भोपाल गैस कांड और मीडिया का दायित्व
भारतीय इतिहास में 27 साल पहले भोपाल में सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी हुई थी, जिसे दुनिया ‘भोपाल गैस त्रासदी’ के नाम से जानती है। भोपाल गैस कांड को लगभग ढ़ाई दशक से भी ज्यादा का समय हो चुका है। लेकिन, इतने अरसे तक इंसाफ की राह निहारते पीडि़तों की आंखें पथरा गई हैं। ऐतिहासिक संदर्भ में, भोपाल शहर में, 2-3 दिसंबर, 1984 की रात को ‘यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड’ नामक कंपनी के कारखाने में बेहद जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जिससे लगभग 20,000 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। और, कम-से-कम पांच लाख लोग इस गैस की चपेट में आ गए। एक अध्ययन के अनुसार दुर्घटना के पहले ही हफ़्ते में 8 हजार से अधिक इंसान मौत की नीद में सो गए थे। बाद में इनकी संख्या बढ़कर 20 हजार से अधिक हो गई। इस सूचना को अख़बारों में ख़बर की तरह भिन्न-भिन्न शीर्षकों के अंतर्गत प्रकाशित किया गया। कतिपय उदाहरण प्रस्तुत हैः-
· दैनिक भास्कार :- ‘भोपाल लाशों से पटा’
· नवभारत :- ‘भोपाल में गैस से मौत का तांडवः पांच सौ मरे’
· स्वदेश :- ‘भोपाल मौत की खंदक में’ जहरीली गैस से सैकड़ों
मरे,हजारों पीडि़त, भारी भगदड़
· नई दुनिया :- ‘भागो-भागो मौत आ रही है’, पांच सौ से अधिक मरे,
दो लाख लोग प्रभावित, चारो तरफ भगदड़
दो लाख लोग प्रभावित, चारो तरफ भगदड़
· जनसत्ता :- ‘‘जहरीली गैस से 500 का दम घुटा’’ भोपाल में
यूनियन कार्बाइड कारखाना ज्वालामुखी बना
· The Hitawada :- Gas Havoc in Bhopal’ 500 dead, 25000 affected.
· Chronicle :- City turns into a gas chamber’ over 400 die,
thousand hospitalized.
· Free Press Journal :- 1000 die in Bhopal Catastrophe, 2 Lakh
affected. 75000 treatede Relief work on.
‘‘दैनिक भास्कर’ ने 4 दिसंबर, 1984 को विशेष संपादकीय प्रथम पृष्ठ पर दिया था। संपादकीय में लिखा गया-‘ऐसा नहीं है कि कारखाने को लेकर लोगों ने कभी शंकाएं जाहिर नहीं की हों। वहीं ‘नवभारत’ के पृष्ठ चार पर छपे संपादकीय ने भी लगभग यही बात की। ‘भोपाल में आखिरकार उस जहरीले संयंत्र ने सैकड़ों लोगों की बलि ले ही ली। जिसके बारे में अनेक संगठन इस बात की चेतावनी दे चुके थे कि किसी दिन वह उनके शहर के लिए बहुत बड़ी विपदा का करण बन सकता है।’ ‘जनसत्ता’ में-‘अल्ला! इन कमीनों को सज़ा दे’ शीर्षक से लिखी ख़बर में वरिष्ठ पत्रकार महेश पांडे ने आंखों देखा हाल लिखा था। उन्होंने इस शीर्षक से जो रिपोर्टिंग की, वह मानवीय पीड़ा व संवेदनाओं का झकझोरने वाली थी। उन्होंने लिखा-‘दो सौ, ढ़ाई-तीन सौ, एक और लाश, ठेले में रखकर! तीन और लाशें नगर निगम के ट्रक से। तीन सौ अस्सी-बीस-बीस, बच्चे, अलग बच्चों के वार्ड में। ‘स्वदेश’ समाचारपत्र में छपी यह रिपार्ट, शीर्षक था ‘गैस कैसे लीक हुई, यह प्रबंधक भी नहीं जानते।’ ‘नवभारत’ ने पहली ख़बर में लिखा ‘यहां रविवार की रात को हुई जहरीले गैस कांड में मरने वालों की संख्या 1000 से अधिक पहुंच गई है।’’
‘‘भोपाल गैस त्रासदी में हुए सामूहिक नरसंहार के आरोप में यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन समेत नौ लोगों को पुलिस ने गिरफ़्तार किया। लेकिन, एंडरसन को 5 हजार डॉलर का जुर्माना भरने के पश्चात् जमानत पर रिहा कर दिया गया। जमानत पर रिहा होते ही राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने सरकारी हुक़्म बजाने के लिए एंडरसन को सरकारी विमान से दिल्ली भेज दिया। इसके बाद एंडरसन को दिल्ली से अमेरिका रवाना कर दिया गया। क्योंकि, सरकार का मत था कि एंडरसन पर कोई कार्रवाई करेंगे, तो भारत निवेश पर बुरा असर पडे़गा।’’
