सरोकार की मीडिया

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Sunday, November 17, 2013

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया अपनी मिशन की यात्रा करते हुए आज कालपनिक दुनिया का सफर तय करने लगा है। जिसमें हर चीज कल्पना के इर्द-गिर्द घुमती हुई दिखाई देती है। कालपनिक दुनिया ने जैसे हमारे सीमित उपयोगितावादी चेतना तंत्र को मानो डंस लिया है। जिसका जहर हम सब की रगों में खून बनकर दौड़ता मालूम पड़ता है। वैसे मीडिया इस कालपनिक दुनिया का सहारा लेकर हमारे समाज में वेश्या जैसी भूमिका निभाता हुआ प्रतीत होता है। जिसको न तो अपयाना जा सकता है और न ही तिरस्कार। हालांकि व्यापक समाज किसी भी तंत्र के प्रति निर्विकार रह सकता है, परंतु यदि उसमें सभ्य आचरण की अंतरंगता को विज्ञापनी व्यावसायिकता में तब्दील करके सभ्य संभोग का प्रस्तुतिकरण करके दिखाए जाने के उपरांत यदि वह उत्तेजित हो उठता है, तो इसमें स्वार्थ या पाखंड का मूल तत्त्व विराजमान है। इस तत्त्व का बचाव यह कह कर नहीं किया जा सकता कि यह बुराई तो एक आदिम बुराई है और मीडिया एक आधुनिक घटना, जिससे यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह इस अश्लीलता को प्रोत्साहित या सहन करेगा। तनिक-सा गौर करते ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहां तक स्त्री का ताल्लुक है, तथाकथित आदिम और तथाकथित आधुनिक दृष्टियों में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है। साथ ही यह भी कि संगठित इस तंत्र के जन्म के पीछे जो व्यावसायिक दबाव थे, वही दबाव आज मीडिया में देखने को मिल रहे हैं। क्योंकि अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यही व्यावसायिकता कहीं-न-कहीं मीडिया उद्योग की भी प्राणवायु बन चुकी है।
वैसे मीडिया में सभी तरह की खबरों का समावेश देखने को मिलता है, परंतु मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित खबरों में स्त्री हमेशा गुम रही है। क्योंकि उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर रखा गया है। फिर भी स्त्रियों के साथ चूंकि बहुत कुछ ऐसा घटित होता रहता है जिससे हमारी यथास्थितिवादी चेतना को भी धक्का पहुंचता है। अतः स्त्रियों को मीडिया में लाना जरूर हो जाता है। लेकिन अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि वे स्त्रियों  से संबंधित खबरें नहीं हैं। वे भी पुरुषों की ही खबरें हैं-उन पुरुषों की खबरें, जिन्होंने स्त्रियों के साथ कुछ अमान्य आचरण किया है। मसलन दहेज के लिए प्रताडित, हत्या, छेड़छाड़, बलात्कार, नारी देह का प्रदर्शन आदि, जो पुरुष ने किया है और वह स्त्री के साथ हुआ है। वैसे उसके लिए कोई नाम तक नहीं है हमारे पास। इससे पता चलता है कि घटनाओं के बयान करने वाली हमारी शब्दावली तक कितनी नकाफी है।
अब प्रश्न यह उठता है, कि स्त्रियों से संबंधित खबरें क्या हो सकती है? ये खबरें वही हो सकती हैं जिसके केंद्र में स्त्री यानी उसकी स्थिति, उसकी समस्याएं और उसकी सक्रियता हो। हालांकि स्त्री की ऐसी सक्रियता बहुत कम ही है जो खबरों का रूप ले सके। यह एक ऐसा पहलू है, जिस पर स्त्रियों को गइराई से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि पुरुष सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं अथवा उसका दुरूपयोग कर रहे हैं, इसलिए वे हमेशा खबरों के केंद्र में आ जाते हैं। इस संघर्ष रणनीति में स्त्री नहीं के बराबर मौजूद हैं और जितनी है भी, वह चर्चा का विषय बनती ही है। इसलिए सीमित होने के कारण स्त्री के अपने संघर्ष मीडिया में प्रतिबिंबित नहीं होते। इसका कारण यह यथास्थितिवादी सोच ही है कि स्त्रियां मौजूद सत्ता संतुलन को छेड़ कर जैसे कुछ अनैतिक काम कर रही हैं। इस मामले में उनकी हैसियत आदिवासियों या हरिजनों से भी गई-गुजरी है।
वस्तुतः यह है कि स्त्री को लगातार हजारों कामुक निगाहों का सामना करना पड़ता है। घर, बाहर लगातार उसे स्त्री होने का दंड भोगना पड़ता है, तो क्या यह बात मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित करने लायक है-उस मीडिया में, जो स्वयं इस प्रक्रिया से पूरी तरह बरी नहीं हो पाया है? कौन-सा अपराध संवाददाता इन छोटी-छोटी, किंतु गंभीर घटनाओं की दैनिक सूची बनाता है? वैसे स्त्री के सभी मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या जहां इच्छा हो वहां जाने का अधिकार तो हमेशा निलंबित रहते हैं, तो मीडिया में किस-किसका उल्लेख किया जाए? निश्चय ही बहुत सारी खबरें इसलिए खबरें नहीं बन पाती हैं क्योंकि वे हमारी दिनचर्या का अंग बन चुकी होती हैं। तो क्या स्त्री की नियति बदलने में मीडिया के सभी जनसंचार माध्यमों की ओर से हमें बिल्कुल निराशा ही हाथ लगने वाली है? क्या यह मान लेना चाहिए कि मीडिया स्त्री की उपेक्षा या स्त्री विरोध के लिए अभिशप्त हैं, अतः वह इस वर्ग के लिए कुछ कर नहीं सकता?
इस लेख के कुछ अंश राजकिशोर द्वारा लिखित पुस्तक पत्रकारिता के नए परिप्रेक्ष्य से लिए गए हैं। राजकिशोर जी सभार.......


