सरोकार की मीडिया

test scroller


Click here for Myspace Layouts

Thursday, August 30, 2012

बच्‍चों को बिगाड़ने में मां-बाप भी बराबर के जिम्मेदार

बच्‍चों को बिगाड़ने में मां-बाप भी बराबर के जिम्मेदार
समाज, एक विशाल समूह अपने में समेट हुए है जहां हर प्रकार के लोग अपनी जीवकोपार्जन अपनी योग्यता और क्षमता के मुताबिक काम करके चलाते हैं। समाज के विशालतम समूह में सभी वर्गों का समावेश है और योगदान भी। जिसकी वजह से समाज, समाज कहलाता है। इस समाज का एक वर्ग जिसके कंधों पर देश का भविष्य टिका हुआ है। मैं बात कर रहा हूं आज की उभरती हुई युवा पीढ़ी की। जो आज अपने ही नशे में चूर दिखाई दे रही है। नशा किसी का भी हो चढ़ता जरूर है ज्यादा नशा सेहत के लिए भी हानिकारक होता है। बुजुर्गो ने सही कहा है कि हर चीज की अति बुरी होती है। हालांकि युवा पीढ़ी बुजुर्गों के विचारों से सरोकार कहां रखती है। उन्हें तो यह सब प्रवचन से लगते हैं जो सुबह-सुबह टेलीविजन पर प्रसारित होते रहते हैं। मैं प्रवचनों को सुनने की बात पर जोर कदापि नहीं दे रहा हूं कि युवा पीढ़ी को प्रवचन और बाबाओं के झमेले में पड़ना चाहिए, परंतु इतना जरूर कह रहा हूं कि ज्ञान की प्राप्ति जहां कहीं से हो उसे ग्रहण अवश्य करना चाहिए। इस ज्ञान की पराकष्ठा में अच्छी-बुरी सारी चीजें समाहित हैं और हमें स्वयं तय करना है कि किस ज्ञान को ग्रहण किया जाए और किसका परित्याग।
वैसे आज ज्ञान और रहन-सहन का तरीका बिल्कुल बदल चुका है। शिक्षण संस्थानों में ज्ञान के नाम पर बच्चों के मां-बाप को लूटने का अड्डा बना लिया है जहां शिक्षा देने के नाम पर मोटी-मोटी फीस वसूली जाती है और ज्ञान की हासिल शून्य ही रहती है। बच्चें जो भी कुछ सीखते हैं उसमें पास करना पास करना इस संस्थानों की मजबूरी होती है तभी तो यह दिखा सकते हैं कि हमारे संस्थानों का प्रतिशत इतना आता है। वैसे इन शिक्षण संस्थानों में ज्ञान के अलावा रासलीला पर कुछ ज्यादा ही तबज्जों दी जाती है। ऐसा मुझे लगता है। ऐसे लगने के कई कारणों से आप लोगों को में अवगत करा सकता हूं। वैसे इस सभी कारणों से आप सब भी भलीभांति परिचित जरूर होगें। फिर भी आप सबने देखकर अनदेखा कर दिया होगा। इसी अनदेखेपन ने युवा पीढ़ी में जिस तरह का परिवर्तन या छूट दी है उन सब के जिम्मेवार हम सब भी उतने ही हैं जितनी की यह युवा पीढ़ी।
हालांकि समय के साथ-साथ परिवर्तन होना स्वाभिक है परंतु इस तरह का परिवर्तन जो आने वाली भावी युवा पीढ़ी को ही अंधकार की ओर अग्रसर करें, उजाले की ओर तो बिल्कुल नहीं। क्योंकि शिक्षण संस्थानों में तो रास-लीला रचाई जाने लगी है, ज्ञान की नींव तैयार नहीं की जाती। जिस पर जीवन रूपी मकान कभी भी तैयार नहीं किया जा सकता। मैं पूर्णतः शिक्षण संस्थानों को दोषी नहीं मानता, इनके साथ-साथ मीडिया, सोशल मीडिया और मां-बाप भी बराबर के दोषी हैं जो इन युवा पीढ़ी को बिगाड़ने में बराबर के सरीख हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया तो अपना धंधा कर रहे हैं जिसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। क्योंकि इनका धंधा इन्हीं युवा वर्ग के कंधें पर टिका हुआ है। वैसे एक मीडिया अभी तक कम था कि दूसरा मीडिया भी अपना जाल बिछाकर दूर से तमाशा देख रहा है कि यह युवा पीढ़ी किस तरह से उनके बिछाए हुए जाल में फंसते जा रहे हैं। वहीं इनके मां-बाप कुछ अनभिज्ञ तो कुछ देखकर अनदेखा करने वाले भी हैं। नहीं तो बच्चों की थोड़ी-सी जिद और मोबाइल पकड़ा दिया जाता है या फिर पता नहीं कहां से मंहगे-मंहगे मोबाइल आ जाते हैं। कभी गौर किया है, कभी यह भी गौर किया है कि हमारा बच्चा रात में इतनी देर कहां और किससे बात कर रहा है। इतनी देर इंटरनेट पर हर दिन क्या खोजा जा रहा है। साथ-ही-साथ यह भी की हमारा बच्चा स्कूल, कॉलेज के बाद कहां और किसके साथ रहता है। जबाव हमेशा नहीं में आएगा। क्यों इसका कारण उन्हें खुद भी नहीं पता। या फिर कभी पता करने की फुर्सत ही नहीं मिली कि हमारा बच्चा क्या-क्या कर रहा हैं।
यहां आंखों देखा कुछ हाल ब्यां करूं कि मैं एक शहर गया जहां अधिकांश लड़कियां अपना मुंह ढ़के हुए थी, जबकि इस बारिस के मौसम में और मुंह को ढ़कना, कुछ अजीब-सा लगा। अगले दिन एक माॅल गया तो देखा कि एक 13-14 साल की लड़की दो लड़कों के साथ बैठी हुई थी, चूंकि लड़की एक लड़के का हाथ अपने हाथ में थामे हुए थी तो मेरी दृष्टि उस लड़की के हाथों पर जा थमी। हाथों को देखकर मैं दंग रह गया क्योंकि लड़की के दोनों हाथ जगह-जगह से कटे हुए थे जैसे कि ब्लेड से कहा हो। कुछ देर देखने के बाद वहां से हटा तो मॉल में बहुत-सारे जोड़े हाथों में हाथ डाले दिखाई दिए। सोचा यहा का रिवाज ही होगा। कुछ समय के उपरांत में मॉल के वॉसरूम गया तो वहां का नजारा और भी देखने लायक था। शर्म, लाज, हया जैसे चने के झांड़ पर टांग दी हो दोनों ने। इसके अलावा में यहां कुछ भी ब्यां नहीं कर सकता। जिसको देखकर सिर्फ और सिर्फ  अनदेखा ही किया जा सकता है। फिर दिमाग उस लड़की के हाथों पर जा थमा कि क्या लड़की के मां-बाप की नजर उसके कटे हुए हाथों पर कभी नहीं पड़ी होगी, कि इसका हाथ कैसे कट गया या क्यूं काट लिया, कारण कुछ भी रहे हों।
ऐसे-ऐसे हजारों कारण जिसकी वजह से यह युवा पीढ़ी अपना जीवन दांव पर लगा रही है। कुछ प्यार के नाम पर, कुछ शारीरिक पूर्ति के नाम पर तो कुछ मॉर्डन दिखने-दिखाने के नाम पर। कुछ-न-कुछ तो करना होगा। जो सिर्फ और सिर्फ मां-बाप ही कर सकते हैं। पहरा नहीं बैठाइए अपितु अच्छे-बुरे में फर्क तो करा ही सकते हैं। ताकि इनका जीवन और देश का भविष्य बचा रह सके।

