भूमंडलीकरण, संस्कृति और मीडिया
समकालीन परिवेश में हमारे प्रतिदिन के जीवन
चक्र में और लगभग सभी क्षेत्रों में मीडिया का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, इसके अनेक कारण हैं। मीडिया के विभिन्न
जनसंचार माध्यमों ने हमें सनसनीखेज ख़बरों का आदी बना दिया है। ‘‘इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीतिक घटना आदि सभी क्षेत्र में
सनसनीखेज तत्व हावी हैं। सनसनीखेज ख़बरें जनता के दिलो-दिमाग पर लगातार आक्रमण कर
रही हैं।’’ इस हमले में अधिकाधिक सूचनाएं होती
हैं। हालांकि, इन सूचनाओं की व्याख्या करने और इसकों
ग्रहण करने की आवश्यकता में निरंतर गिरावट आ रही है। आज मीडिया जनता को संप्रेषित
ही नहीं कर रहा बल्कि भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक
बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ प्रस्तुत कर
रहा है। हम बराबर मीडिया से ‘क्लिपें’ सुन रहे हैं। इस सबके कारण जहां मीडिया
ज्यादा से ज्यादा सूचनाएं दे रहा है, वहीं
दूसरी और कम-से-कम सूचना संप्रेषित कर रहा है। खास तौर पर टेलीविजन। स्मृति और
घटना के इतिहास से इसका संबंध पूरी तरह टूट चुका है। यह वैश्विक मीडिया का सामान्य
फिनोमिना है।
‘‘वैश्विक
मीडिया मुगल अपने साम्राज्य को बढ़ाने के लिए मीडिया में ज्यादा-से-ज्यादा निवेश कर
रहे हैं। साथ ही नई मीडिया एवं सूचना तकनीकी का भरपूर लाभ उठा रहे हैं। राजनीतिक
तनाव और टकराव के क्षेत्र में शासक वर्गों के साथ मिलकर हस्तक्षेप कर रहे हैं। उन
सरकारों अथवा तंत्रों के खिलाफ जनता को गोलबंद कर रहे हैं जिन्हें वे पसंद नहीं
करते।’’ भूमंडलीकरण और मीडिया मुगल की युगलबंदी
स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक अभिरूचियों, संस्कारों और संस्कृति के बीच समायोजन
का काम कर रही है।
इस आलोच्य में कहें तो ग्लोबलाइजेशन अर्थात्
भूमंडलीकरण को प्रभावी बनाने में परिवहन, संचार
और साइबरस्पेश की आधुनिक तकनीकों की केंद्रीय भूमिका रही है। मीडिया में इससे
संबंधित स्वरूपों, प्रतीकों, मॉलों और लोगों का प्रसारण बढ़ा है।
पूंजी का विनियमन हुआ है। संस्कृति और इच्छाओं की अभिव्यक्ति केंद्र में आ गई है
और साम्राज्यवाद का एक नया स्वरूप उभरकर सामने आ चुका है। यहां साम्राज्यवाद के
रूप में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद, मीडिया
साम्राज्यवाद जैसे तत्व हैं। कहना गलत न होगा कि ‘‘भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में ‘ग्लोबल’ का ‘लोकल’ पर प्रभाव पड़ रहा है। इस प्रभाव के
प्रतीक हैं- ‘ग्लोबल ब्रांड’, यथा मैकडोनाल्ड, बर्गर किंग, पीजा हट, निकी, रीबॉक, बहुराष्ट्रीय चैनल, संगीत
उद्योग और ग्लोबल विज्ञापन। वस्तुतः ग्लोबलाइजेशन ने पूरे विश्व को एक वैश्विक
बाजार में बांध दिया है।’’
‘‘आर. राबर्टसन ने
‘ग्लोबलाइजेशनः सोशल थ्योरी एंड ग्लोबल
कल्चर (1992) में ‘वैश्वीकरण’ के लिए ‘ग्लोबलाइजेशन’
शब्द का प्रयोग किया है। इसमें ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ के द्वंद्व व अंतर्विरोधों की चर्चा की गई है। साथ ही यह बताया गया
है कि कैसे ग्लोबल और लोकल संपर्क करते हैं।’’ उदाहरण
के तौर पर ‘नेशनल ज्योग्राफी’ चैनल में स्थानीय, जातीय या कबीलाई जनजीवन की प्रामाणिक
कवरेज व जीवन शैली के प्रसारणों में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के नजरिए से लोकल के
ग्लोबल स्तर पर जनप्रिय बनाए जाने की प्रक्रिया को देखा जा सकता है। इससे लोकल के
प्रति संवेदनाएं पैदा करने में मदद मिलती है।
आज भूमंडलीकरण और मीडिया के अंतः संबंध के कारण
वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंकर अस्मिता के सवाल केंद्र में आ गए हैं। ‘‘बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां इकसार