‘‘फरवरी, 1985 को भारत सरकार ने यूनियन कार्बाइड से मुआवजा पाने के लिए एक अमेरिकी अदालत में दावा ठोका। परंतु, 1986 को अमेरिकी जिला अदालत के जज ने भोपाल गैस त्रासदी के सारे मामलों को भारत स्थानांतरित कर दिया। और, मामला भोपाल अदालत में चलाया जाने लगा। इसी तरह साल-दर-साल इस त्रासदी की प्रक्रिया चलती रही। दिनांक 27 मार्च, 1992 को सी.जे.एम. ने एंडरसन के खिलाफ़ गैर-जमानती वारंट जारी करते हुए भारत सरकार को आदेश दिया कि अमेरिका से एंडरसन का प्रत्यार्पण किया जाए। परंतु, 2003 को अमेरिकी सरकार ने प्रत्यार्पण करने से साफ मना कर दिया।’’
‘‘भारतीय स्वास्थ्य शोध संस्थान (आई.सी.एम.आर.) के शोध से ज्ञात होता है कि इस कांड में कम-से-कम 5 लाख 20 हजार लोग गैस से प्रभावित हुए थे। वर्तमान आंकड़ें 578367 तक पहुंच गए हैं।’’ इतनी बड़ी संख्या में लोगों के प्रभावित होने के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री ने मृतकों और हताहतों के लिए सिर्फ़ पंद्रह हजार और पांच हजार रूपए हर्जाना स्वीकार करके वारेन एंडरसन को सुरक्षित उसके देश जाने दिया। यह मानवाधिकार का सबसे बड़ा हनन है। क्योंकि संदर्भित घटना में तत्कालीन सरकार ने भी अपना सहयोग दिया, और पीडि़तों की जान को जानवरों से भी कम आंका। मीडिया में प्रकाशित सी.आई.ए. के जो दस्तावेज प्रकशित हुए, उनसे यह खुलासा होता है कि तत्कालीन केंद्र्र सरकार के कुछ सलाहकारों-मंत्रियों को यह आदेश दिया गया था कि यूनियन कार्बाइड जैसी बड़ी कंपनी पर यदि कार्रवाई करेंगे तो अमेरिकी निवेश पर असर पडे़गा। और, अमेरिकी निवेश का देश से बाहर चले जाने के भय से एंडरसन को छोड़ दिया गया।
भोपाल में हुए इस त्रासदी में सबसे अधिक मानवाधिकारों के हनन को देखा गया है। ‘‘इसे संज्ञान में लेते हुए नवंबर, 1999 को यूनियन कार्बाइड और उसके पूर्व सी.ई.ओ. के खिलाफ़ अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार उल्लघंन का मामला दर्ज किया गया।’’ दिल दहला देने वाली भोपाल की भीषणतम गैस त्रासदी के मामले में मीडिया ने देर आये दुरूस्त आये की तर्ज पर तानाशाहों को अपनी ताकत का अहसास करवाया है। छब्बीस साल से खामोशी अखि़्तयार किये हुए मीडिया ने आखिर मुंह खोला और भोपाल गैस मामले में अंततोगत्वा देश के प्रधानमंत्री को मीडिया के सामने आकर संबंधित प्रश्नों के जवाब देने पडे़।
भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह ने ‘भोपाल गैस त्रासदी का सच’ नामक पुस्तक में लिखा-‘‘भोपाल गैस त्रासदी का पर्याप्त प्रचार-प्रसार मीडिया ने किया था। वास्तव में न केवल देश, बल्कि पूरी दुनिया के प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग, भोपाल में जो भी हो रहा था, उस पर निगाह रखकर उसे धुआंधार प्रचारित कर रहे थे। सभी समाचारपत्र भोपाल गैस त्रासदी के समाचारों से भरे रहते थे। मृतकों की संख्या अख़बारों की सुर्खि़यों में छपती थी।’’