Wednesday, November 13, 2013

गंदगी से बू आने लगी.........

गंदगी से बू आने लगी.........

भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सभी सभ्यताओं ने अपने-अपने क्रमिक विकास में नारी को नीचे और नीचे धकेलते हुए पुरुष की शारीरिक सामथ्र्य और बौद्धिक श्रेष्ठता को तो स्थापित किया ही है साथ ही नारी के साथ सबसे क्रूर उपहास यह किया कि उसे एक देह मात्र में समेट कर रख दिया। पुरुष द्वारा स्थापित इस भार के नीचे स्त्री की समस्त प्रतिभा, अद्भूत शैक्षणिक योग्यता, प्रत्युत्पन्नमतित्व और सारी योग्यताएं गौण बन कर रह गई, यानि न के बराबर हो गई। अगर कुछ बचा तो वह है नारी देह का सौष्ठव और सौंदर्य। यह मानसिकता वर्षों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस मानसिकता का प्रभाव यह हुआ कि नारी का सुंदर शारीरिक रूप ही पुरुष और समाज द्वारा स्वीकार किया जाने लगा। क्योंकि पुरुष तो पुरुष, स्त्री समाज में भी नारी की प्रतिभा, और योग्यता की अपेक्षा सुंदर शरीर को ही वरीयता प्रदान की जाने लगी है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि ‘‘पुरुष की अपेक्षा स्त्री में सौंदर्य-बोध अधिक होता है। जिसको हम बचपन में बच्चों के व्यवहार के स्वरूप में साफ तौर पर देख सकते हैं कि लड़कियां जहां घर-घर खेलती हैं और अपनी मां के सौंदर्य सामग्रियों का उपयोग करती रहती है, वहीं लड़के दिन भर चोर-सिपाही तथा और भी बहुत सारे खेल खेलते देखे जा सकते हैं। जो लड़के-लड़कियों को उनके व्यवहार से कहीं न कहीं अलग करता है। वैसे हम आदिकाल से ही देखते आए हैं कि स्त्री अपने शरीर को विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित सुशोभित करती आई है। पुरुष की दृष्टि में, पुरुष के वर्चस्ववाद समाज में, सुंदर देह ही स्त्री की पहचान बनी थी। वैसे बीसवीं शताब्दी में शिक्षा के प्रसार और स्त्री मुक्ति के संदर्भ में आंदोलनों ने नारी विमर्श के अनेक प्रश्नों को जन्म देकर स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिमा के प्रति जागरूक तो बना दिया। परंतु औद्योगिक क्रांति और उपभोक्तावादी संस्कृति ने वस्तुओं के प्रचार के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया। और विज्ञापन को लुभावना बनाने के दृष्टिकोण से सुंदर देह से बढ़कर और क्या हो सकता था तो स्वाभाविक परिणति के रूप में सदियों की दासता निद्रा से जागती स्त्री को पुरुष ने फिर सुंदर शरीर के रूप में विज्ञापन की वस्तु बना दिया। उसने स्त्री शरीर के अद्भुत रोमांच और आनंद को भली प्रकार पहचान लिया। अतः उसने स्त्री शरीर से व्यावसायिक लाभ कमाने और नारी देह तथा नारी सौंदर्य को अपना व्यवसाय-व्यापार बढ़ाने का साधन बना लिया। विडंबना तो यह रही कि पुरुष की मनोवृत्ति को पहचान कर भी स्त्री नहीं संभली। वह अपने ही देह प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन, में जाने-अनजाने रस लेने लगी है। यही कारण है कि ‘‘ब्यूटी पार्लरों, मॉडलिंग कंपनियों, नाइट क्लबों, रेस्तराओं, होटलों, कॉल सेंटरों, शॅपिग मॉल्स और भी असंख्य स्थानों पर काम करने वाले कर्मचारियों में युवतियों की संख्या बड़ी तेजी से दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।’’  जो आज आने-अनजाने में कहीं न कहीं अश्लील है और यह समाज में अश्लीलता को बढ़ावा देता है।
