दंगें की आग.........
रात के सुनसान सन्नाटे में अपने तेज कदमों के साथ
बढ़ा जा रहा था। मंजिल पर पहुंचने की जल्दी भी थी और विरान पड़ी सड़क पर उपजने वाली
डरावनी आवाज से पनपने वाला भय भी था। तेज कदमों के साथ दिल की धड़कनें भी तेज हो
रहीं थीं। जिस पर इमरान का बस नहीं चल रहा था, चाह
कर भी इमरान भय के कारण बढ़ने वाली धड़कनों पर काबू पाने में खुद को असमर्थ महसूस कर
रहा था। फिर भी कदमों को तेज और तेज बढ़ता ही जा रहा था। वैसे इमरान जिस इलाके से
गुजर रहा था वो पिछले दस दिनों से कफ्र्यू की चपेट में था। पूरा इलाका किसी शमशान
से कम नहीं लग रहा था, जगह-जगह आग की लपटों में कुछ न कुछ जल
रहा था। कहीं लाठी, कभी चक्कू, कहीं तलवार, कहीं कट्टा तो कहीं जिंदा बम पड़े हुए
थे जो फटने के लिए अपनी सांसे धीरे-धीरे तेज कर रहे थे। जगह-जगह क्या बूढ़ा, क्या जवान, क्या महिलाए और क्या बच्चे। न जाति, न धर्म बस संप्रदायिकता की मार से
मुर्दा पड़ी उनकी अस्त-व्यस्त लाशें, आस
लगाए कि कहीं कोई अपना बचा हो, जो
हमें ठिकाने लगा दे। पर ऐसा नहीं था, दूर-दूर
तक लाशों का जमावड़ा ही था। कौन किससे आस करे? पूरे
के पूरे परिवार खत्म हो चुके थे।
वैसे कोई भी नहीं जान पा रहा था कि इस दंगें की
चिंगारी को हवा कहां से और किसने दी? जिसकी
आग में पूरा शहर जल उठा। जिसने सबको अपनी चपेट में ले लिया था। सरकार ने दंगें पर
काबू पाने के उद्देश्य से कफ्र्यू का सहारा लिया और पूरे 12 दिनों तक कफ्र्यू लगा रहा। चारों तरफ
सिर्फ पुलिस ही पुलिस, दंगों को रोकने के लिए तैनात थी।
बावजूद इसके दंगा रह-रहकर भड़क उठता, जो 20-25 लोगों को निगलकर शांत हो जाता। उसी
इलाके से रात को इमरान गुजर रहा था। इसी बावत एक भय दिल में बना हुआ था। जिससे न
चाहते हुए भी खुद को निकाल नहीं पा रहा था। चला जा रहा था, टुकड़ों में विभाजित हो चुकी लाशें, जो कुछ दिन पहले जीती जागती हुआ करती
थीं। उनको लांघते हुए एक शायर की चंद पक्तियां उसके जहन में आने लगीं। ‘‘एक दिन हुआ सबेरा, दिल में कुछ अरमान थे..... एक तरफ थीं
झोपड़ियां, एक तरफ शमशान थे..... चलते-चलते एक
हड्डी पैरों के नीचे आई, उसके यही बयान थे...... ऐ भाई जरा
संभलकर चलना, हम भी कभी इंसान थे....’’ हां यह भी कभी जिंदा इंसान थे। उन्हीं
से बचते-बचाते इमरान तेज रफ्तार से चला जा रहा था कि अचानक एक तरफ से किसी के
बिलखने की आवाज ने दिल की धड़कनों को और बढ़ा दिया। उस ओर से आ रही मार्मिक रोने के
आवाज ने जैसे पैरों को एकाएक रोक दिया। न चाहते हुए भी पैर खुद-ब-खुद रोने की दिशा
की तरफ चल पड़े। थोड़ा चलने के बाद इमरान के पैर फिर थम गए, क्योंकि आवाज एक झोंपड़ी के अंदर से आ
