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Sunday, December 7, 2025

निजी अस्पतालों में हो रही लूट: स्वास्थ्य सेवा या संगठित व्यवसाय?

 

निजी अस्पतालों में हो रही लूट: स्वास्थ्य सेवा या संगठित व्यवसाय?

भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा का विस्तार आधुनिक तकनीक, महंगे इन्फ्रास्ट्रक्चर और “उच्च गुणवत्ता” के वादों के साथ हुआ, लेकिन धीरे-धीरे यह क्षेत्र सेवा की बजाय एक बड़े मुनाफाखोर बाजार में बदल गया। आज स्थिति यह है कि निजी अस्पतालों में इलाज कराना परिवारों के लिए आर्थिक संकट बन जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति (2017) के अनुसार, भारत में कुल स्वास्थ्य खर्च का लगभग 65% हिस्सा निजी क्षेत्र के अस्पतालों द्वारा नियंत्रित किया जाता है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और नेशनल हेल्थ अकाउंट्स के अनुसार, भारत में स्वास्थ्य पर होने वाला 62% खर्च जनता अपनी जेब से करती है, जो दुनिया में सबसे ऊंचे स्तरों में शामिल है। यह इस बात का संकेत है कि सरकारी व्यवस्थाओं की बजाय निजी अस्पतालों की निर्भरता और उन पर आधारित “लूट मॉडल” तेजी से बढ़ा है।

स्वास्थ्य का व्यापारिकरण—मुनाफे की मशीन

भारत में स्वास्थ्य सेवा धीरे-धीरे बाजार की भाषा में ढल गई है। निजी अस्पताल अब कॉर्पोरेट कंपनियों की तरह चलते हैं, जहां आय, पैकेज टारगेट और व्यवसाय मॉडल कार्य को निर्धारित करते हैं। हेल्थकेयर बिजनेस रिपोर्ट (2022) के अनुसार, भारत का निजी स्वास्थ्य उद्योग लगभग ₹6.3 लाख करोड़ का बाजार है और 10–15% वार्षिक दर से बढ़ रहा है।

इस बढ़ते बाजार के साथ अस्पतालों का नजरिया भी बदला, डॉक्टरों पर मासिक राजस्व उत्पन्न करने का दबाव डाला जाता है, जिससे वे अनावश्यक जांचें, महंगी दवाइयाँ और लंबी भर्ती अवधि सुझाने को मजबूर होते हैं। नतीजा यह है कि इलाज रोगी की जरूरत के बजाय अस्पताल की कमाई के हिसाब से तय होने लगा।

अनावश्यक परीक्षण और बढ़ते बिलिंग मॉडल

भारत का चिकित्सा परीक्षण बाजार 2023 में ₹1.5 लाख करोड़ से अधिक का हो चुका है। अस्पतालों में रोगियों पर महंगे जांच पैकेज थोपना इसका प्रमुख कारण है। दिल्ली में 2021 में हुई एक RTI रिपोर्ट के अनुसार, एक ही MRI स्कैन का शुल्क—

सरकारी अस्पतालों में: ₹1500–₹2500
निजी अस्पतालों में: ₹8000–₹15,000

यानी लगभग 400–700% की लागत वृद्धि। इसी तरह AIIMS की औसत सर्जरी लागत ₹25,000–₹40,000 होती है, जबकि निजी अस्पतालों में ₹2–4 लाख तक लिये जाते हैं। इस असमानता को लोग “सेवा नहीं लूट” कहते हैं, क्योंकि दोनों जगह उपचार लगभग समान चिकित्सीय आधार पर होते हैं।

दवाइयों और उपकरणों पर 500–600% तक मार्जिन

Drug Price Control Board की एक रिपोर्ट (2019) में खुलासा हुआ कि अस्पतालों में बेची जाने वाली इंजेक्शन, स्टेंट और उपकरणों पर 300% से 600% तक मार्जिन वसूला जाता है। कोरोनरी स्टेंट का उदाहरण देखें— सरकार ने इसकी अधिकतम कीमत ₹28,000 निर्धारित की थी, लेकिन कई निजी अस्पताल इसे ₹1 लाख तक बिल में दिखाते रहे। इसी प्रकार COVID काल में ऑक्सीजन सिलेंडर की वास्तविक कीमत ₹400–₹800 थी, लेकिन निजी अस्पतालों ने मरीजों को ₹4000–₹7000 प्रति सिलेंडर का भुगतान कराया।