Tuesday, August 21, 2012

इस दोस्ती और प्यार को क्या नाम दूं


इस दोस्ती और प्यार को क्या नाम दूं
जीवन के सुख-दुःख, उतार-चढ़ाव, अच्छे-बुरे हर पले में साथ निभाती, ईश्वर की असीम कृपा से फलती-फूलती और जाति, धर्म, ऊंच-नीच, छुआछूत, भेदभाव से पूर्णतः मुक्त यह ऐसा बंधन है जो एक बार जुड़ जानं के पश्चात् हमारे शरीर से आत्मा के त्याग देने के उपरांत भी हम से जुड़ा रहता है। जिसको हम दोस्ती ने नाम से सुशोभित करते हैं। दोस्ती के खातिर ही हम सब कुछ उस पर निछावर करने को हमेशा तत्पर्य रहते हैं ताकि हमारे दोस्त हमेशा खुश रहें, उन पर किसी प्रकार की विपदा न आने पाए। इसकी मिशाल हम कृष्ण-सुदामा, दुर्योधन-कर्ण आदि के रूप में दे सकते हैं। परंतु इस ग्लोबल विजेल की दुनिया में दोस्ती के मायने बदल से गए हैं। अब दोस्ती सिर्फ-और-सिर्फ मतलब की पृष्ठभूमि पर गठित होती है। जिसको समझौते का गठबंधन कह सकते हैं दोस्ती नहीं। काम पूर्ण होते ही यह समझौता भी खंड-खंड में विभाजित हो जाता है। यदि काम पूर्ण होने के पश्चात् कहीं कुछ बच जाए तो समझ लीजिए अभी और काम का समापन होना बाकी है। जिसको कुछ नहीं, हम सभी दोस्ती की संज्ञा देते हुए नहीं थकते हैं। मेरी इस बात से मुझे लगता है कि लगभग सभी लोग सहमत होगें क्योंकि दोस्ती सिर्फ दोस्ती नहीं, लेन-देन का जरिया मात्र बन चुकी है लेन-देन जारी तो दोस्ती, लेन-देन खत्म तो दोस्ती भी खत्म।
इसी क्रम में प्यार को भी शामिल कर लिया जाए तो ठीक रहेगा कि प्यार में भी वो बात नहीं रही, जिसकी मिशाले हम दिया करते थे। राधे-कृष्ण, लैला-मंजनू, हीर-राझा। दोस्ती से शुरू हुआ यह प्यार एक प्रकार का विपरीत लिंग के प्रति झुकाव मात्र है जिसकी पृष्ठभूमि हमारी गली-मोहल्लें से गुजरती हुई कॉलेज, विश्वविद्यालयों, पव, डिस्कों आदि में हर रोज देखी जा सकती है। कि किस प्रकार लड़के-लड़कियां एक-दूसरे से पहले दोस्ती फिर धीरे-धीरे प्यार के जाल में फंसने लगते हैं। इस प्यार के नाम पर न जाने क्या-क्या होता है और हो रहा है। थोड़ी हकीकत से रूबरू करवाऊं तो दिमाग सकते में चला जाएगा। चाहे वह लड़की हो या लड़का। वैसे मेरा मकसद किसी की पिछली जिंदगी के व्यतीत पल को उजागर करके ठेस पहुंचना कदापि नहीं है। फिर भी किसी को ठेस पहुंचे तो तहे दिल से मांफी मांगने का हकदार जरूर हूं। हां तो मैंने कहा कि इस प्यार के नाम पर न जाने क्या-क्या हो रहा है, यह एक हकीकत है। मैं जिस विश्वविद्यालय में पढ़ता था वहां बहुत-सारे प्यार के जोड़े भी थे। जिसको संख्या में व्यक्त कर पाना असंभव है। हालांकि प्यार था उनके बीच और इस प्यार के नाम पर सब कुछ हो रहा था जो होना चाहिए वो और जो शादी के बाद होना चाहिए वह भी। क्योंकि प्यार हैं। पंरतु मुझे इस प्यार की वास्तविक गहराई का पता आज तक नहीं लग सका, शायद मैं इस गइराई में उतरने से डरता रहा, तभी तो धरातल पर ही बैठा रहा। और देखता रहा क्या-क्या हो रहा है। कभी एक तो कभी दूसरा, कभी-कभी तो तीसरा और चैथा। साल, महीने और हफ्तों में यह प्यार के जोड़ बदलते गए। प्रेमी-प्रेमिकाएं बदलती गई। मैं बहुत सारे लड़के-लड़कियों को जानता हूं जिनके एक के साथ नहीं दो और दो से अधिक लोगों के साथ संबंध रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में लड़कियों का यह सिलसिला शादी के बाद बहुत हद तक कम हो जाता है वहीं लड़कों का शादी के बाद भी निरंतर जारी रहता है। हां कुछ गति के वेग में गिरावट जरूर आती है पर पूर्णतः नहीं।
इसके लिए हम पश्चिमी सभ्यता को दोषी नहीं ठहरा सकते। इसके लिए यह युवा पीढ़ी ही जिम्मेवार है जो प्यार के नाम पर अपनी शारीरिक जरूरतों की पूर्ति कर रहा है और उसे प्यार का नाम दे रहा है। यह बात सोलह आने सच है कि प्यार और जवानी छुपाए नहीं छुपते। मेरे हिसाब से तो जवानी छुपे या न छुपे, प्यार जरूर छिपा रहना चाहिए, ताकि इनके पिछले पवित्र रिश्तों के बारे में मौजूदा पति-पत्नी को पता न चले। नही ंतो कुछ हो न हो विघटन होना स्वाभिक है। इसके भी बहुत हद तक लड़कियां अपने पति की पिछली जिंदगी को भूला देती हैं परंतु पति कभी नहीं। विघटन तो होना ही है। जिंदगी के बीच मझधार में नांव फंस जाती है जिसको डूबना ही है पार लगने की संभवना नहीं रह जाती है। क्योंकि यह भंबर पिछले प्यार की देन है।
हालांकि इस विघटन के भंबर से बचा जा सकता है कि अपनी पिछली जिंदगी के बारे में पति या पत्नी से सब कुछ बात दें। लड़कियां नहीं, क्योंकि ऐसा करने से उनके चरित्र और परिवार की साख दाव पर लग जाएगी। वहीं पति रावण ही क्यों न हो उसे सीता ही चाहिए। वैसे दुध का धुला कोई नहीं है हमाम में सब नंगे हैं। चाहे मैं हूं या आप। फिर भी पवित्र प्यार के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसको रोकना होगा। नहीं तो प्यार धंधे का रूप अपना लेगा और यह मात्र जिस्मों की भूख मिटाने का एक जरिया बनकर रह जाएगा।

