इनके जागने का मूल कारण एक लालच ही है, फिर से सिंहासन पर बैठने का। क्योंकि सत्ता पर काबिज होने की लत सभी नेताओं को लग चुकी है। साम, दाम, दंड और भेद किसी का भी सहारा क्यों न लेना पड़े, सत्ता में बने रहने के लिए। सत्ता शराब के जैसी हो गई है जो न छोड़ी जाए। क्योंकि सभी नेताओं को लत लग गई.......... लग गई............. लत ये गलत लग गई।

हालांकि हमारे देश में इन नेताओं ने पुरुष, महिला, बच्चें, हिंदू, मुस्लिम, सिख, जमीन, किसान, गांव, कस्बों, शहरों, प्यार, इकरार, पावर, जाति, धर्म, आस्था, पुलिस, अपराधी, कानून, जानकारी, खबर, मीडिया, पार्टी, चुनाव आदि का मसला बना रखा है। यह सब पूर्णतः हमारे देश से खत्म हो सकता है और हमारा देश प्रगति के साथ-साथ उन्नति के मार्ग पर भी अग्रसरित हो सकता है। इसके लिए हम सबको इस देश से नेताओं को खत्म करने की जरूरत है। नेता खत्म तो लालच खत्म। लालच खत्म तो भ्रष्टाचार खत्म। भ्रष्टाचार खत्म तो देश प्रगतिवान.....................। सोचिए क्या करना है आपको........................?

Thursday, September 26, 2013

यह कैसी समानता है........... ?

यह कैसी समानता है........... ?
मैं जिस मुद्दे पर यह लेख लिखने जा रहा हूं, हो सकता है कि बहुत-सारे लोग इस लेख से सरोकार न रखें, या यह भी हो सकता है कि मेरे इस गंभीर मुद्दे पर आप सब सहमत हो जाएं। कुछ भी हो सकता है। जनता जनार्दन है, वो ही सर्वेसर्वा होती है। क्योंकि जहां जनता का बहुमत पक्ष में होता है वहां पर बहुमत सरकार बना देती है, हीं बहुमत विपक्ष में हो तो, सदियों से सिंहासन पर काबिज राजाओं को जड़ से भी उखड़ फेंकती है। बस हवाओं के रूख की बात है, जिस ओर चलने लगे। परंतु वर्तमान समय ठीक इसके विपरीत दिशा में घूमता हुआ प्रतीत हो रहा है। यह वह दिशा है जो हमारे लोकतंत्र के चारों स्तंभों को अपनी उंगुलियों पर घूमा रही है, या यूं कहें नचा रही है। वैसे इस विपरीत दिशा को लोकतंत्र का पांचवां स्तंभ राजपालिका या नेतागणों की पालिका भी कह सकते हैं। क्योंकि ये वही नेतागण हैं जो लोकतंत्र में अपने मन मुताबिक, लाभ कमाने या अपना कोई हित साधने के लिए समय-समय पर भारतीय संविधान में बदलाव करते दिखाई दे जाते हैं। चाहे इससे भारत को या लोकतंत्र को नुकसान क्यों न हो, क्या फर्क पड़ता है?
वैसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण का अधिकार, अनुच्छेद 15 में धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्म का स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध तथा अनुच्छेद 16 में लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता की बातें कहीं गई हैं या सिर्फ लिखी ही गई हैं। जिनका पालन केवल बाहुबली और राजनेतागण अपने हित के लिए करते रहते हैं और जहां पर इनको लगने लगता है कि हमारा संविधान इसकी इजाजत नहीं देता तो संविधान में सीधे तौर पर संशोधन करके अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। क्योंकि वर्तमान समय में यही तो हो रहा है। न्यायपालिका से लेकर व्यवस्थापालिका तक सब जानते हैं कि भावी समय में लगभग 80 प्रतिशत राजनेता (नेतागण) तरह-तरह के अपराधिक मामलों में लिप्त हैं और उससे संबंधित मुकदमे छोटी-बड़ी अदालतों में लंबित भी हैं। जिनमें कुछ राजनेताओं को सजा भी हो चुकी है कुछ को होना बाकी है। इसके बावजूद वो हमारा व हमारे देश का स्वतंत्र रूप से प्रतिनिधित्व करते रहते हैं, बिना किसी रोक-टोक के? जबकि होना ठीक इसके विपरीत चाहिए था, कि यदि कोई नेता किसी भी आपराधिक मामले में लिप्त पाया जाता है या उसको सजा हो चुकी है तो उस नेता को भारत सरकार के किसी भी पद पर बने रहने व आगामी समय में चुनाव के लिए अजीवन बर्खास्त कर देना चाहिए था। परंतु हो ठीक इसके विपरीत रहा है। अब तो अध्यादेश भी लागू हो चुका है कि कोई भी राजनेता यदि किसी आपराधिक मामले में संलिप्त पाया जाता है तो भी उसे चुनाव लड़ने का और चुनाव जीतने के उपरांत भारत सरकार के पदों पर बने रहने का अधिकार होगा। यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि यह नेता हैं और हमाम में सब नंगे भी हैं।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में समनता की बात कहीं गई है परंतु यहां तो असमानता दिखाई प्रतीत हो रही है। क्योंकि एक तरह तो आपराधीकरण में लिप्त नेता सरकारी पदों पर काजिब तो हो सकते है वहीं दूसरी तरफ इस बावत किसी ने (सरकार हो या राजनेता) संविधान में संशोधन की न तो बात की और न ही पहल, कि यदि एक आम आदमी कारण बेकारण किसी अपराध में संलिप्त पाया जाता है या उसे उस अपराध की सजा मिल चुकी है या मिलनी बाकी है। फिर भी वो व्यक्ति सरकारी पदों पर आवेदन व दावेदारी प्रस्तुत कर सकता है। परंतु ऐसा कुछ भी देखने व सुनने को नहीं मिला। यह तो सरकार व सरकार पर काबिज राजनेताओं द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का साफ तौर पर उल्लघंन है। जिस पर लोकतंत्र को विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि मेरा मानना है कि यदि आपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त सरकार चला सकते है तो आपराधिक प्रवृत्तियों में लिप्त सरकारी पदों पर काम क्यों नहीं कर सकते हैं। इस मुददे पर आप सब लोगों की राय चाहिए ताकि मैं इस बावत् पीआईएल दर्ज करा सकूं कि यदि आपराधिक प्रवृत्तियों में संलिप्त/लिप्त राजनेता भारत सरकार के उच्च पदों पर रहकर हमारा व हमारे देश का नेतृत्व कर सकते हैं तो एक अभियुक्त/अपराधी/ सजा काट चुका व्यक्ति सरकारी पदों पर नौकरी क्यों नहीं कर सकता है? जबाव चाहिए। क्योंकि संविधान समानता की बात करता है फिर यह कैसी समानता है जो राजनेताओं के लिए अलग और आम जनता के लिए अलग!