स्वास्थ्य बीमा—शोषण का नया उद्योग बन गया हैInsurance Development Authority of India (IRDAI) की 2022 रिपोर्ट बताती है कि निजी अस्पतालों में बीमा वाले मरीजों का औसत बिल 30–50% अधिक होता है, जबकि उपचार समान रहता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि बीमा प्रणाली मरीज की जेब बचाने के बजाय अस्पतालों के मुनाफे का माध्यम बन गई है।

कई कॉर्पोरेट अस्पताल मरीजों के लिए “कैशलेस पैकेज” बनाते हैं, जिनमें वास्तविक लागत की तुलना में कई गुना राशि वसूली जाती है— उदाहरण के लिए— एक निजी अस्पताल में 2021 में की गई सामान्य डिलीवरी का बिल: ₹85,000, जबकि सरकारी अस्पताल में वही प्रक्रिया: ₹500–₹5,000, यह अंतर बताता है कि निजी संस्थान चिकित्सा संकट को कमाई का अवसर बना रहे हैं।

नैतिक पतन—मानवता की कीमत पर व्यवसाय

सबसे खतरनाक स्थिति वह है जहां निजी अस्पताल “डर” और “भावनात्मक मजबूरी” का लाभ उठाते हैं। लखनऊ, मुंबई, चंडीगढ़ और जयपुर में सामने आए मामलों में अस्पतालों ने—
मृत मरीजों के लिए ICU चार्ज वसूला
शव रोककर बिल भरने की मांग की
अनावश्यक वेंटिलेटर लगाने का दबाव डाला

COVID-19 के दौरान राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पाया कि कई अस्पतालों ने—
• ₹25,000–₹50,000 प्रतिदिन ICU चार्ज
• ₹1–2 लाख तक COVID इलाज पैकेज
• ₹90,000 तक एंबुलेंस शुल्क

जैसा आर्थिक शोषण किया। दिल्ली और मुंबई में शव वाहन तक का किराया ₹20,000–₹45,000 लिया गया। यह दिखाता है कि यहां सेवा की जगह व्यापारिक शोषण हावी है।

नियंत्रण की कमी—लूट को और मजबूती

भारत में निजी अस्पतालों के लिए नियमन बहुत कमजोर है। Clinical Establishments Act केवल 11 राज्यों में लागू है. कई राज्य रिकॉर्ड पारदर्शिता, दाम नियंत्रण और जवाबदेही लागू नहीं करते हैं। OECD रिपोर्ट (2020) के अनुसार, भारत उन देशों में है जहाँ स्वास्थ्य सेवा पर सबसे कम सरकारी निवेश (1.3% GDP) है। यही कारण है कि जनता निजी अस्पतालों पर निर्भर है और वे इसे मुनाफा कमाने का सुनहरा बाजार मानते हैं।

गरीबी और स्वास्थ्य कर्ज का दुष्चक्र

नेशनल हेल्थ अकाउंट्स 2021 के अनुसार— भारत में हर साल 5.5 करोड़ लोग इलाज के खर्च से गरीबी की ओर धकेले जाते हैं,  8 में से 1 परिवार को किसी सदस्य की बीमारी के कारण कर्ज लेना पड़ता है, यानी निजी अस्पतालों की लूट केवल आर्थिक नहीं बल्कि सामाजिक तबाहियां भी पैदा करती है।

समाधान की बात की जाए तो स्वास्थ्य को व्यापार से सेवा की ओर वापसी करनी चाहिए क्योंकि सबसे पहले स्वास्थ्य को अधिकार और सेवा के रूप में परिभाषित करने की जरूरत है। इसके लिए सरकार को मूल्य नियंत्रण कानून लागू करने के साथ-साथ पारदर्शी बिलिंग सिस्टम बनाने पर जोर देना होगा। इसके साथ ही पब्लिक हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाते हुए बीमा कंपनियों के साथ मिलीभगत को खत्म करने की आवश्यकता है।

इसके अलावा Right to Second Medical Opinion, External Medicine Rights, और Treatment Audit System जैसे अधिकारों की जरूरत है, ताकि मरीज अस्पतालों की मनमानी से सुरक्षित रह सकें।