बच्चों को बिगाड़ने में मां-बाप भी बराबर के जिम्मेदार
समाज, एक विशाल समूह अपने में समेट हुए है जहां हर प्रकार के लोग अपनी जीवकोपार्जन अपनी योग्यता और क्षमता के मुताबिक काम करके चलाते हैं। समाज के विशालतम समूह में सभी वर्गों का समावेश है और योगदान भी। जिसकी वजह से समाज, समाज कहलाता है। इस समाज का एक वर्ग जिसके कंधों पर देश का भविष्य टिका हुआ है। मैं बात कर रहा हूं आज की उभरती हुई युवा पीढ़ी की। जो आज अपने ही नशे में चूर दिखाई दे रही है। नशा किसी का भी हो चढ़ता जरूर है ज्यादा नशा सेहत के लिए भी हानिकारक होता है। बुजुर्गो ने सही कहा है कि हर चीज की अति बुरी होती है। हालांकि युवा पीढ़ी बुजुर्गों के विचारों से सरोकार कहां रखती है। उन्हें तो यह सब प्रवचन से लगते हैं जो सुबह-सुबह टेलीविजन पर प्रसारित होते रहते हैं। मैं प्रवचनों को सुनने की बात पर जोर कदापि नहीं दे रहा हूं कि युवा पीढ़ी को प्रवचन और बाबाओं के झमेले में पड़ना चाहिए, परंतु इतना जरूर कह रहा हूं कि ज्ञान की प्राप्ति जहां कहीं से हो उसे ग्रहण अवश्य करना चाहिए। इस ज्ञान की पराकष्ठा में अच्छी-बुरी सारी चीजें समाहित हैं और हमें स्वयं तय करना है कि किस ज्ञान को ग्रहण किया जाए और किसका परित्याग।
वैसे आज ज्ञान और रहन-सहन का तरीका बिल्कुल बदल चुका है। शिक्षण संस्थानों में ज्ञान के नाम पर बच्चों के मां-बाप को लूटने का अड्डा बना लिया है जहां शिक्षा देने के नाम पर मोटी-मोटी फीस वसूली जाती है और ज्ञान की हासिल शून्य ही रहती है। बच्चें जो भी कुछ सीखते हैं उसमें पास करना पास करना इस संस्थानों की मजबूरी होती है तभी तो यह दिखा सकते हैं कि हमारे संस्थानों का प्रतिशत इतना आता है। वैसे इन शिक्षण संस्थानों में ज्ञान के अलावा रासलीला पर कुछ ज्यादा ही तबज्जों दी जाती है। ऐसा मुझे लगता है। ऐसे लगने के कई कारणों से आप लोगों को में अवगत करा सकता हूं। वैसे इस सभी कारणों से आप सब भी भलीभांति परिचित जरूर होगें। फिर भी आप सबने देखकर अनदेखा कर दिया होगा। इसी अनदेखेपन ने युवा पीढ़ी में जिस तरह का परिवर्तन या छूट दी है उन सब के जिम्मेवार हम सब भी उतने ही हैं जितनी की यह युवा पीढ़ी।
हालांकि समय के साथ-साथ परिवर्तन होना स्वाभिक है परंतु इस तरह का परिवर्तन जो आने वाली भावी युवा पीढ़ी को ही अंधकार की ओर अग्रसर करें, उजाले की ओर तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि शिक्षण संस्थानों में तो रास-लीला रचाई जाने लगी है, ज्ञान की नींव तैयार नहीं की जाती। जिस पर जीवन रूपी मकान कभी भी तैयार नहीं किया जा सकता। मैं पूर्णतः शिक्षण संस्थानों को दोषी नहीं मानता, इनके साथ-साथ मीडिया, सोशल मीडिया और मां-बाप भी बराबर के दोषी हैं जो इन युवा पीढ़ी को बिगाड़ने में बराबर के सरीख हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया तो अपना धंधा कर रहे हैं जिसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। क्योंकि इनका धंधा इन्हीं युवा वर्ग के कंधें पर टिका हुआ है। वैसे एक मीडिया अभी तक कम था कि दूसरा मीडिया भी अपना जाल बिछाकर दूर से तमाशा देख रहा है कि यह युवा पीढ़ी किस तरह से उनके बिछाए हुए जाल में फंसते जा रहे हैं। वहीं इनके मां-बाप कुछ अनभिज्ञ तो कुछ देखकर अनदेखा करने वाले भी हैं। नहीं तो बच्चों की थोड़ी-सी जिद और मोबाइल पकड़ा दिया जाता है या फिर पता नहीं कहां से मंहगे-मंहगे मोबाइल आ जाते हैं। कभी गौर किया है, कभी यह भी गौर किया है कि हमारा बच्चा रात में इतनी देर कहां और किससे बात कर रहा है। इतनी देर इंटरनेट पर हर दिन क्या खोजा जा रहा है। साथ-ही-साथ यह भी की हमारा बच्चा स्कूल, कॉलेज के बाद कहां और किसके साथ रहता है। जबाव हमेशा नहीं में आएगा। क्यों इसका कारण उन्हें खुद भी नहीं पता। या फिर कभी पता करने की फुर्सत ही नहीं मिली कि हमारा बच्चा क्या-क्या कर रहा हैं।
यहां आंखों देखा कुछ हाल ब्यां करूं कि मैं एक शहर गया जहां अधिकांश लड़कियां अपना मुंह ढ़के हुए थी, जबकि इस बारिस के मौसम में और मुंह को ढ़कना, कुछ अजीब-सा लगा। अगले दिन एक माॅल गया तो देखा कि एक 13-14 साल की लड़की दो लड़कों के साथ बैठी हुई थी, चूंकि लड़की एक लड़के का हाथ अपने हाथ में थामे हुए थी तो मेरी दृष्टि उस लड़की के हाथों पर जा थमी। हाथों को देखकर मैं दंग रह गया क्योंकि लड़की के दोनों हाथ जगह-जगह से कटे हुए थे जैसे कि ब्लेड से कहा हो। कुछ देर देखने के बाद वहां से हटा तो मॉल में बहुत-सारे जोड़े हाथों में हाथ डाले दिखाई दिए। सोचा यहा का रिवाज ही होगा। कुछ समय के उपरांत में मॉल के वॉसरूम गया तो वहां का नजारा और भी देखने लायक था। शर्म, लाज, हया जैसे चने के झांड़ पर टांग दी हो दोनों ने। इसके अलावा में यहां कुछ भी ब्यां नहीं कर सकता। जिसको देखकर सिर्फ और सिर्फ अनदेखा ही किया जा सकता है। फिर दिमाग उस लड़की के हाथों पर जा थमा कि क्या लड़की के मां-बाप की नजर उसके कटे हुए हाथों पर कभी नहीं पड़ी होगी, कि इसका हाथ कैसे कट गया या क्यूं काट लिया, कारण कुछ भी रहे हों।
ऐसे-ऐसे हजारों कारण जिसकी वजह से यह युवा पीढ़ी अपना जीवन दांव पर लगा रही है। कुछ प्यार के नाम पर, कुछ शारीरिक पूर्ति के नाम पर तो कुछ मॉर्डन दिखने-दिखाने के नाम पर। कुछ-न-कुछ तो करना होगा। जो सिर्फ और सिर्फ मां-बाप ही कर सकते हैं। पहरा नहीं बैठाइए अपितु अच्छे-बुरे में फर्क तो करा ही सकते हैं। ताकि इनका जीवन और देश का भविष्य बचा रह सके।
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