Friday, September 20, 2013

नीलामी शुरू हो चुकी है.........

नीलामी शुरू हो चुकी है.........

उत्‍तर प्रदेश के कई जिलों में ग्राम पंचायत की नियुक्तियां, उत्‍तर प्रदेश सरकार द्वारा निकाली जा चुकी हैं, जिसमें न्‍यूनतम योग्‍यता इंटरमीडिएट पास रखी गई है। यह तो हुई आम सूचना, परंतु इसके साथ-साथ इन पदों के लिए जो सूचना मुझे प्राप्‍त हुई है वो यह है कि इन पदों की बोली लगना  (नीलामी) शुरू हो चुकी है। बोली शुरू होगी 12 लाख रूपए से। आपके पास योग्‍यता कैसी भी हो चलेगी परंतु 12 लाख से आगे जो बोली लगाएगा उसकी या उनके बच्‍चों को इन पदों पर नियुक्‍त किया जाएगा। ऐसा सरकारी कर्मचारियों का व सरकार के नुमाइंदों का कहना है, चूंकि यह अंदर की बात है तो अंदर ही रहने देते हैं। जिस किसी को सरकारी नौकरी करनी हो वो अपना घर, जमीन-जयादाद, घर में रखे हुए जेबर, बैंक से कर्ज लेकर, साहूकारों से मोटे ब्‍याज पर भी लेकर अगर पूरे न हो सकें तो आप स्‍वतंत्र हैं चोरी कीजिए, डांका डालिए, लूट कीजिए, अपहरण करें, बैंक लूटें और जो भी आप कर सकें, 12 लाख जुटाने में वो करें। क्‍योंकि आप सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करने जा रहे हैं इतना तो करना ही पड़ेगा। नौकरी करने के लिए। अगर इतना नहीं कर सकते तो मत भरें आवेदन क्‍योंकि आवेदन में भी पैसे लगाने से कोई फायदा नहीं। और आपकी योग्‍यता चूल्‍हे में जाए क्‍या फर्क पड़ता है सरकार को। उसे तो बस रूपया चाहिए रूपया।