डॉ. गजेन्‍द्र प्रताप सिंह
09889994337

Friday, August 17, 2012

एक हों और करें जाति व्यवस्था को पूर्णतः समाप्त


   एक हों और करें जाति व्यवस्था को पूर्णतः समाप्त
भारतीय संस्कृति और सभ्यता में मानव का उदय आदिकाल से हुआ है जहां मानव समाज अपनी जीविका हेतु फल-फूल, कच्चा मांस आदि पर निर्भर रहता था। तन नग्न और दिमाग पूर्ण रूप से अविकसित था। धीरे-धीरे ज्ञान की पराकष्ठा और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुओं की खोज का क्रम जारी होने लगा। जिनती आवश्यकता उतना ही खोज, यानि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी के रूप में इनके समक्ष परिलक्षित होती गई। सभ्यता और विकास की आधारशिला पर यह मानव जाति धीर-धीरे अग्रसरित होने लगी। अग्रसरित होने के इस क्रम में मानव ने अपना पूर्ण विकास भी कर लिया। विकास के धरातल पर जिसने जितना विकास किया वह उतना शक्तिशाली होता गया। यहीं से कार्यों का विभाजन भी किया जाने लगा, कि कौन-कौन और कौन-सा वर्ग क्या-क्या काम करेगा। उस समय सभी कार्यों को एक समान दृष्टिकोण से देखा जाता था तथा जातिगत समस्या भी नहीं थी। परंतु शक्तिशाली लोगों ने कार्यों के साथ-साथ जातिगत व्यवस्था को जन्म देना प्रारंभ कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि जो निम्न स्तर पर काम करते थे उनको निचली जाति, जो उससे ऊपर उनको पिछड़ी जाति तथा जो सत्ता या सत्ता चलाने में शक्तिशाली लोगों की मदद करते थे उनको उच्च जाति में विभाजित कर दिया गया।
यहीं से जातिगत व्यवस्था का उद्य हुआ और धनाढ्य वर्ग ने निम्नवर्गों के लोगों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। अब यह निम्न वर्ग इनके रहमोकरम पर ही अपना और अपने वर्ग का जीवन यापन करने पर मजबूर थे। वहीं शक्तिशाली लोगों को ज्ञान का पाठ्य पढ़ाकर यह भी करवा दिया गया कि जो निम्न हैं उन पर उसी तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए, ज्ञान इनके आस-पास नहीं भटकना चाहिए। उनका दास/गुलाम बनाकर रखना चाहिए, नहीं तो यह भी हमारे बराबर में खड़े होने लगेंगे, व्यवस्था चरमरा जाएगी। इस ज्ञान की दक्षिणा से हुआ भी कुछ ऐसा ही, कि उनको सत्तारूढ़ी वर्गों ने अपना गुलाम बनाकर उन पर शासन चलना शुरू कर दिया। इसी क्रम में जाति के अंतर्गत जाति पनपने लगी। यानि निम्न जाति में भी मानवजाति को जातियों के अंतर्गत विभाजित कर दिया गया। एक जाति क्या कम थी जो जातियों में बांट दिया गया। अब स्थिति पहले जैसी कदापि नहीं रही। कैसे रह सकती थी। एक जाति फिर उसमें भी बहुत सारी जातियां।
यह कहना गलत नहीं है कि मानव समुदाय में जाति के अंतर्गत जातियां होने के कारण जानवरों से बदतर जीवन यापन करता है क्योंकि जानवरों में जातियां नहीं होती हैं हां प्रजातियां जरूर पायी जाती हैं। इस जानवरों से बदतर जीवन को जीने के लिए हमारा मावन समाज ही मजबूर करता है और करता आया है। इस जातिगत व्यवस्था और ऊंच-नीच की खाई में एक और ऐसी व्यवस्था का उद्य किया गया जिसे हम छुआछूत कहते हैं। यह छुआछूत किसी बीमारी के चलते नहीं बल्कि मानव द्वारा मानव से ही थी। जबकि जानवरों में ऐसी कोई छुआछूत की व्यवस्था नहीं पायी जाती है। परंतु मनुष्यों में यह सदियों से भलीभूत होती रही है। यह आजादी के बाद भी कुछ एक जगहों पर अब भी देखी जा सकती है। रही बात जाति व्यवस्था कि तो सदियों से मुंह बायें चली आ रही यह व्यवस्था आजादी के 66वर्षों के बाद भी मुंह बायें ही खड़ी है। टस से मस नहीं हुई है। जिसको अभी तक पूर्ण रूप से खत्म हो जाना चाहिए था वह अपने यथा स्थान पर बनी हुई के साथ-साथ अब तो जातिगत आधारित लोगों का भी जन्म हो चुका है। पहले मंदिर-मस्जिद बनते थे अब जातिगत पार्टियों का बोलबाला हो चला है। इस आलोच्य में कहें तो एक ऐसा झुड़ जो केवल और केवल अपनी जाति तक ही सीमित है। यह झुड़ जातिगत व्यवस्था में घी का काम कर रहा है। चाहे इस घी की प्रचंड अग्नि में भारत स्वाहा क्यों न हो जाएं।
वैसे जो स्थिति दिखाई दे रही है वह भयावह होती जा रही है। एक जुट भारत की नींव में अब दरारें दिखाई देने लगीं हैं। और इस दरारों में से सिर्फ-और-सिर्फ भारत का बंटबारा ही दिखाई दे रहा है वह भी जातिगत बंटबारा। आओं हम सब एकजुट हो और संकल्प लें, इस जातिगत व्यवस्था के खिलाफ ताकि भारत के टुकडे़-टुकड़े होने से इसे बचाया जा सके।

