सरोकार की मीडिया

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Tuesday, April 18, 2017

मैं अक्‍सर सोचता हूं......

मैं अक्‍सर सोचता हूं......


सोचता हूँ ,
मैं अक्सर सोचता हूँ
की मरना क्या है ,
शरीर से ? आत्मा से ?
मेरे अंदर एक कब्रिस्तान
बसता है ,
जहाँ हर रोज मेरी इच्छाएं ,
पटरी पर लेटी ,
ट्रैन का इंतज़ार करती है,
मेरी सोच गहरी खाई ,
मैं कूद कर खो जाता है,
मेरे विचार तकिये की ,
कोर को भिंगाती हुई ,
दम घोंट कर मार दी जाती है,
मेरे सपने ,मेरी महत्वाकांक्षायें ,
बिस्तर पर चढ़ कर ,
पंखे से झूल जाते है ,
लेकिन कोई सुसाइड नोट ,
नहीं पड़ा होता कहीं,
जिस पर काँपते हाथों से,
मैंने अपने दर्द को बयाँ किया हो ,
खुद ही घोल देता हूँ अपनी ,
हसरतों को जहर की शीशी में,
और एक साँस में खत्म,
कर देता हूँ ,
उन अधबुने सपनों को,
इन लाशों का कोई,
पोस्टमार्टम नहीं होता,
न कोई हो हंगामा,
न कोई केस दर्ज,
न कोई फैसला,
न कोई सुनवाई,
बस ये दफ़न होती रहती है ,
मेरे अंदर के कब्रिस्तान में,
दुनिया के शोरगुल में,
ऐसी अनगिनत आत्महत्यायें ,
रोज होती है,
सब मशगूल है ,अपने कामों में,
झुठे हँसने मुस्कुराने में,
सब कुछ यूँ ही चलता रहता है,
न कोई आँसू बहाता है ,
न कोई सन्नाटा छाता है ,
और न किसी को कानो कान
ख़बर होती है।