एक के बाद एक: फर्ज़ी मुठभेड़
पुलिस की तानाशाही व्यवस्था और सरकार को गुमराह
करने वाली पुलिसिया नीति आखि़र कहीं-न-कहीं बहुत से ऐसे कार्यों को अंज़ाम देती है, जिससे न्यायिक व्यवस्था शर्मशार जरूर
होती होगी। इसी पुलिसिया नीति ने बहुत-सी फर्ज़ी मुठभेड़ों को भी अंज़ाम दिया है। ‘‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट
के अनुसार विगत 17 वर्षों में कुल 1224 फर्ज़ी मुठभेड़ हुई हैं।’’ इनमें सबसे ऊपर उत्तर प्रदेश, फिर बिहार, आंध्र प्रदेश और उसके बाद महराष्ट्र
तथा सबसे नीचे गुजरात है।
वैसे तो देश में बहुत सारी फर्ज़ी मुठभेड़ हुई हैं, जिनमें बाटला हाउस भी उल्लेखनीय है।
बाटला हाउस मुठभेड़ कांड को लगभग 5
वर्ष होने को है। ‘‘बाटला हाउस मुठभेड़ में पुलिस ने 19 सितंबर, 2008 को जामिया नगर के बाटला हाउस में रह रहे आजमगढ़ के आतिफ़ अमीन (24 वर्ष) और मुहम्मद साज़िद (17 वर्ष) को गोलियों से भून दिया था। इस
घटना को सरकारी दस्तावेज भी प्रमाणित करते हैं।’’ सरकार और पुलिस मारे गए दोनों बच्चों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट न देने
के विभिन्न हथकंडे अपनाती रही। उनका मानता था कि इससे आतंकवादियों को सहयोग मिलेगा
और पुलिस का मनोबल भी गिरेगा। दूसरी मानवाधिकार संरक्षण के लिए बनायी गई राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग का चरित्र भी खुलकर सामने आया। पहले तो मानवाधिकार आयोग ने अपनी
जांच रिपोर्ट में एनकाउंटर को क्लीन चिट दे दी थी। परंतु, अफ़रोज आलम साहिल द्वारा मानवाधिकार
आयोग से सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई पोस्टमार्टम की रिपोर्ट से ज्ञात हुआ कि
पुलिस ने दोनों मासूमों की हत्या की थी। दोनों के शरीर पर चोटों के निशान प्रमाणित
करते हैं कि दोनों को गोली मारने से पहले बुरी तरह से मार-पीटा गया था। मानवाधिकार
आयोग द्वारा प्रदान की गई रिपोर्ट पुलिस के उस दावे को खोखला साबित करती है कि पुलिस
ने आत्मरक्षा में गोली चलाई थी।
मानवाधिकार आयोग पहले इस कांड को सही बता रही
थी, परंतु अपनी रिपोर्ट के बाद उसने माना
कि बाटला हाउस का एनकाउंटर फर्ज़ी था। यह खुलासा खुद आयोग की उस लिस्ट से हुआ था, जिसमें पिछले सोलह साल के दौरान हुए
फर्ज़ी मुठभेड़ों की चर्चा की गई थी। सूचना कानून के तहत मानवाधिकार आयोग ने दिल्ली
के अफ़रोज आलम को 50 पन्नों की लिस्ट उपलब्ध कराई थी। इस
सूची में 1224 फर्ज़ी मुठभेड़ का विवरण दिया गया था। ‘‘फर्ज़ी मुठभेड़ की इसी सूची के एल-18 पर बाटला हाउस कांड भी शामिल है। जारी
रिपोर्ट के अनुसार सबसे ज्यादा फर्ज़ी एनकाउंटर उत्तर प्रदेश में हुए इस अवधि के
दौरान यहां पर 716 फर्ज़ी पुलिस मुठभेड़ हुए हैं।’‘
बाटला हाउस और इस जैसी सभी मुठभेड़ों को लेकर
मीडिया ने भी अपनी तीखी प्रतिक्रिया दिखाई है। समाचारपत्रों व न्यूज़ चैनलों ने
बाटला हाउस की पूरी रिपोर्टिंग की और आम जनता के समक्ष पुलिस द्वारा किए गए फर्ज़ी