यह हकीकत है कि गुजरा समय वापस नहीं आता। मरे लोग जिंदा नहीं होते। लेकिन, राजनीतिक लोग अपनी गंदी राजनीति करने से यहां भी बाज नहीं आते। हमारे जनप्रतिनिधि मासूम जनता की चिता पर भी राजनीति को अंज़ाम देने में लगे रहे। इतना ही नहीं, हल्ला और शोर मचाने वाली मीडिया भी अपने अधकचरे ज्ञान से सिर्फ़ जनता को गुमराह करने के अलावा कुछ भी नहीं किया। भोपाल गैस त्रासदी को लेकर मीडिया ने शुरूआती दौर में सामान्यतः सूचनात्मक ख़बरों पर ही ध्यान दिया। किसी भी अख़बार या चैनल ने इस तथ्य की जांच-पड़ताल नहीं की कि वहां के लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर क्या प्रभाव पड़ा है। मीडिया ने इस ओर तभी ध्यान दिया होता, तो आज ये दिन शायद न देखने को मिलता। मीडिया लगातार होने वाले हादसे से वेपरवाह था। केवल राजकुमार केसवानी के पत्र ‘वीक़ली रपट’ के अलावा यूनियन कार्बाइड जैसी एम.आई.सी. गैस चैबर के विषय में कहीं कोई नोटिस नहीं लिया गया। इससे साफ जाहिर होता है कि मीडिया को यूनियन कार्बाइड कंपनी ने अपने पक्ष में कर लिया था।
मीडिया के संदर्भ में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ‘‘शिव अनुराग पटैरिया द्वारा भोपाल गैस त्रासदी के बारे में संकेत करते हुए एक ख़बर भोपाल स्थिति ‘नई दुनिया’ दैनिक के कार्यालय में भेजने के बाद भी उसको प्रकाशित नहीं किया गया।’’ इससे मीडिया की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान जरूर लगता है। और, साफ जाहिर होता है कि उस समय समाचार-प्रबंधन का स्वरूप बदल रहा था। भोपाल गैस त्रासदी की आशंका से आगाह न करने के पीछे अख़बार के बडे़ लागे उत्तरदायी थे। छोटे स्तर पर प्रयास तो हो रहे थे, पर हर हाल में बड़े स्तर पर उन्हें दबा दिया जा रहा था। काश! इस होने वाली त्रासदी की ख़बर को कूड़े के ढेर में न डाला होता और एक मुहिम के तौर पर फाॅलोअप को आगे बढ़ाया गया होता, तो इस दुनिया की सबसे बड़ी गैस त्रासदी होने से रोकी जा सकती थी। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में मीडिया ने अपने आंख, नाक, कान सब बंद रखा। जो मीडिया हो-हल्ला मचाता है, आखिर क्यों नहीं हल्ला मचाया?, यह विचारणीय है। प्रश्न केवल इतना है कि मीडिया क्यों जनता के प्रति अपने दायित्व व सामाजिक प्रतिपाद्य को भूल गया।
इस मुद्दे पर कॉक्स ने लिखा- ‘‘एमनेस्टी इंटरनेशनल कई संगठनों की भागीदारी के साथ काम करता है, ताकि इंसाफ दिलाने, जवाबदेही तय करने और 25 वर्ष से जारी मानवाधिकार उल्लघंनों को खत्म करने की भोपाल त्रासदी में जीवित बचे लोगों की मांग का समर्थन करने में मदद की जा सके।’’ परंतु, अभी भी भोपाल पीडि़तों को न्याय नहीं मिला है। ‘‘दिनांक 13 मई, 2010 को हुई आखिरी सुनवाई के बाद 7 जून, 2010 को गैस कांड मामले में अदालत ने सभी आठ आरोपियों को दोषी करार देते हुए दो-दो साल की सज़ा सुनाई और उन पर एक-एक लाख जुर्माना भी लगाया गया। लेकिन, सज़ा सुनाए जाने के कुछ मिनट बाद ही केवल 25 हजार रूपए की जमानत राशि पर सात दोषियों को जमानत पर रिहा कर दिया गया।’’ लगभग सभी न्यूज़ चैनलों व समाचारपत्रों द्वारा इस ख़बर को कवरेज मिला। पीडि़तों को न्याय के नाम पर चंद टुकडे़ दिए गये। मानवाधिकार और मीडिया अब भी चुप्पी साधे बैठे हुए हैं। वहीं आज भी अपनी मांगों के लिए सड़कों पर उतरी जनता के साथ नइंसाफी देखने को मिली है। कारण कुछ भी रहे हो, इंसाफ तो नहीं मिला पीडि़तों को। और सच्चाई यह है कि वास्तविक व अपेक्षित काम किसी ने नहीं किया, न तो सरकार ने, न समाज के ठेकेदारों ने और न ही मीडिया ने।
1 comment:
भोपाल गैस त्रासदी को यूनियन कार्बाइड द्वारा भारत की मजूर जनता को दी गयी सबसे घिनौनी गाली के रूप में देखा जाना चाहिए.. मगर, अफसोस कि हमारी सरकार ही हमारी नहीं है.. फिर किसे दोष देंगे.. पूर्वजन्म का दण्ड मान कर चलिए.. या फिर इसमें भी कोई ईश्वरीय अनुकम्पा के दर्शन हो पायें बशर्ते आप उतने भाग्यशाली हों। भारत की आत्मा अक्षत है।
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