Wednesday, August 15, 2012

आज़ाद भारतः गुलामी की ओर अग्रसरित


आज़ाद भारतः गुलामी की ओर अग्रसरित
आज़ाद भारत में जीने के बावजूद हम सभी को किसी न किसी से आज़ादी चाहिए-ही-चाहिए। नेताओं से, भ्रष्टाचार से, जीवन से, परिवार से, पति से, पत्नी से, जेल से, अस्पताल से, भीड़भाड़ से, जाति-धर्म से, आतंकवाद से और ऐसी ही बहुत सारे चाजों से हमें आज़ादी चाहिए। वैसे 15 अगस्त, आज़ादी का दिन जिसकी पृष्ठभूमि न जाने कितने शहीदों की शहादत से मिली है। आज से ठीक 66 साल पहले हमें यह दिन देखना नसीब हो सका। जिसे हमें स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन को मानने के मूल कारण हम सभी को अंग्रेजों की जुल्म भरी हुकूमत से मिली वह आज़ादी है जिसे पाने के लिए हमने न जाने कितने प्रयास किए, न जाने कितने अत्याचारों, शोषण को सहा और न जाने कितने लोगों ने अपने जीवन तक को बलिदान कर दिया। तब जाकर हमें यह दिन नसीब हो सका। क्योंकि वह चाहते थे कि हमारी आने वाली पीढ़ी इस अत्याचार और जुल्मों-सितम की दहशत से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से जीवन जी सके। हुआ भी कुछ ऐसा ही, हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानियों (गरम दल व नरम दल) ने अपने-अपने योगदान सं अंग्रेजों को इतना विवश कर दिया कि आखिरकार उनको भारत छोड़कर जाना पड़ा।
हुए, आज़ाद हुए, सभी ने जश्न मनाया आखिर मानते क्यों नहीं, एक लंबे जुल्मों-सितम की इबारत के बाद मुक्ति जो मिली थी। सभी खुशी के जश्न में डूबे थे वहीं पुनः इन लोगों केां गुलाम बनाने की कवायत यानि रणनीति बनाई जा रही थी। जिससे हम सभी अनभिज्ञ थे पर कुछ विद्वतजन अंजान नहीं थे। उन्हें यह एहसास अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले ही हो चला था कि आज़ादी मिलने के बाद क्या-क्या होने वाला है। उन लोगों ने इस रणनीति (पुनः गुलाम बनाने की कवायत) के खिलाफ आवाज़ भी उठाई, परंतु उस आवाज़ को वहीं दबा दिया गया। लेकिन इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते है हालांकि कहीं-न-कहीं से रह-रहकर यह हमारे सामने आते रहे हैं। जिसे दबाने की भी पुरजोर कोशिशें होती रही हैं।
अंग्रेज भारत को अपनी हुकूमत से मुक्त करके चले तो गए परंतु इसकी सत्ता ऐसे हाथों में चली गई जिसने आज़ादी के पहले ही पुनः गुलाम बनाने की रणनीति तय कर ली थी। हां मैं बात कर रहा हूं हमारे राजनेताओं की। जिनका इस आज़ादी में योगदान न के बराबर रहा, इसके बावजूद कुछ लोगों की राजनीति के चलते उन्हें इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया। वहीं बहुत से ऐसे शहीद जिन्हें इन नेताओं की वजह से आज तक यह स्वतंत्र भारत वह दर्जा नहीं दे सका, जिन लोगों ने हंसते-हंसते फांसी को गले लगा लिया। मैं अगर कहीं गलत नहीं कह रहा हूं तो कुछ लोगों को हर नोट पर पाए जाने राष्ट्रपिता फांसी से बचा सके थे परंतु वह भी नहीं चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में हमारे कार्य-कलाप में यह लोग हस्तक्षेप कर सकें। यानि हमारी मनमानी के खिलाफ कोई भी ऐसा नहीं रहना चाहिए जो आवाज उठा सके। तभी बहुतों को शहीद होना पड़ा।