अगर आपने रूपया जमा कर लिया हो तो आपको भी नौकरी मिल जाएंगी। वैसे नौकरी में रूपए देने को मतलब साफ तौर पर और ऐसे लगा सकते हैं कि आप किसी सरकारी बैंक में फिक्‍स डिपोजिट कर रहें हो। 5 साल  या उसके अधिक के लिए। जो रकम आपको मूलधन के साथ-साथ ब्‍याज में मुहैया करवाएगी। क्‍योंकि 12 लाख और 12 लाख का ब्‍याज यानि कुल मिलाकर 15 से 20 लाख रूपए। जिसकी पूर्ति हेतु आप भी जनता को लूट सकते हैं  या फिर मोटा घपलाघोटाला कर सकते हैं। यह तो हुआ मूलधन बाकी ब्‍याज के रूप में आपको माहवार सरकारी तन्‍ख्‍वा तो मिलेगी ही ।तभी तो आपके द्वारा लगाई गई मोटी रकम चुकता हो सकेगी। जय हो सरकारी नौकरी की।

Sunday, September 15, 2013

‘जनजाति क्षेत्रों में सूचना माध्यमों की पहुंच व प्रभाव का विश्लेषणात्मक अध्ययन’

जनजाति क्षेत्रों में सूचना माध्यमों की पहुंच व प्रभाव का विश्लेषणात्मक अध्ययन
(सर्व शिक्षा अभियान के विशेष संदर्भ में)