संस्कृति निर्मित कर रही हैं वहीं दूसरी ओर वर्ण संकर संस्कृति और वर्णसंस्कृति
अस्मिताओं को पेश कर रही है। भूमंडलीकरण के कारण मुद्रा, वस्तु व्यक्ति को निरंतर क्षेत्रीय
सीमा का अतिक्रमण करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। लेकिन वास्तविकता यह है कि
वैश्वीकरण जिस क्रॉस संस्कृति का निर्माण कर रहा है, वह संस्कृति का सतही और क्षणिक रूप है।’’ आज भूमंडलीकरण के कारण पलायन का तत्व
सामाजिक जीवन की धुरी बन चुका है। अब हम जातीय पलायन के रूप में जनता के एक जगह से
दूसरी जगह निर्वासन, स्थानांतरण, शरणार्थी समस्या और घूमंतुओं को
जगह-जगह देख सकते हैं। उसी तरह स्थानीय मीडिया के बजाय ग्लोबल मीडिया के बढ़ते हुए
प्रभाव और उपभोक्ता संसार को हम मीडिया पलायन कह सकते हैं। साथ ही अब
विचारधारात्मक पलायन के तौर पर विचारधारा के नए रूपों में नागरिकता, स्वतंत्रता, मानवाधिकार, जनतंत्र, विवेकवाद आदि का जन्म हुआ है। ‘‘जेम्स
करन और एम.जे. पार्क ने बताया है कि मीडिया में ऐसी बेशुमार सामग्री प्रसारित की
जा रही हैं जो भूमंडलीकरण,
संस्कृति और मीडिया के बारे में
प्रचलित तमाम किस्म की सैद्धांतिकी को ख़ारिज करती है। आज काल्पनिक अस्मिता की
ग्लोबल और लोकल दोनों ही छवि फीकी नजर आ रही है।’’
मीडिया बाजार का विश्लेषण करने पर स्पष्ट हो
जाता है कि ‘‘अधिकांश बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अपने
देश में मजबूत आधार है या सबसे ज्यादा बड़े शहरों में आधार है। इसमें विकासशील
देशों में मेक्सिको शहर, संघाई, ब्राजिंग, मुंबई, कोलकता, कैरो, जकार्ता आदि प्रमुख है। यदि भाषाई आधार पर गौर करें तो प्रथम दस
भाषाओं में चीनी पहले नंबर पर है। इसके बाद हिंदी आदि का नाम आता है। हकीकत तो यह
है कि मीडिया प्रवाह पर सात बड़े औद्योगिक राष्ट्रों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का
साम्राज्य है। इनमें से अधिकांश अमेरिका की हैं।’’ और कहना गलत न होगा कि ये विश्व के लगभग 90 प्रतिशत जनंसख्या पर अपना अधिपत्य
जमाए हुए हैं। आज विश्व मीडिया विमर्श में केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण के प्रश्न
केंद्र में है। इस विमर्श में निम्नलिखित चार बिंदुओं पर एक आम सहमति खींची जा
सकती है, यथा-
·
विकेंद्रीकरण के लिए विकेंद्रीकृत जनतंत्र और बहुलतावाद जरूरी है।
·
विविध माध्यमों की आवाज पर गौर करना चाहिए।
·
मीडिया जगत में वैविध्यपूर्ण अभिव्यक्ति का दायरा सिकुड़ता जा रहा है।
·
मीडिया तकनीक के उच्चतम रूप बेहद खर्चीले हैं।
हालांकि मीडिया में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया
को तकनीक उन्नति ने संभव बनाया है और निरंतर बना रहा है। पर्सनल कंप्यूटर, वर्ड प्रोसेसर, ग्राफिक डिजाइन, केबल प्रसार, इंटरनेट आदि ऐसे ही उत्पाद हैं। लेकिन
एक सीमा तक यहां भी पूंजी है। अतः जो जितनी पूंजी निवेश कर सकता है उसके सामने
संप्रेषण की उतनी ही बड़ी संभावनाओं के द्वार खुले हैं।
इस समूची प्रक्रिया ने ‘‘मार्शल मैकलुहान की धारणा यह स्पष्ट
करती है कि माध्यम ही संदेश है अर्थात् मीडिया का प्रभाव संप्रेषित कंटेंट अर्थात्
अंतर्वस्तु से कहीं ज्यादा होता है। अथवा हम यह भी कह सकते हैं कि मीडिया जो कहना
चाहता है, प्रभाव उससे कहीं ज्यादा होता है।
अस्तु माध्यम ही संदेश है,
इस धारणा का बार-बार हमें बदलती हुई
परिस्थितियों में मूल्यांकन करना चाहिए।’’ चूंकि, हमारी सोच अंतर्वस्तु के मूल्यांकन का
आदी है अतः हम यह सोचने के लिए तैयार ही नहीं है कि माध्यम भी संदेश हो सकता है।
यह सच है कि कोई भी माध्यम बगैर संदेश के नहीं होता। ठीक उसी प्रकार यह भी सच है
कि कोई संदेश माध्यम के बिना हम तक नहीं पहुंच सकता। कहने का मतलब है कि कंटेंट को