वहीं इन्हीं नेताओं के वंशागत परम्परावादी, भाई-भतीजेवाद और जनता को लूटकर अपना खजाना भरने के चलते इन शहीदों को आज तक भारत पहचान दिलाने में न कामयाब रहा है। वहीं यह नेता पहले स्वयं फिर उनके बच्चे, फिर बच्चों के बच्चे यही प्रथा धीरे-धीरे चली आ रही है और नेताओं के लूटने का सिलसिला बदस्तूर बिना रोक-टोक के जारी है। एक कहावत कि राम नाम की लूट है लूट सको तो लूट, इक दिन ऐसा आएगा कि प्राण जाएंगें छूट। प्राण जरूर छूट जाएं लूटने का सिलसिला नहीं थमेगा। किन-किन नेताओं का नाम लूं, कि हमारे देश में इस तरह के नेता हमारे ऊपर राज कर रहे हैं। वो जैसा चाहते हैं हम पर हुकूमत कर रहे हैं जैसे अंग्रेज करते थे। कभी गरीबों को लूट कर, कभी जाति-धर्म को आपस में लड़ाकर, तो कभी मासूम जनता पर अत्याचार करवाकर।
मैं यहां एक बात जरूर कहूंगा जिससे बहुत से नेताओं को जो इसमें लिप्त हैं उनको मिर्ची जरूर लग सकती है। कि जितने भी हमले, सांप्रदायिक दंगें, आतंकवादी गतिविधियां होती हैं उन सभी मे कहीं-न-कहीं हमारे नेताओं का हाथ भी हो सकता है। और जब कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है तो उसकी खतीरदारी की जाने लगती है, आखिर दमाद जो हैं तभी तो लाखों रूपए उस आतंवादी पर सरकार खर्च करती है पालती है, ताकि यह पुनः खा पीकर फिर अपनी गतिविधियों को अंजाम दे सकें। वहीं गरीब जनता एक-एक रोटी के लिए अपने शरीर का सौदा करती देखी जा सकती है।
इन आतंकवादी को पालने का मूल मकसद समझ से परे है। इन आतंकवादी के साथी इनको छुड़ाने के लिए कभी मासूम बच्चों को, मंदिरों-मस्जिदों तथा बस, हवाई जहाज आदि को अपना निशान बनाते हैं मजबूर होकर उनको छोड़ना पड़ता है, उनकी शर्तों को मानना पड़ता है। अगर पकड़ने के बाद ही इनको ठिकाने लगा दिया जाए तो शायद ही ऐसी पुनर्वृत्ति हो। पर नहीं सरकार के साथ-साथ यह नेता भी चाहते है कि ऐसा होते रहना चाहिए तभी यह जनता दहशत में रहेगी और हमको ही अपना रहनुमा मानने पर मजबूर होगी। जब कभी इन नेताओं के कुकर्मों के खिलाफ कोई आवाज उठती है ठीक उसी समय ऐसी कार्यवाहियों को अंजाम दिया जाने लगता है। अभी हाल ही की घटनाओं को देखें तो अन्ना और रामदेव ने आवाज उठाई तो पुणे तथा असम में ऐसी घटना घटित होने लगी। ताकि जनता को ध्यान इनसे भटककर इस घटनाक्रम पर केंद्रित हो जाए। अच्छा तरीका अजमाते हैं यह नेता। और अपने गिरेबान को पाक-साफ दिखाने के लिए झूठी दिलासा देते नजर आते हैं। अच्छा धंधा बना लिया है जनता को बेवकूफ बनाने का।
हां आज़ाद भारत की जनता बेवकूफ ही है जो इन नेताओ के झांसे में आसानी से आ जाती है। वहीं जनता की मसूमियत का फायदा उठाकर इनको छलने का काम बिना रोक-टोक के जारी रहता है। अब हलात कुछ अजीबों-गरीब दिखाई दे रहे हैं। कहना गलत नहीं हो तो इन नेताओं की बदौलत हम एक बार फिर से गुलामी की ओर अग्रसरित होते दिखाई दे रहे हैं। अभी भी वक्त है जागने का, इस जातिगत, धर्मवाद की लड़ाई त्यागने का और इन नेताओं के खिलाफ आवाज उठाने का। नहीं तो यह देश को बेच देगें और हम एक बार फिर किसी बाहरी हुकूमत के गुलाम हो जाएंगें। अगर पहाड़ा दूबारा पड़ना हो तो कोई बात नहीं, नहीं तो जागने का वक्त है। जिस आजादी पर हम गुमान कर रहे हैं उसे छिनते देर नहीं लगेंगी यानि हम आजादी से गुलामी की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं। थमना होगा, नहीं तो इतना दूर न निकल जाए कि जहां पर फिर से हमें गुलामों का जीवन जीना पड़े।