प्रस्तावना
संचार का सामान्य अभिप्राय लोगों का आपस में विचार, आचार, ज्ञान तथा भावनाओं का कुछ संकेतों द्वारा आदान-प्रदान करना है। संचार की मुख्य क्रिया है मानव व्यवहार पर असर डालना। इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर हमें मालूम होना चाहिए कि लोग सूचना व जानकारी एवं संदेश की अनुभूति कैसे प्राप्त करते हैं तथा उसे ग्रहण करने के लिए किस प्रकार राजी होते हैं। जनसंचार एक विशेष प्रकार का संचार है। यह कैसे होता है और इसकी आधुनिक समाज में क्या उपयोगिता है, इसकी जानकारी जरूरी है। जनसंचार माध्यम हमें सूचना व शिक्षा देते हैं तथा हमारा मनोरंजन भी करते हैं।
जनंसचार का प्रारंभ अख़बारों के उदय के साथ माना जाता है। लेकिन प्रिंट मीडिया के विकास से पहले परंपरागत रूपों में जनसंचार मौजूद था। व्यापक लोगों तक किसी सूचना को पहुंचाने के लिए ढोल-नगाड़े, डुगडुगी, भोंपू, तोप, चर्च की घंटियां, धुआं, आग तथा अन्य संकेतों का उपयोग होता था। इन रूपों में होने वाले जनसंचार में संकेतों की ऐसी व्यवस्था समाहित होती है, जिनकी व्यापक लोगों द्वारा एक समान रूप में व्याख्या संभव हो। संचार की आवश्यकताओं के विकास के साथ ही संचार के रूपों एवं उपकरणों का भी विकास होता गया।
हालांकि आज के परिप्रेक्ष्य में जनसंचार के सभी माध्यमों को मीडिया कहते हैं। मीडिया के लिए विकास एवं लोक सेवा की अवधारणा नई नहीं है। मीडिया के चरित्र में ही विकास एवं लोक सेवा की भावना निहित है। वर्तमान समय में सर्व शिक्षा अभियान को जनजाति क्षेत्रों में सफल बनाने के लिए सरकार ने मीडिया को काफी महत्त्व देते हुए मीडिया के विभिन्न माध्यमों के द्वारा सर्व शिक्षा अभियान की सूचना जनजातियों तक पहुंचाने का प्रावधान किया है। लोकतंत्र में सर्व शिक्षा अभियान संबंधी नीतियों को बनाना सरकार का दायित्व है, लेकिन इन नीतियों की जानकरी संबंधित जनता तक पहुंचाने का नैतिक दायित्व मीडिया पर होता है। अपने इस दायित्व का निर्वहन करते हुए मीडिया, केवल योजनाओं की जानकारी ही जनता तक पहुंचाने तक अपने आप को सीमित नहीं रखता है, अपितु मीडिया योजना के सफल या असफल बनाने की कार्यप्रणाली से भी जनता व सरकार को समय-समय पर अवगत करता रहता है, साथ ही साथ उक्त संबंध में सुझावों को भी प्रस्तुत करता है ।
वैसे सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पूरे भारत वर्ष में 6654 प्रखंड हैं। जिसमें से 3451 प्रखंड भारत सरकार के अनुसार शैक्षिणिक रूप से पिछड़े हुए हैं। गैर-आदिवासी व आदिवासी राज्यों की तुलना करे तो हरियाणा जहां आदिवासियों की शून्य जनसंख्या है। वहां पर कुछ प्रखंड 191 हैं जिनमें से मात्र 36 प्रखंड शैक्षिणिक रूप से पिछड़े हुए हैं। वहीं मध्य प्रदेश जहां जनसंख्या के स्तर पर सर्वाधिक आदिवासी निवास करते हैं। कुल 313 प्रखंडों में से 201 प्रखंड शैक्षिणिक रूप से पिछड़े हुए हैं। अनुपपुर जिले के सभी चार प्रखंड/तालुका शैक्षिणिक रूप से पिछड़े हुए हैं। प्राथमिक शिक्षा व साक्षारता विभाव के मीडिया कमेटी की 16 जुलाई, 2010 को हुई बैठक में सर्व शिक्षा अभियान के प्रचार हेतु 100 दिनों का प्रचार अभियान दूरदर्शन, ऑल इंडिया रेडियो द्वारा चलाने का निर्णय लिया गया। इसके अलावा अभियान के प्रचार-प्रसार हेतु लोक सभा चैनल के साथ-साथ 32 निजी चैनलों के लिए डीएवीपी विज्ञापनों का प्रावधान किया गया। प्रिंट माध्यम की महत्ता को स्वीकार करते हुए सरकार ने प्रिंट माध्यमों से भी अभियान का प्रचार करवाया। शिक्षक दिवस, बाल दिवस व कॉमन वेल्थ खेलों के दौरान अभियान के प्रचार व प्रसार हेतु विशेष अभियान चलाए गए।
वैसे किसी भी समाज के विकास के लिए शिक्षा सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक होती है। किसी भी देश का भविष्य उस देश के बच्चों में निहित होता है जैसा कि शिक्षा के विकास में समाज की सर्वांगीण विकास की संभावनाएं परिलक्षित होती हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 । में 6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की गई है। भारत सरकार तथा राज्य शासन द्वारा शैक्षणिक विकास हेतु अनेक योजनाएं संचालित की जा रही हैं। शिक्षा के विकास के लिए योजनाओं के निर्माण के क्रम में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा की महत्ता को समझा तथा प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए विभिन्न कालखंड में योजनाओं का निर्माण किया। वर्तमान में सर्व शिक्षा अभियान प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने की दिशा में प्रयासरत है।
