एक बदलाव : पुरूषवादी समाज का खात्मा
समकालीन समाज की जब रचना की गई होगी तब नारी को एक औहदा, एक सम्मान की दृष्टि से देखा गया होगा? जहां वह पूज्यनीय थी और भेदभाव से परे। यह सभी जानते है कि धीरे-धीरे इनके अधिकारों का दोहन किया गया, जिससे इनकी स्थिति बद-से-बदतर होती चली गयी। नारी ने इसे अपनी नियति मानकर, सहना सीख लिया। वहीं से नारी के शोषण की दास्तां की कहानी शुरू होती है।
शोषण के दास्तां की कहानी में लगातर चढ़ाव ही देखा गया है। नारी शुरू से ही दान की वस्तु के रूप में पहचान दी गई, कि वह कोई इंसान नहीं बल्कि एक दान की वस्तु है जिसे उसके परिजन जब चाहें जिसे सौंप या बेच सकते हैं। यानि एक पालतू जानवर की भांति अपने मालिक द्वारा दूसरे मालिक के सुपूर्द कर दी जायेगी। और इसके विरोध में वह कभी आवाज नहीं उठायेगी। क्यों उठायेगी, करेगी बर्दास्त अपने ऊपर होने वाले अत्याचार को। क्योकि वह तो एक वस्तु है जिसे दान कर दिया जाता है और उसके ऊपर अब केवल उस व्यक्ति का अधिपत्य रह जाता है जिसको दान कर दी गई है या बेच दी गई है।
नारी बेचे जाने के आलोच्य में देखा जाये तो नारी को बेचने और खरीदने का अपना एक इतिहास रहा है जहां नारियों को नीलाम करने के लिए मंडियां सजती थीं तथा खरीददारों द्वारा बोलियां लगायी जाती थी। इस नीलामी का अपना एक नियम यह था कि जिस नारी की उम्र जितनी कम होगी उसकी नीलामी की कीमत उतनी ही अधिक और जिसकी उम्र अधिक उसकी नीलामी उतनी ही कम। खरीदने और बेचने का सिलसिला यहीं नहीं थमता था, यह लगातार चलता रहता था। जब चाहा खरीद लिया, इस्तेमाल किया, मन भरने के उपरांत या अपने ऊपर चढ़े हुए कर्ज को चुकता करने के लिए बेच दिया जाता था या महाजनों द्वारा छीन लिया जाता था। ऐसे नहीं तो वैसे, वैसे नहीं तो ऐसे। पुरूष समाज की चक्की में पीसना केवल नारी को ही पड़ता था।
धयात्व है कि धीरे-धीरे समाज का विकास हुआ और पश्चिमी सभ्यता की हवाओं ने नारी के शोषण को कुछ हद तक कम करने का प्रयास किया, इसके बावजूद अत्याचारों की पृष्ठभूमि को पुरूष समाज ने एक के बाद एक दीवारों की तरह खड़ा करता चला गया। जिसको गिरा पाना नारियों के बस के बाहर की बात है। हालांकि इन दीवारों में नारियों ने सुराग तो कर लिये हैं और दीवारों में कर चुकी छोटे-छोटे सुरागों से नारी उस पार की स्वतंत्र जिंदगी को जीने के तरीके खोजती नजर आ रही है। वहीं पुरूष समाज इन सुरागों को पाटने के लिए न जाने कितने प्रकार की सीमेंटों का इस्तेमाल कर रहा है ताकि यह नारी उस पास की स्वतंत्रता को देखकर बगावत न करने लगे।
यह बात सही है कि कुछ नारियों ने इन दीवारों में इतने बड़े होल करके आपने आपको दीवार के उस पर कर लिया है और कुछ नारियां इन छोटे-छोटे दराचों से झांककर ही अपनी जिंदगी में बदलाव ला रही हैं। फिर भी इनका प्रतिशत जनसंख्या के हिसाब से न के बराबर है। इन थोड़े से सुराखों से आये बदलाव से पुरूष समाज विचलित हो उठा है वह इस बदलाव को रोकने के लिए नारियों को ही खत्म करने पर आमदा है, न नारी रहेगी न ही बदलाव देखने को मिलेगा। पुरूष वर्ग लाख प्रयास कर ले, दबा ले, मार-पीट कर ले, कितने भी अत्याचार कर ले, फिर भी बदलाव तो साफ देखा जा सकता है। आज नारी पुरूषों के साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर बराबर में चल रही है या यूं कहें कि विकृत पुरूषवादी समाज के मुंह पर तमाचा मारती हुई उनको उसने बहुत ही पीछे छोड़ दिया है तथा अपनी जिंदगी स्वतंत्र रूप से जीने की कोशिश कर रही हैं और जी भी रही हैं।
वैसे पुरूषवादी समाज को यह कहां बर्दास्त होगा कि अभी तक पैरों की जूती समझी जाने वाली नारी, जिसके परिप्रेक्ष्य में मनु ने भी कहा था कि, नारी को बाल्यावस्थ में पिता, किशोरावस्था में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में ही रहेगी। वो अब उनके सिर पर पड़ने लगी है जिसकी मार से संपूर्ण पुरूषवादी समाज सकते में है कि यह कौन सा ज्वालामुखी है जो फटने वाला है। फटेगा और जरूर फटेगा क्योंकि पुरूषवादी समाज ने सदियों से इस ज्वालामुखी को दबा कर रखा है जो अंदर-ही-अंदर धधकता हुआ लावा बन चुका है बस फटने की इंतजार है। क्योंकि हम जिस चीज को जितना दबाने का प्रयास करते हैं वो उतनी ही तेजी से हमारे सामने परिलक्षित होती है। देखना तो अब यह है कि बदलाव के इस ज्वालामुखी में विस्फोट कब होगा और इसकी चपेट में कौन-कौन आता है।
कहीं इस भीषण विस्फोट की चपेट में पुरूषवादी समाज के साथ-साथ नारी भी अपना अस्तित्व न खो दे जिसको पाने के लिए वह सदियों से प्रयास कर रही है और शोषण को सह रही है। वैसे यह एक विचारणीय प्रश्न हो सकता है। हालांकि अब कुछ भी नहीं हो सकता, बस विस्फोट का इंतजार ही किया जा सकता है। शायद इस विस्फोट के बाद कहीं कुछ बच जाये। जहां से दोनों वर्ग पुनः इंसान की भांति स्वच्छ, समान और स्वतंत्र जिंदगी की शुरूआत कर सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मानों सब कुछ खत्म???????????????????
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