कम करके नहीं आंकना चाहिए। किंतु, कंटेंट
पर इस कदर भी जोर नहीं देना चाहिए कि माध्यम का महत्त्व घट जाए।
अस्तु, वैश्विक
संस्कृति स्वभावतः सांस्कृतिक मुठभेड़ के जरिए विकास करता है। विचारों, मूल्यों एवं संस्कृतियों में सम्मिश्रण
की गति आज इतनी तेज है, वैसी पहले कभी दर्ज नहीं की गई। इस
संदर्भ में वैश्विक संस्कृति के साथ विभिन्न धर्मों का अंतर्विरोध भी है साथ ही
विभिन्न धर्मों की धार्मिकता की बाढ़ भी दिखाई देती है। ध्यातव्य रहे कि धार्मिक
विचारधाराओं को ग्रहण करके आधुनिक राज्य का उदय हुआ था किंतु भूमंडलीकरण के कारण
इस आधुनिक राज्य को सबसे गंभीर चुनौतियां धार्मिक तत्वादियों से मिली है। मूल बात
यह है कि मीडिया के आलोक में भूमंडलीकरण और भूमंडलीय संस्कृति का धर्म, धार्मिकता और धार्मिक तत्ववाद से
वैचारिक तौर पर गहरा संबंध है। यह वस्तुतः प्रतिगामी संबंध है। इसलिए सांस्कृतिक
लोकतंत्र के निर्माण में जनमाध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। इस क्रम
में जनमाध्यमों के स्वरूप को जानना व समझना होगा। और, इस समग्रता के तहत मीडिया घटक एवं उसके
प्रभाव का विश्लेषण अनिवार्य हो जाता है।
वैश्वीकरण मूल रूप से आर्थिक सुधार एवं प्रगति
से संबंधित प्रक्रिया है। यह जहां एक और संवाद की बात करता है वहीं दूसरी और
आकाशीय तथ्यों पर भी जोर देता है। इसके तीन आर्थिक पहलू होते हैं-‘‘खुला अंतरराष्ट्रीय बाजार, अंतरराष्ट्रीय निवेश और अंतरराष्ट्रीय
व्यक्ति। इसका उद्देश्य सभी देशों को एकीकृत बाजार में रूपांतरित करना है।
वैश्वीकरण के चिंतन का उदय मुख्य रूप से अस्सी के दशक में हुआ था, परंतु इसकी अवधारणा अति प्राचीन काल से
ही मानव समाज में विद्यमान थी। जहां 17वीं
सदी के मध्य में इंग्लैंड का उपनिवेशवाद आरंभ हो गया था, वहीं फ्रांस ने भी इस दिशा में अपने
पाँव फैलाना शुरू कर दिया था। उपनिवेशवाद का परिणाम ही वैश्वीकरण के रूप में सामने
आया।’’
वस्तुतः भूमंडलीकरण जिस बाज़ारवाद की विवेचना
करता है उसका आधुनिक रूप भारत में आज से 11 वर्ष
पहले सन् 1991 के आर्थिक उदारीकरण एवं खुले बाज़ार की
नीति के तहत सामने आया। इसका उद्देश्य न केवल अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाना था
बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को आर्थिक रूप में खड़ा करना था। ‘‘इसके परिणाम के रूप में गरीबी उन्मुलन, रोजगार में वृद्धि, श्रम में गुणवत्ता की परिकल्पना की गई
थी। इस परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के द्वार भारत में खोल दिए गए। इसके बाद की स्थिति पूर्ण रूप से विदेशी कंपनियों
के पक्ष में बनती चली गई।’’
ये कंपनियां अधिकाधिक लाभ कमाने के
उद्देश्य से एक नई सामाजिक,
आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश का निर्माण कर रही हैं। इनके प्रभाव
से जनसंचार माध्यम भी अछूते नहीं हैं। इनके द्वारा एक ऐसे परिवेश का निर्माण किया
जा रहा है जो भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सर्वथा प्रतिकूल है। विदेशी कंपनियों के
आगमन ने तो भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर प्रश्न-चिह्न खड़ा कर दिया है। इसके
प्रभाव में रंगा मीडिया जाने-अंजाने अश्लीलता, आतंकवाद, पृथकतावाद, सांप्रदायिकता आदि को बढ़ावा दे रहा है।
साथ-ही-साथ मीडिया साम्राज्यवाद को भी बल मिल रहा है। आज जनमाध्यम सांस्कृतिक तौर
पर समृद्ध बहुजातीय राष्ट्रों में मनोरंजन के नाम पर अभिजात्यवाद, उपभोक्तावाद और राष्ट्रीय विखंडन को
बढ़ावा दे रहे हैं। हमें राष्ट्रीय हित में मीडिया को नीतियों के स्तर पर इस रूप
में स्वीकार करने की आवश्यकता है जिससे लोकतांत्रिक मूल्य संरक्षित रहें।
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