इस संदर्भ में बात करें तो सरकार की भेदभावपूर्ण नीति का ही परिणाम है कि देश की कुल साक्षरता दर की तुलना में जनजातीय समाज की साक्षरता दर वर्तमान में भी कम है। ‘‘प्रो. रामशरण जोशी ने 1976 -1977 में बस्तर के आदिवासियों में आधुनिक शिक्षा के अध्यन के दौरान पाया कि प्रशासन से लेकर सवर्ण अध्यापक तक प्रायः इस विश्वास के थे कि यह जाहिल, काहिल, जंगली जाति (आदिवासी ) कभी सभ्य नहीं बन सकते।’’ 
            जनजातीय शिक्षा के विकास में भाषा भी एक बड़ी बाधा है। अधिकतर जनजातीय भाषाएं मौखिक हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है। अधिकतर राज्यों में जनजातीय तथा अन्य जनसंख्या को एक ही भाषा में शिक्षित किया जा रहा है जिसके कारण अधिकतर जनजतियों में रुचि की कमी हो जाती है।
             प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सर्व शिक्षा अभियान एक राष्ट्रीय योजना के रूप में देश के सभी जिलों में लागू की जा रही है। सर्वशिक्षा अभियान का उद्देश्य 6-14 वर्ष के आयु वर्ग वाले सभी बच्चों को उपयोगी और प्रासंगिक प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराना है। सर्व शिक्षा अभियान में बालिकाओं, अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रों तथा कठिन परिस्थितियों में रह रहे छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं पर विशेष ध्यान देने का प्रावधान किया गया है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत जिन आबादी क्षेत्रों में अभी तक स्कूल नहीं हैं, वहां नए स्कूल खोलना तथा अतिरिक्त कक्षाओं हेतु नए कमरे, शौचालय, पेयजल, रख-रखाव एवं स्कूल सुधार अनुदान के माध्यम से नए स्कूल खोलना और उनमें सुधार लाना शामिल है। शिक्षा के अंतर को समाप्त करने के लिए सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों तक में कंप्यूटर शिक्षा दिलाने का भी प्रावधान है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सर्व शिक्षा अभियान के तहत स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की संख्या में भारी कमी लाने में सफलता प्राप्त हुई है।
            सर्व शिक्षा अभियान प्रारंभिक शिक्षा के सार्वजनिकरण का एक प्रयास है। इस अभियान के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा द्वारा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने तथा पूरे देश में गुणवत्ता युक्त प्राथमिक शिक्षा देने पर जोर दिया गया। यह योजना केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय संस्थाओं के मध्य सहयोग पर आधारित है। जिसके अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं, शाला प्रबंधन समितियों, ग्राम शिक्षा समितियों, शहरी कच्ची बस्तियों की शिक्षा समितियों, जनजातीय स्वायत परिषद तथा अन्य संस्थानों का विद्यालय प्रबंधन के कार्य को भी सम्मलित किया गया। सर्व शिक्षा अभियान (2000-01) भारत सरकार का एक प्रमुख कार्यक्रम है, जिसकी शुरूआत अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा एक निश्चित समयावधि के तरीके से प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण को प्राप्त करने के लिए किया गया। इस संदर्भ में गांधी जी का यह कथन आज भी प्रासंगिक है कि ‘‘शिक्षा को इस प्रकार से क्रांतिकारी बनाया जाए जिससे कि वह निर्धनतम ग्रामीण की जरुरतों का जवाब बन सके, बजाए इसके कि वह केवल साम्राज्यवादी शोषकों की ही जरूरतों की पूर्ति करे।’’
शोध का उद्देश्य
·        सर्व शिक्षा अभियान के संदर्भ में संचार माध्यमों के पहुंच व प्रभाव का अध्ययन करना।
शोध की उपकल्पना
·        जनजातीय क्षेत्रों में मीडिया के आधुनिक माध्यमों की पहुंच नहीं है।