मुठभेड़ों को बखूबी रखा। मानवाधिकार के हनन पर कौन सरकार के विपक्ष में खड़ा हो? हालांकि, कुछ मीडिया सरकार के साथ खड़ा होकर मनमाफ़िक परिभाषा गढ़ने लगा।
रिपोर्टर की पहली टिप्पणी,
फर्ज़ी एनकाउंटर को कहने या इस तथ्य को
टटोलने की जहमत, कौन करे? यह सवाल मीडिया के समक्ष भी खड़ा हुआ।
बाटला हाउस जैसी बहुत सारी मुठभेड़ों को मीडिया
ने प्रसारित किया है। ‘‘15 जून, 2004 को अहम्दाबाद के रिपोर्टर ने ब्रेकिंग न्यूज़ की यह ख़बर प्रसारित की
कि गुजरात पुलिस ने एनकाउंटर में एक लड़की के साथ-साथ तीन लोगों को मार गिराया है।
जो आंतकवादी गिरोह से सरोकार रखते थे और यह नरेंद्र मोदी को मारने की फिराक में भी
थे। इनके पास से बहुत मात्रा में अश्लह बरामद किया गया। इस तरह के झूठे बयान देकर
पुलिस अपना पल्ला झाड़ती रही और यह सिद्ध करती रही कि हमने कोई फर्ज़ी एनकांउटर नहीं
बल्कि आंतकवादियों को मारा है। जिसका जिंद आज 9
साल बाद फिर प्रकट हो चुका है। अब देखना यह है कि जिंद वापस बोतल में जाता है या
बोतल जिंद के हाथों में आती है। यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। एक अन्य
उदाहरणस्वरूप गुजरात में फर्ज़ी मुठभेड़ में दिनांक 22 नवंबर,
2005 को
सोहराबुद्दीन को पुलिस ने गोली से मार दिया था। सरकार का कहना था कि वह
मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने आया था। उसे लश्करे-तोयबा नामक आंतकवादी संगठन
का कार्यकत्र्ता बताया गया था। इस ख़बर को समाचारपत्रों में जगह मिली। इसी क्रम
में मीडिया के सभी चैनलों ने देहरादून के रणवीर नामक एक युवक की मुठभेड़ में मौत की
ख़बर का प्रसारण किया। संबंधित ख़बर के प्रसारण के बाद काफी हो-हल्ला हुआ। और, इसकी जांच सी.बी.आई. को सौंपी गई।
सी.बी.आई. और एस.आई.टी. दोनों ने अपनी जांच-पड़ताल के बाद इसे फर्ज़ी मुठभेड़ कहा।
सी.बी.आई. ने 18 पुलिस वालों को फर्ज़ी मुठभेड़ में दोषी
माना।
इन सब फर्ज़ी मुठभेड़ों में मीडिया ने अहम्
भूमिका निभाई है। परंतु मीडिया ने बहुत-सी ऐसी ख़बरों को भी प्रकाशित किया है, जिससे बहुत-से लोगों का जीना मुश्किल
तक हो गया है। यह कहना सही है कि मरने वाला अकेला नहीं मरता, उसके साथ बहुत सारी जिंदगी ताउम्र
तिल-तिलकर मरती हैं। यदि यह मौत असमय हो, तो
तकलीफ़ और बढ़ जाती है। फर्ज़ी मुठभेड़ के मामले भी कुछ ऐसे ही हैं। हर एक मुठभेड़ के
बाद पुलिस जोर-शोर से इसे सही साबित करने की कोशिश करती है, तो कुछेक मानवाधिकार संगठन मुठभेड़ की
सत्यता की जांच को लेकर हंगामा मचाते हैं। लेकिन, फिर पुलिस ऐसी ही कोई दूसरी कहानी प्रायः दोहरा देती है। मीडिया और
मानवाधिकार आयोग को चाहिए कि सभी मुठभेड़ों में मारे गए लोगों की पोस्टमार्टम की
वीडियोग्राफी करवाएं। साथ ही रिपोर्ट को आयोग व मीडिया में प्रकाशित भी किया जाए, ताकि हकीकत सभी के सामने आ सके। इस
आलोक में सरकार की अहम् भूमिका अपेक्षित है, ताकि
मानवाधिकार का हनन न हो तथा साथ-साथ पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सज़ा भी मिले
सके।
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