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Saturday, July 23, 2016

गालियों का समाज शास्त्र

गालियों का समाज शास्त्र
गाली एक ऐसा तरीका है जिससे आप अपना गुस्सा व्यक्त्त करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। इसका प्रयोग आप बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के आसानी से कर सकते हैं। वैसे इसके उच्चारण मात्र से यानि अपने मुखारबिंदू से इसका उच्चारण करने से सामने वाला आवश्यक तौर पर प्रभावित जरूर होता है। अगर इसको समान शब्दों में परिभाषित किया जाए तो गाली का प्रयोग इंसान अत्याधिक क्रोध आने पर शारीरिक रूप से हिंसा न करते हुए, मौखिक रूप से की गई हिंसात्मक कार्यवाही के लिए चयनित शब्दों का वह समूह जिसके उच्चारण के पश्चात् मन को गहन शांति का अनुभव प्राप्त होता है, उसे हम गाली के रूप में परिभाषित कर सकते हैं।
वैसे गाली आनंद के लिए भी दी जा सकती है और अपनी शक्ति को सिद्ध करने के लिए एक माध्यम के तौर पर भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। आनंद के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो गाली अपनी स्वंत्रता को साबित करने के उद्देश्य से तथा शक्ति के परिप्रेक्ष्य पर बात करें तो दूसरे को अपने से कमतर आंकने के परिदृश्य से इसका प्रयोग किया जाता है। हालांकि इसका मूल जब तक तय नहीं होता जब तक गाली सुनने वाला इस पर किसी प्रकार की कोई क्रिया न करे। यानि उसे वह बुरी न लगे। इस प्रकार गालियों से हमें यह ज्ञात होता है कि हमारे समाज में इसका प्रयोग एक संचारित भाषा के रूप में किया जाता है।
गालियों का प्रचलन समाज में कब से प्रारंभ हुआ और सबसे प्रथम किस व्यक्ति द्वारा किसको गाली दी, तथा गाली सुनने वाले ने उस गाली पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया की होगी? यह एक मजेदार शोध का विषय हो सकता है। हालांकि अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों ने गालियों के उद्भव और विकास पर युगों-युगों से माथा-पच्ची की है, किंतु इस अथाह रहस्य को आज तक शायद कोई नहीं जान पाया। मेरे मतानुसार गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के साथ-साथ ही हुआ होगा? क्योंकि तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाले शब्दों को गालीमाना गया है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि शब्दों के निर्मम प्रहार जब विद्रूप हो उठें और जिन्हें सुनकर मनुष्य क्रोधित और अनियंत्रित हो उठे, वह गाली माना जाता है। शब्द-प्रहार, शस्त्र-प्रहार से कहीं अधिक घातक और मर्मभेदी हो सकता है, और प्रायः होता भी है। स्मरण कीजिए, महाभारत का वह प्रसंग जब द्रोपदी ने दुर्योधन का उपहास अंधे का अंधाकहकर किया था। इस उपहास का ही परिणाम राष्ट्र के सामने महाभारतके रूप में उपस्थित हुआ, जिसमें भारी नरसंहार और रक्तपात हुआ।
गालियों का प्रचलन सदियों से समाज में रहा है। गालियां निर्बल का शस्त्र मानी गई हैं। बलवान व्यक्ति अपनी शारीरिक और शस्त्रगत ताकत से जब निर्बलों पर आक्रमण करते हैं, तो अशक्त और निर्बलजन गालियों के प्रहार से ही उनका प्रतिकार कर पाते हैं। वीर और साहसी व्यक्तियों को गाली देने की आवश्यकता ही क्या है? वे तो अपनी शक्ति के बल पर ही प्रतिद्वंद्वी का मानमर्दन कर सकते हैं। गाली देना उनके गौरव के अनुप्रयुक्त माना जायेगा। श्रीरामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने परशुरामजी को नसीहत देते हुए कहा है-
वीर व्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
किंतु अंगद-रावण संवाद में गालियों का उन्मुक्त आदान-प्रदान हुआ है। रावण व अंगद दोनों ही लगभग समान रूप से बली थे। दूसरे, अंगद शांति-दूत बनकर गए थे। उन्हें शस्त्र-प्रहार की अनुमति नहीं थी, अतः उन्होंने शब्द-प्रहार का सहारा लिया। इसी प्रकार रावण भी राजनीति के नियमों के अनुसार शांति-दूत पर शस्त्र-प्रहार नहीं कर सकता था, अतः उसने भी शब्द-प्रहार यानी कि गालियों का ही अवलंबन लिया। गालियां मानव-मन के भले-बुरे उद्वेगों को व्यक्त करती हैं। गालियां देने और गालिया सुनने वाले-दोनों ही पक्ष भावनात्मक रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। इससे दोनों की असली औकात खुलकर सामने आ जाती है। किसी ने कहा भी है कि यदि किसी की औकात आंकनी हो तो उसे क्रोध दिला दो।