·        जनजातीय समाज शिक्षा के प्रति जागरूक नहीं है।
साहित्य का पुनरावलोकन
·        रामशरण जोशी, आदिवासी समाज और शिक्षा (1999):- राष्ट्रीय मुख्य धारा में विलय के नाम पर छात्रावासों में रामायण और हनुमान चालीसा का पाठ अबोध आदिवासी छात्रों पर लाद दिया गया था, जो की उनके लिए सर्वथा अप्रासंगिक था और उनकी परिस्थितिजन्य वास्तविकताओं से कतई मेंल नहीं खाता था ।
·        नदीम हसनैन, जनजातीय भारत (2007):- वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत कोई भी बच्चा कम से कम 10 साल बाद ही परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने में सहायक हो सकता है।  आदिवासी परिवार की विवशता है कि ये लोग इतने धैर्य का परिचय नहीं दे सकते। ऐसी शिक्षा प्रणाली इन्हें संतुष्ट कर सकती है जिससे इन्हें  तत्काल लाभ होना प्रारम्भ हो जाए।
शोध का महत्त्व
हेराल्ड लॉसवेल के मॉडल के अनुसार क्या, कौन, किस माध्यम से, किससे और कैसे सूचनाओं का संप्रेषण किया जाता है। यह तय करता है कि सूचना लक्षित समुदाय को कितना और कैसे प्रभावित करती है? सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में अनेक योजनाएं बनाई जाती हैं लेकिन समस्या आजादी के 67 वर्षों बाद भी जस-के-तस बनी हुई है। सरकार द्वारा संचार के विभिन्न माध्यमों से निरंतर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है फिर भी जनजातीय शिक्षा की हालत आज भी बद-से-बदतर बनी हुई है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से प्राप्त तथ्यांे के अनुसार अगर सरकार योजनाओं के प्रचार-प्रसार हेतु मीडिया का उपयोग पूर्णतः कर, जनजातीय समुदाय को इसका लाभ पहुंचाना चाहती है तो यह शोध पत्र सरकार के लिए मार्गदर्शक का कार्य करेगी। शोध पत्र में संचार की असफलता के कारणों पर भी प्रकाश डाला गया है। सरकार चाहे तो इन कारणों का निराकरण कर जनजातीय क्षेत्रों में योजनाओं का सफल क्रियान्वयन कर सकती है।
शोध की सीमाएं
·        प्रस्तुत शोध पत्र में अध्ययन के अंतर्गत दो जनजातिय गांवों को शामिल किया गया है।
·        शोध पत्र का केंद्र सर्व शिक्षा अभियान और मीडिया पर केंद्रित है।
शोध प्रविधि
अनुसंधान व शोध कार्य के निमित्त तथ्यों के संकलन स्रोतों हेतु दो भागों में विभाजित किया गया- प्राथमिक स्रोत तथा द्वितीयक स्रोत। प्रस्तुत शोध पत्र लेखन में तथ्यों का संकलन व विश्लेषण इन दोनों स्रोतों के आधार पर किया गया।; यथा-
·        आंकड़ों का संकलन
o   प्रथमिक आंकडे़ः- अनुसूची
प्राथमिक आंकड़ों के रूप में अनुसूची की सहायता से आंकड़ों को एकत्रित करने का प्रयास किया गया है।
·        द्वितीयक आंकड़े:- पुस्तकालय अध्ययन
द्वितीयक स्रोतों के रूप मीडिया व सर्व शिक्षा अभियान से संबंधी विभिन्न पुस्तकें, पेपर्स, जर्नल, रिब्यूज, बुलेटिन एवं इंटनेट आदि द्वारा तथ्यों को संकलित किया गया।
·        आंकड़ा विश्लेषण
·        विश्लेषणात्मक शोध प्रविधि
प्रस्तुत शोध पत्र लेखन में कुल 30 उत्तरदाताओं के माध्यम से अनुसूची को भरवाया गया। अनुसूची को भरवाने के लिए स्त्री-पुरुषों दोनों का चयन निदर्शन विधि से किया गया है। अनुसूची के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों को एकत्रित करके तथ्यों का विश्लेषण किया गया।
शोध क्षेत्र का परिचय
जनजाति क्षेत्र अधिकांशः पहाड़ी इलाके में स्थित है। शोधार्थी के शोध अध्ययन का क्षेत्र मैकाल पहाड़ी श्रृंखला पर स्थित मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की सीमा पर स्थित बंजारी व धनौली पंचायत के बेदखोदरा और सहाकौना गांव है। शोधार्थी द्वारा यहां आदिवासी समुदाय के 30 सदस्यों द्वारा शोध विषय से संबंधित अनुसूची भरवाई गई। शोध क्षेत्र के गांव में बैगा आदिवासी का निवास है। यहां आबादी काफी विरल है। शोध क्षेत्र के आदिवासी समुदाय का जीवन यापन मुख्य रूप से कृषि व मजदूरी पर आधारित है। बाल-विवाह आम है। शोध क्षेत्र आधुनिक विकास के मापदंड से काफी दूर है।
आंकड़ों का विश्लेषण
·        बेदखोदरा और सहाकोना गांव में संचार के माध्यमों की उपलब्धि, संचार की उपयोगिता और सर्व शिक्षा अभियान की जानकारी का माध्यम।
  