Friday, August 3, 2012

कैसे-कैसे लोग पाए जाते हैं इस समाज में.......??


कैसे-कैसे लोग पाए जाते हैं इस समाज में.......??

समाज में कैसे-कैसे लोग रहते, रहते नहीं पाए जाते हैं, यह जानना हो तो यात्रा करते रहना चाहिए। इंसान की हकीकत, उसकी फिदरत, चाल-चलन, रहन-सहन, पारिवारिक संस्कृति और नैतिकता सब कुछ देखकर पता लगाया जा सकता है कि, किस-किस प्रवृत्ति के इंसान इस समाज में वास करते हैं। मुझे यात्रा करने का एक लंबा अनुभव रहा है। मैं ललितपुर से प्रतिदिन 90 किमी. ट्रेन से झांसी एम.ए. व एम.फिल के दौरान पढ़ाई के साथ-साथ यात्रा का भी अनुभव प्राप्त किया। यात्रा के दौरान लोगों के देखकर समझने का भी मौका मिला कि कौन-सा व्यक्ति किस नैचर का है, कौन क्या काम करता होगा। वैसे रेलवे कर्मचारी यानि टिकट चैकिंग स्टाफ को तो दूर से ही पहचान लेता हूं कि यह साधा कपड़ों में टिकट चैकर है।
यात्रा के लगभग साढ़े तीन साल का सफर बहुत से उतार-चढ़ाव के बावजूद अच्छा ही गुजरा। शायद मेरी किस्मत में कुछ ज्यादा ही सफर करना लिखा है तो अभी भी यात्राएं होती रहती हैं। पहले प्रतिदिन होती थी अब महीने में 8-9 हो ही जाती हैं। इसी क्रम के चलते मैं, दिनांक 3 अगस्त, 2012 को अपना बायोडेटा लेकर एस.वी.एन विश्वविद्यालय, सागर देने जाना था। तो सुबह-सुबह ललितपुर स्टेशन पहुंच गया। स्टेशन पहुंचकर पता चला कि कुछ समय के उपरांत सदन एक्सप्रेस आ रही है जो बीना तक पहुंचाएंगी। मैंने सागर का सीधा टिकट ले लिया सोचा कि ललितपुर से बीना और फिर बीना से सागर के लिए रेलगाड़ी देख लूगा। कुछ समय के बाद ट्रेन एक नंबर प्लेटफॉर्म पर आ गई। पहले सोचा कि श्यानकक्ष में बैठ लूगा क्योंकि आमतौर पर जर्नल बोगी बहुत ही भरी आती हैं। परंतु सदन की जर्नल बोगिया लगभग खाली ही जैसी थी जिसमें आसानी से जगह मिल सकती थी। मैं सीधा जर्नल बोगी में जाकर बैठ गया, बैठने के बाद देखा तो एक मित्र भी वहीं पर पहले से बैठा हुआ था तो उससे बाते होने लगी। बातों को सिलसिल लगभग चलता ही रहा। एक घंटे के सफर के बाद ट्रेन बीना स्टेशन पर पहुंच गई। बीना स्टेशन पहुंचकर पता किया कि सागर वाली ट्रेन कब और किस प्लेटफॉर्म पर आएगी, जानकारी मिली कि सागर जाने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म 4 पर खड़ी है और चलने ही वाली है। मैं दौड़कर 4 नंबर प्लेटफॉर्म पर पहुंच गया, ट्रेन खड़ी हुई थी। में एक बोगी में चढ़ गया, चूंकि बरसात के कारण सीटे लगभग गीली ही थी। एक दो सीटें देखने के बाद एक लंबी सीट पर जाकर बैठ गया। जहां पर पहले से एक युवक लेटा हुआ था। सामने वाली सीट पर दो महिलाएं और एक बच्ची बैठी हुईं थीं जिनमें से एक अविवाहित थी। लेटे हुए युवक और उन महिलाओं के बातचीत के पता चला कि एक महिला उस युवक की पत्नी तथा छोटी लड़की उनकी बच्ची है तथा अविवाहित महिला उनके रिश्तेदार की लड़की हो सकती है।
