5 नवम्बर, 2000 से सरकार के खिलाफ अनशन पर बैठी इरोम शर्मिला आज भी 11 साल बाद अपने अधिकारों की लड़ाई लड़े जा रही है. और इंफाल के जबाहर लाल नेहरू अस्पताल में आज भी जिंदगी और मौत से जंग लड़ रही है. जिसकी सुध-बुध लेना किसी ने मुनासिब नहीं समझा. चाहे सरकार हो या फिर मीडिया. कहने को तो मीडिया समाज में व्याप्त बुराईयों को दूर करने में मद्दगार साबित होता है परंतु ऐसा मीडिया किस काम का जो केवल अपने मतलब के लिए ही काम करें, जिसका समाज से कोई सरोकर न हो. वैसे कानून समाज में अपराध कम करने के एवज में बनाये जाते हैं, जब सरकारी तंत्र द्वारा ही मानवीय अधिकारों का हनन किया जाने लगे तो आम जनता किस के सामने अपनी फरियाद लेकर जाए. यह एक शोध का विषय हो सकता है. जिस पर गहन चिंतन की आवश्यकता जरूरी है.
अगर पूरे मामले पर विस्तार से गौर किया जाए तो हकीकत खुद-ब-खुद सबके सामने आ जाएगी कि जब से सरकार द्वारा मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पारित किया गया. और जिसका फायदा उठाकर सशस्त्र बलों ने 11 लोगों को दिन दहाड़े गोलियों से भून दिया. यह एक घटना नहीं थी बल्कि ऐसी बहुत-सी मानवाधिकार हनन की घटनाये आये दिन मणिपुर में होती रहती हैं; इसी के विरोध में इरोम शर्मिला चाहती है कि मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (ए.एफ.एस.पी.ऐ.) को हटा दिया जाए. जिसके तहत अशांत घोषित क्षेतों में सशस्त्र बलों को विशेष शक्तियां प्राप्त होती हैं. और वह राज्य सरकार के कानून के उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई कर सकते हैं भले ही इसमें किसी की जान क्यों न चली जाए. इसका परिणाम यह है कि सैनिक दल इसका दरूपयोग करते हैं. और इस कानून की आड़ में हत्या, बलात्कार, र्टाचर, गायब कर देना और गलत गिरफतारी जैसे कार्य सशक्त बलों द्वारा अंजाम दिए जाते हैं.
सरकार द्वारा गठित सशक्त बल विशेषाधिकार अधिनियम (ए.एफ.एस.पी.ए.) के जवानों द्वारा लगातार मानव अधिकारों का हनन किया जा रहा है जिस पर मीडिया लगातार चुप्पी साधे हुए है, ऐसी कौन-सी मजबूरी है जिसके कारण 11 सालों से मीडिया में इरोम शर्मिला लगभग पूरी तरह से नदारत रही. उसकी मांग के समर्थन में कुछ एक लोगों के आवाज उठायी, मगर मीडिया मुंह पर ताला लगाए हुए नजर आता रहा. जिस तरह से मीडिया ने अन्ना हजारे के अनशन को तबज्जों दी, और सरकार को आखिरकार अन्ना हजारे के पक्ष में झुकना ही पड़ा. वही मीडिया ने इरोम शर्मिला के 11 साल से चले आ रहे अनशन को दी, नहीं, बिलकुल नहीं दी. अगर मीडिया थोड़ा-सा ध्यान इरोम शर्मिला के अनशन पर केंद्रित करता तो कब का इस महिला को अधिकार मिल गया होता और सरकार ने इस महिला की मांग मान ली होती. परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. न तो मीडिया ने तबज्जो दी और न ही सरकार ने इसकी मांगों को जायज माना.
इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो मीडिया का चरित्र उसकी भूमिका पर सवालिया निशान लगता है, कि ऐसे वो कौन-से मूल कारण है जिसकी वजह से मीडिया इन मांगों को उठाने में कोताही बरत रही है. क्या मीडिया का फर्ज पीडि़तों को न्याय दिलाने का नहीं बनता. ऐसे बहुत-सारे सवाल हमारे जहन में अक्सर उठते रहते हैं, कभी सरकार से तो कभी मीडिया से. वही साल-दर-साल इरोम शर्मिला पूरे मणिपुर को अधिकार दिलाने के लिए अकेले अनशन पर बैठी है. अपनी जिंदगी, अपना परिवार, सबका मोह त्यागकर. क्या कभी हम इस महिला का वो मूल्यावान समय वापस लौटा सकेंगे. जो इसने गंवा दिये, सरकार के खिलाफ लड़ते-लड़ते, अपनी मांगों को लेकर. और मीडिया चुप्पी साधे तमाशबीन की भांति तमाशा देख रहा है. शायद आशा करता हो की कहीं कोई सनसनी खबर मिले जिस पर एक-दो दिन बहस की जा सके. इरोम शर्मिला में क्या रखा है. जैसे 11 साल बीत गये वैसे ही और साल बीत जायेंगे. इनका क्या बिगड़ने वाला है. तभी तो एक सिरे से नदारत है मीडिया से इरोम चानू शर्मिला.
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