·        आदिवासियों में सर्व शिक्षा अभियान की जानकारीघर में 14 साल से कम आयु के बच्चे और बच्चों का स्कूल जाना
आदिवासियों के नजर में सर्व शिक्षा अभियान किसने शुरू किया


ब    बच्चों को स्कूल भेजने के किसने प्रेरित किया?


 ·        सर्व शिक्षा अभियान की जानकारी लेने कौन-कौन आए?

 सर्व शिक्षा अभियान और स्कूल में प्रदान की जाने वाली वर्तमान शिक्षा से संतुष्टि

  सर्व शिक्षा अभियान की अनियमित्ता
 सर्व शिक्षा अभियान के संदर्भ में शिकायत

सर्व शिक्षा अभियान की समस्या पहुंचाने का माध्यम

सर्व शिक्षा अभियान से परिवार की शैक्षिणिक को बेहतर बनने की स्थिति
 सर्व शिक्षा अभियान की सफलता





      

        

   

      प्रश्न संख्या 17 का विश्लेषण-
सर्व शिक्षा अभियान की सफलता के लिए बच्चों का स्कूल जाना अनिवार्य शर्त है। पुनः संबंधित लक्षित सूमह तक कार्यक्रम की सूचना लोकतांत्रिक मीडिया माध्यम से जनतांत्रिक तरीकों से पहुंचाना उतनी ही जरूरी है। सरकार ने मीडिया के विभिन्न माध्यमों को सर्व शिक्षा अभियान के प्रचार-प्रसार हेतु बजट प्रदान किया है लेकिन शोधार्थी को प्राप्त उत्तरों के अनुसार शोध क्षेत्र में मीडिया के माध्यम सर्व शिक्षा अभियान की जानकारी पहुंचाने में असक्षम है। मीडिया माध्यमों की असफलता का मुख्य कारण संबंधित क्षेत्र में मीडिया माध्यमों का उपयोग करने हेतु अनिवार्य संसाधनों की अनुपलब्धता है। किसी भी योजना की सफलता में कई सारे कारकों का योगदान होता है। आम तौर पर मानव समाज रोटी, कपड़ा और मकान के बाद शिक्षा की अनिवार्यता पर ध्यान देता है। शोध क्षेत्र में रोजगार, सड़क, पानी की उचित सुविधा न हो पाने के कारण शोध क्षेत्र के जनजाति शिक्षा की महत्ता को स्वीकार करने के बावजूद भी अपने बच्चों को निरंतर स्कूल नहीं भेज पाते हैं। योजना से संबंधित वर्ग द्वारा प्रतिपुष्टि व सुझाव योजना के लिए संजीवनी का काम करते हैं। आम तौर पर यह कहा जाता है कि जनजति समाज अन्य समाज से संपर्क स्थापित करने में कतराता है। इसके कारण विभिन्न हो सकते हैं। चुप रहने के कारण गैर आदिवासी समाज के कुछ सदस्य आदिवासी समाज को मौनी बाबा की संज्ञा देते हैं। उनकी इस धारणा को तोड़ते हुए शोध क्षेत्र के संबंधित आदिवासी समुदाय ने ग्राम विकास हेतु स्कूल, सड़क आदि की उपलब्धता को अनिवार्य बताया। उन्होंने सर्व शिक्षा अभियान से संतुष्ट होने तथा इसे प्रभावित बनाने हेतु स्कूल को निवास स्थान के निकट बनाने का सुझाव दिया।
आधुनिक विकास की धारा से दूर आधुनिक सुविधाओं से वंचित गांव के सदस्य के लिए शोध के दौरान शिक्षा के अलावा अन्य अनुपलब्ध सुविधा के बारे में अपने राय देना स्वाभिक था। अतः शोध क्षेत्र के सदस्यों द्वारा पानी, बिजली, सड़क योजनाओं के क्रियान्यवन पर अपना मत देते हुए कहा कि यह सुविधाएं वर्तमान में शोध क्षेत्र में उपलब्ध नहीं हैं। आदिवासी समुदाय द्वारा अपनी राय को व्यक्त करना यह दर्शाता है कि समाज में विकास की राह से जुड़ना चाहता है और इस राह में अगर संचार माध्यमों का साथ उन्हें मिले तो शिक्षा के साथ-साथ अन्य पहलू जो विकास के लिए मापदंड का कार्य करती है का विकास शोध क्षेत्र में प्रारंभ हो जाएगा।
निष्कर्ष