हालांकि इसके मूल में कई कारण हैं जो स्त्रियां खुद ही अपनी देह का प्रदर्शन करने लगी हैं। वैसे इसके विश्लेषण से जो तथ्य ज्ञात होते हैं उससे साफ स्पष्ट है कि पुरुष और पश्चिमी संस्कृति ही इसके मूल में विराजमान है। क्योंकि एक तरफ पुरुष जहां नारी को तरह-तरह से उत्पीड़त करके उसको अपने काबू में रखना चाहता है। दूसरी तरफ पुरुष नारी को उपभोग की वस्तु (भोग्या) के रूप में भी प्रदर्शित करना चाहता है ताकि अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति कर सके। वहीं पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत होकर नारियां ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है जिसको हम भारतीय संस्कृति में विराजमान देवी-देवताओं की कहानियों में भी पढ़ सकते हैं कि किस प्रकार विश्वामित्र और भसमाशुर और न जाने कितने ऐसे पुरुष जिनको नारियों ने अपनी देह के द्वारा या तो उनकी तपस्या भंग की या फिर उसे मारवाने में सहयोग किया। ठीक वो ही प्रवृत्ति को अपनाते हुए और पुरुष की विकृत सोच जो नारी देह पर हमेशा से केंद्रित रही है उसे समझ लिया है। तभी तो आज के परिपे्रक्ष्य में नारी अपनी देह को ही अपना ब्राहमास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। यदि यहां इस बात का भी विश्लेषण कर लिया जाए कि नारी के सुंदर देह पर कौन-कौन मोहित हुआ है तो अपवाद स्वरूप शायद यदाकदा ऐसा कोई मिल जाए जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो, नहीं तो ऐसा कोई पेड़ उपजा नहीं, जिसे हवा न लगी हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी पुरुष इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। और अब तो स्त्रियां भी ऐसा ही करने लगी हैं। ताकि वो अपनी देह से मुनाफा कमा सके। मुनाफा कमाने की इस नीति के चलते वो इस अश्लीलता के दलदल में गले तक धंस चुकी हैं। इन्हीं की देखा-देखी आने वाली नई पीढ़ी भी इन्हीं के पदचिह्न पर चल पड़ी है। वैसे देखा जाए तो समाज में यह गंदगी पहले से ही मौजूद रही है। इस गंदगी की शुरूआत पुरुष समाज द्वारा ही हुई है जो धीरे-धीरे पुरुष प्रधान समाज द्वारा बढ़ती गई। अब आलम यह हो चुका है कि इसमें महिलाओं की सहभागिता के कारण इस गंदगी में बदबू आने लगी है। जो कहीं न कहीं समाज को पूर्णतः गदला रही है। हालांकि स्वयं द्वारा उत्पन्न इस गंदगी से अब समाज भी सकते में आ गया है कि इसका आने वाला भविष्य क्या होगा? यह तो एक ही कहावत चरितार्थ होती है कि बोए पेड़ बबूल का, तो अमीया कहां से पाए........ क्योंकि गंदगी का सफाया पहले ही नहीं किया गया तभी तो इसमें अब बू आने लगी है तो अब पछताने से क्या फायदा।