रही थी। झोंपड़ी के अंदर जाने की हिम्मत वो बहुत देर तक बटोरता रहा। जब हिम्मत ने
साथ दिया तो अंदर घुस गया। अंदर का नजारा सभ्य पुरुष समाज की दरिंदगी की पूरी
कहानी को खुद-ब-खुद बयां कर रहा था। एक 14-15
साल की बच्ची, जमीन पर पड़ी बिलख रही थी। उसके तन पर
जालिमों ने एक भी कपड़ा नहीं छोड़ा था। पास जाकर देखा तो उसकी रूह ही कांप गई। उस
बच्ची पूरे शरीर पर जगह-जगह पड़े घावों से खून रिस-रिस कर बह रहा था।
भेडिया और गिद्धों के समूह ने उस मेमने समान
बच्ची को अपनी-अपनी हैवानियत पूरी करके जिंदा लाश बनाकर छोड़ दिया था। उसको देखकर
इमरान के पैरों में मानों जान ही न बची हो। पैर खुद ही लड़खड़ाने लगे। और इमरान उसके
पास ही बैठ गया। बच्ची ने इमरान को देखकर अपने नग्न शरीर को अपने हाथों से छुपाने
की नकाम कोशिश करने लगी। इमरान ने उसके सिर पर हाथ रखा तो वह बुरी तरह कांपने लगी।
डरो नहीं, मैं तुम्हारी मदद करने आया हूं। डरो
नहीं। इमरान वहां से उठा और झोंपड़ी के कोने-कोने में देखने लगा। कहीं कोई कपड़ा मिल
जाए, जिससे इसके नग्न बदन को ढांक सकूं? पर पूरी झोंपड़ी में कहीं कुछ भी नहीं
मिला। इमरान झोंपड़ी के बाहर आ गया। कुछ देर तलाशते रहने के बाद भी उसे कहीं कुछ इस
तरह को नहीं दिखा जिससे उस बच्ची के तन को ढांका जा सके। एकाएक उसकी दृष्टि पास ही
पड़ी एक महिला की लाश पर गई। जिसके तन पर साड़ी थी। इमरान उस महिला की लाश से साड़ी
उतारने लगा। दिमाग में ख्याल आया कि मैं भी किसी महिला को नंगा कर रहा हूं। फिर
ख्याल आया कि किसी मृत पड़ी लाश की अपेक्षा उस बच्ची को इसकी जरूरत ज्यादा है।
इमरान ने उस महिला की लाश से साड़ी उतारी और वापस उस झोंपड़ी में आ गया। वहां पहुंचा, तो देखा वो अब रो नहीं रही थी। इमरान
उसके पास बैठ गया और उससे कहा.... लो इसको पहन लो... उसने कोई रिस्पोंस नहीं दिया।
उसने पुनः उससे कहा कि बेटा इसको पहन लो... पर कोई जवाब नहीं। उसके कंधे पर हाथ
रखा तो उसका शरीर ठंडा पड़ चुका था। समझते देर नहीं लगी कि अभी तक जिंदा बच्ची लाश
में तबदील हो चुकी है। आंखों से आंसू बह निकले। मृत हो चुकी उस बच्ची के नग्न शरीर
पर उस मृत महिला की साड़ी से ढंक दिया। एक मृत की साड़ी उतारकर दूसरे मृत के नग्न
शरीर को इमरान ढंक रहा था। उसके शरीर को साड़ी से ढंकने के बाद उसने उस बच्ची की
लाश को अपने हाथों में उठा लिया और झोंपड़ी से बाहर निकलकर चल पड़ा। कुछ दूर पर चलने
के बाद इमरान ने उस बच्ची की लाश को जमीन पर रख दिया और यहां वहां से लकड़ियां
जुटाकर, दंगें की ही आग में उसको स्वाहा कर
दिया।
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