चूंकि युवक पूरी सीट पर लेटा हुआ था तो मैंने कहा कि महोदय आप उठकर बैठ जाए, जबाव मिला तबीयत कुछ खराब है, सिर चकरा रहा है। मानवता के नाते मैंने कुछ कहना मुनासिब नहीं समझा। वहीं छोटी बच्ची अपने खेल में मगन और दोनो महिलाएं आपस में बातचीत में मशरूफ। तभी एक आदमी जो देखने में किसी सभ्य परिवार से लगता था मेरी सामने वाली सीट पर आकर बैठ गया जहां पहले से दोनों महिलाएं बैठी हुई थीं। आदमी बैठने के साथ ही उस अविवाहित महिला से सटकर बैठ गया। पहले उस महिला ने कुछ आपने आपको उस से दूर करने की कोशिश की। इसके उपरांत विवाहित महिला ऊपर वाली खाली सीट पर जाकर लेट गई। तब कुछ जगह हो चुकी थी तो बैठी महिला उससे थोड़ी-सी दूरी बनाकर यानी खिसक गई। ट्रेन कुछ दूरी तय करने के बाद एक स्टेशन पर खड़ी हुई उस स्टेशन से लगभग बहुत से यात्री चढ़े। जिनमें से कुछ मेरी सामने वाली सीट पर, कुछ मेरी सीट पर बैठ गए। पहले से बैठे युवक को जैसे इसी मौके की तलाश थी, धीरे-धीरे उसकी मानसिक प्रवृत्ति उजागर होने लगी। वह अपना हाथ उस लड़के के ऊपरी भाग में फेरना शुरू कर दिया। मैंने सोचा लड़की इसका विरोध करेगी, परंतु मैं गलत था लड़की शांत बैठी, अपने साथ हो रहे अत्याचार को सह रही थी। वह आदमी बिना किसी डर के अपने गलत काम को अंजाम दे रहा था, साथ ही वह लड़की बिना किसी विरोध के उस आदमी को बढ़ावा।
बहुत देर यही सब चलते रहने के बाद सोचा कि क्या कारण हो सकते हैं कि यह लड़की किसी भी प्रकार से विरोध नहीं कर रही है। तभी ख्याल आया कि वास्तव में महिलाओ पर होने वाले अत्याचार की पृष्ठभूमि, कहीं-न-कहीं इनकी सहमति भी होती है, नहीं तो यह लड़की इसका विरोध तो करती। अपने रिश्तेदार को भी बता सकती थी, परंतु नहीं। जैसे चुपचाप सहन करना महिलाओं की नीयती बन चुका है सह रही थी।
उस लड़की के साथ वह आदमी मानसिक बलात्कार कर रहा था और हम जैसे चुपचाप हाथों पर हाथ रखकर बैठे हुए थे। तभी जहन में आया विरोध तो करना ही चाहिए। मैंने उस आदमी के गाल पर एक जोरदार तमांचा जड़ दिया, सारी बोगी सन्न रह गई कि आखिर यह क्या हुआ? किस कारण से इस युवक ने इस आदमी पे हाथ उठा दिया। इतना सब होने के बाद लड़की अभी भी खमोश थी। और उस आदमी के हाथ मेरी गिरेबान पर। समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए तो बताया कि यह ऐसा कर रहा था। इसके बावजूद लड़की ने कुछ नहीं बोला। ले देकर मुझे ही शर्मिन्दा होना पड़ा और माफी भी मांगनी पड़ी।
मामला वहीं खत्म नहीं हुआ, गलती न करने के बाद भी माफी मांगी फिर भी वो आदमी मुझे घमकाता ही जा रहा था। रहा नहीं गया सोचा जो होगा देखा जाएगा। मैंने एक के बाद एक तीन और चांटे रसीद कर दिया और बोला करना हो कर लो। कुछ ही समय के बाद सागर स्टेशन आ जाएगा तुम चाहे तो पुलिस में शिकायत दर्ज करा सकते हो। जब मैंने पुलिस का नाम लिया तो उसकी सट्टी-पिट्टी गुल हो गई। मैं सागर स्टेशन आने के बाद स्टेशन पर उतरा तो लगा अब पुलिस को मामला बनेगा, परंतु वह आदमी न जाने कहां नदारत हो चुका था। मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया चला एक मुसीबत से बचे।
इसके बाद, दिमाग तभी से लड़की के विरोध न करने का कारण नहीं जान सका। कि किस कारण से उसने विरोध नहीं किया और मैं एक बहुत बड़े झमेले मे पड़ सकता था।

Wednesday, August 1, 2012

क्या सजा होनी चाहिए ऐसे शिक्षकों की....???????