संचार का काम सूचना देना, शिक्षित करना एवं मनोरंजन करना है। संचार माध्यम योजनाओं तथा विकास के कार्यों को संप्रेषित करते हैं। लेकिन संचार माध्यम तभी अपने काम को सुचारु रुप से संचालित कर सकते हैं जब उनके लिए आधारभूत संसाधनों की पूर्णतः उपलब्धता हो। वहीं संबंधित शोध क्षेत्र में अध्ययन करने के उपरांत ज्ञात हुए कि बिजली और सड़क की अनुपलब्धता के कारण वहां पर कोई भी संचार माध्यम अपनी पहुंच से परे है। सरकार द्वारा संचालित हर बच्चे को शिक्षा का अधिकार यानि सर्व शिक्षा अभियान का कार्यक्रम चला रही है। लेकिन संचार माध्यमों की अनुपलब्धता के कारण 53.33 प्रतिशत लोगों को इस योजना के बारे में जानकारी नहीं है। विवेकानंद ने कहा है ‘‘ज्ञान से ज्ञान का विकास होता है।’’ आज के जनजाति समुदाय को योजनाओं की उचित जानकारी नहीं मिल पाती है जिससे योजनाएं तो असफल होती ही है साथ ही साथ देश का विकास भी प्रभावित होता है। संचार के नए माध्यमों में केवल मोबाइल का उपयोग सबसे ज्यादा किया जाता है इसका कारण यह है कि लोग उसे कहीं भी लेकर जा सकते हैं तथा बिजली की कमी के बावजूद भी उसे गांव से बाहर जाकर चार्ज किया जा सकता है।
सर्व ष्शिक्षा अभियान 6 से 14 साल तक के बच्चों को शिक्षित करने का एक कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य सभी बच्चों को शिक्षित करना है लेकिन आज भी सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते हैं। ग्रामीण अर्थव्यवस्था के कारण बच्चे अपने मां-पिता के साथ काम पर चले जाते हैं जिस कारण से उनकी शिक्षा प्रभावित होती है। माता-पिता अशिक्षित होने के बावजूद भी वह अपने बच्चों को शिक्षित तो करना चाहते हैं। परंतु उन्हें सही समय पर योजनाओं की सही जानकारी नहीं मिल पाने के कारण के साथ-साथ आर्थिक मजबूरी के कारण अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते हैं। फिर भी 27.67 प्रतिशत जनजाति के लोग स्वयं की समझ व अपने व परिवार के विकास हेतु बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं तथा उनकी नियमितता को बनाए रखते हैं। जानकारी के बिना विरोध का सवाल ही नहीं उठाया जा सकता है। लोगों को सर्व शिक्षा अभियान योजना की पूर्ण जानकारी न होने के कारण माध्यान भोजन, स्कूल वेशभूषा, बच्चों के लिए किताबें तथा छात्रवृत्ति से संबंधित कोई भी शिकायत नहीं है।
उपरोक्त आंकड़ों के विश्लेषण से यह निष्कर्ष ज्ञात हुआ कि जनजातीय क्षेत्रों में मीडिया के आधुनिक माध्यमों की पहुंच नहीं है। जबकि जनजातीय समाज शिक्षा के प्रति जागरूक तो है लेकिन आवश्यक संरचनाओं के अभाव में जनजाति समाज शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ है। क्योंकि सरकार केवल योजनओं को बनाने का ही काम करती है उन्हें सही तरीके से क्रियान्वित नहीं कर पाती है। सरकार योजनओं को लागू करने के बाद उसके बारे में लोगांे की राय तथा जानकारी संबंधित कोई सार्थक प्रयास नहीं करती है। सरकार द्वारा मीडिया के विभिन्न माध्यमों को लक्षित तो करती है लेकिन सरकार के यह लक्षित माध्यम जनजाति इलाकों तक लक्ष्य प्राप्ति में असफल साबित होते हैं। इसका मुख्य कारण जनजाति क्षेत्रों में मीडिया माध्यमों का लाभ लेने हेतु अनिवार्य सुविधाओं का अभाव होना है।
संदर्भ ग्रंथ सूची
·        जोशी, रामशरण, आदिवासी समाज और शिक्षा, ग्रंथ शिल्पी(इंडिया) प्रा. लि., नई दिल्ली- 1999
·        गुप्ता, रमणिकाआदिवासी भाषा और शिक्षा, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली-2012
·        नदीम हसनैन, जनजातीय भारत, जवाहर प्रकाशन, दिल्ली-2007
·        कुरूक्षेत्र, जनवरी, 1986www.ssamis.nic.in
       
प्रस्‍तुतकर्त्‍ता
डॉ. गजेन्‍द्र प्रताप सिंह
प्रियंका सिंह
प्राची सिन्‍हा
प्रीति गोस्‍वामी
जी.रवि
उमेश कुमार
                                             अमृत कुमार