क्या सजा होनी चाहिए ऐसे शिक्षकों की....???????
ये वाक्या कल घटित हुआ औ कल ही इसको पोस्ट न करने का मलाल है। वैसे इसको पोस्ट न करने का कारण सभी जानते हैं कि कल समूचे भारते के 22 राज्यों में बिजली गुली थी जिस कारण से में इसको लिखने के बाद पोस्ट नहीं कर सका। अभी कुछ ही समय पहले बिजली की चमक से पता चला कि एक लंबे अंतराल के उपरांत इसका आगमन हो चुका है तो इसको पोस्ट कर रहा हूं।
वैसे यह कोई घटना नहीं है जो किसी प्राकृतिक आपदा के चलते घटित हुई है। यह खबर तो वाकैई में हम सभी को सोचने पर मजबूर कर देगी कि हम अपने बच्चों को शिक्षा दे या नहीं। क्योंकि एक बार फिर से एक शिक्षक ने गुरू और शिष्य के पवित्र रिश्ते को शर्मसार कर दिया। पूरे मामले को विस्तार से कहूं तो जिला ललितपुर जो झांसी से 90 किमी. दूर स्थित है वहां एक कोचिंग संचालक जो छात्र-छात्राओं को अंग्रेजी पढ़ाना व बोलना सिखाते हैं को अपनी शिष्या के साथ अश्लील हरकतें करने हुए पकड़ा गया। चंूकि खबर एक शिक्षक से ताल्लुक रखती थी तो समूचे जिला में यह खबर सनसनी के रूप में फैलने लगी। मामला कोतवाली में जा पहुंचा और सभी स्थानीय पत्रकारों को इसकी भनक लगने लगी। तो सोचा कि चलो दोषी शिक्षक को उसके कुकर्म का फल अवश्य मिलेगा। परंतु न जाने ऐसा क्या हुआ कि चंद घंटों के घटनाक्रम के बाद मामला शांत पड़ता दिखाई देने लगा, और देखते ही देखते मामला बरसात की ठंडक के कारण ठंड़ा पड़ गया।
मैंने जानने की बहुत कोशिश की कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो मामला ठंडे़ बस्ते में चला गया। फिर उस शिक्षक से संपर्क साधा तो उसके रिश्तेदार से बात हुई और उसने मिलने के लिए बुलाया। चंूकि मैं किसी पत्रकारीय संस्था जुड़ा न होने के कारण, वहां जाकर पूछना मेरे अधिकार में नहीं आता है तब मैंने अपने एक पत्रकार मित्र से वहां जाने और संपूर्ण मामले का पता लगाने के लिए कहा। पत्रकार मित्र लौटे तो पता चला कि स्थानीय पत्रकारों को चंद रूपये की चढ़ौती चढ़ा दी गई है आप अपना बताओं कि मैं आपकी किस तरह से सेवा कर सकता हूं। जिसकी रिकॉडिंग मेरे पास है। मामले को समझते देर नहीं लगी कि पुलिस और पत्रकारों की पूजा-अर्चना से, जिले में उठे शिक्षक प्रकरण को पानी से बुझा दिया गया।
आज सुबह-सुबह मैंने कुछ समाचार पत्रों को बारीकी के साथ पढ़ा कि मुझे इस प्रकरण से संबंधित कहीं कोई खबर मिल जाने, परंतु नहीं मिली। फिर मैंने अमर उजाला के हेड ऑफिस फोन करके बात की तो उन्होंने कहा कि झांसी बात करें वो ही आपको बता सकते हैं। फिर मैंने झांसी के संपादक से बात की तो उन्होंने कहा कि मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है और आपको मुझे बताने की अपेक्षा स्थानीय पत्रकार को बताना चाहिए था। वैसे आप लोग समझते है कि पत्रकार सर्वज्ञानी होता है उसे हर खबर के बारे में पता होता है परंतु ऐसा नहीं है। मैंने कहा एक ऐसा प्रकरण जिसकी जानकारी सभी को है और आपके स्थानीय पत्रकार को कैसे नहीं हो सकती। वैसे वहां से भी मुझे मेरे प्रश्नों का उचित जबाव नहीं मिला। हाल लगभग सारे समाचारों व चैनलों का ऐसा ही था।
मामला ठंडे़ बस्ते में जा चुका है। मैं आप सब से अपील करना चाहता हूं कि जिले के समस्त स्थानीय पत्रकारों व पुलिस प्रशासन तथा ऐसे शिक्षकोक के खिलाफ आवाज उठाने में मेरे मदद करें जो शिक्षक गुरू और शिष्य के पवित्र रिश्ते को दागदार कर रहे हैं साथ ही पुलिस प्रशासन व पत्रकार जो न्याय और सच को जनता के सामने लाते हैं वो ही कुछ माया की चढ़ौती के चढ़ते ही पूरे प्रकरण को दबा देते हैं। और मौका देते है उन लोगों को जो समझते हैं कि पैसे से हर जुर्म को दबाया जा सकता है।
अब आप ही तय करें कि ऐसे शिक्षक को क्या सजा मिलनी चाहिए? साथ ही ऐसे पुलिस और पत्रकारों को क्या करना चाहिए! आवाज उठाकर ऐसे अपराधियों का विरोध करें ताकि हमारे बच्चे सुरक्षित रह सके और गुरू-शिष्य का रिश्ता अपवित्र न हो सके।