गालियों का एक दूसरा पहलू यह भी है कि वे मानव-जाति के परस्पर संबंधों को अनायास उद्घाटित करती हैं। यूं तो गालियां विश्व की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में कही व सुनी जाती हैं, किंतु भारत में गालियों का अपना अलग ही अंदाज है। भारत में कई हुई गालियों का बुरा नहीं माना जाता। कदाचित् इसीलिए हमारे यहां विवाह-शादियों में तथा होली जैसे त्यौहारों पर गालियों को गाने की पुरातन प्रथा चली आ रही है। विवाह में महिलाओं के द्वारा और होली पर पुरुषों के द्वारा गाई जाने वाली और उमंगमय गालियों का कोई बुरा नहीं मानता-
जेंवत देहिं मधुर धुनि गारी।
ले ले नाम पुरुष अरु नारी।।
समय सुहावनि गारि विराजा।
हंसत राउ सुनि सहित समाजा।।
श्रीराम के विवाह-समय पर जनकपुर की महिलाओं के द्वारा गाई हुई गालियां आज भी विवाह-बारातों में हम अपने-अपने संदर्भ में अपनी पारिवारिक महिला-सखियों-सहेलियों से सुनते हैं और प्रसन्न होते हैं। जबकि अन्य किसी अवसर पर दी हुई किसी की भी गाली हमें गोली की तरह बींध कर रख देती है और क्षणभर में खून-खराबे की नौबत आ जाती है।
गालियों के अनेक प्रकार हैं। कुछ गालियां जाति-बोधक होती हैं, तो कुछ संबंध बोधक। कुछ गालियां मानव की विकलांगता से जुड़ी होती हैं, तो कुछ उसके स्वभाव से। कई गालियां मानव का जानवरों से तादात्म्य स्थापित करती हैं, तो कई गालियों में उसके बौद्धिक स्तर की धज्जियां उधेड़ दी जाती हैं।
क्रोध में दी गई गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने का भाव निहित होता है, जबकि उमंग और अनुराग में दी गई गालियां घनिष्टतम प्रेम की प्रतीक मानी जाती हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि गालियों का उच्चारण मानव की दमित कामेच्छाओं को शमित करता है। गालियों से परहेज करने वाले कितने ही तथाकथित शिष्ट लोग एकांत में अशिष्ट और अश्लील हरकतों में लिप्त देखे जा सकते हैं। ऐसा माना जा सकता है कि गालियों का प्रचलन मानव के आदिम विकास-काल से आज तक यथावत् बना हुआ है। गालियों से मनुष्य के काम और क्रोध-इन दो विकारों का निस्तारण काफी हद तक हो जाता है। होली का त्यौहार गालियों के आदान-प्रदान का उन्मुक्त त्यौहार है। इसे शास्त्रकारों ने मदनोत्सव की संज्ञा दी है। मदन का अर्थ काम से है। भारतीय जन अपने काम-गत विकारों का निस्सरण करने के लिए होली पर गोली छान कर गाली बकते हुए देखे जाते हैं। यह परिपाटी सदियों से चली आई है। शास्त्रकारों-विद्वानों ने इसका अनुमोदन भी किया है और इसे हमारी धार्मिक आस्थाओं से जोड़े रखने की चेष्टा भी की है। उन्होंने हिरण्यकश्यप की बहन ढुंढा (होली) को जलाते समय गालियां बकने का शास्त्रीय विधान निर्धारित किया है, जिससे कि वह राक्षसी तृप्त और प्रसन्न होकर अपनी दाह-शक्ति को प्रचंड बनाए रखे-
तमग्नित्र्रिपरिक्रम्य शब्दै लिंग-भगांकितै,
तेन शब्देन सा पापा राक्षसी तृप्तिमाप्नुयात्।
जो भी हो, गालियों का अपना एक अलग समाज-शास्त्र है जिसे मानव की भावनात्मक-वैचारिक और संवेदनात्मक ऊर्जा के संचयन तथा उसमें उत्पन्न हुए अनावश्यक विकारों के निस्तारण के लिए हमारे पूर्वजों ने निर्धारित किया है। इसमें तथाकथित सभ्यतावादियों के अरण्य-रोदन से कुछ भी होने जाने वाला नहीं है। यह सृष्टि गाली से ही शुरू हुई थी और गाली पर ही समाप्त होगी, यह एक शाश्वत सत्य है।
संचार के दृष्टिकोण से
संचार के दृष्टिकोण में गाली का विश्लेषण किया जाए तो संचार के सभी माध्यमों में इसकी प्रतिपुष्टि देखी जा सकती है।
1.         अंतरावैयक्तिगत संचार:- इस संचार में कोई भी व्यक्ति अपने अंतर मन में किसी अन्य व्यक्ति को मन ही मन में गाली देकर कोसने का काम करता है। इस संचार का प्रयोग गाली देने वाला व्यक्ति तब ही करता है जब वो दूसरे व्यक्ति से शारीरिक तौर पर कमजोर हो। यानि जिसको वह गाली दे रहा है वह व्यक्ति बाहूबली हो, उसी स्थिति में अंतरावैयक्तिगत संचार का प्रयोग किया जाता है। हालांकि इस प्रकार के संचार में गाली देने के उपरांत कोई भी प्रतिक्रिया दर्ज नहीं होती है।
2.         अंतरवैयक्तिगत संचार:- इस संचार में जब एक व्यक्ति सामने वाले दूसरे व्यक्ति को गाली देता है तो बिना की रूकावट के गाली देने वाले को एक के बदले में दो-चार गालियों के रूप में प्रतिक्रिया तुरंत मिल जाती है, यानि शीघ्र ही फीडबैक मिल जाता है। वैसे इस संचार में गाली देने वाला तथा सुनने वाला दोनों ही शारीरिक रूप में उन्नीस और बीस होते हैं।
3.         व्यक्तिगत संचार:- इस प्रकार के संचार का प्रयोग तब ही होता है जब गाली देने वाला तथा सुनने वाला दोनों एक दूसरे के घनिष्ठ मित्र हो। इस संचार में भी गाली देने के उपरांत तुरंत या फिर कुछ क्षण के बाद प्रतिक्रिया मिलना स्वाभिक है।
4.         जनसंचार:- इस प्रकार के संचार में किसी माध्यम को केंद्र में रखते हुए एक विशाल जन समूह तक गाली का प्रचार-प्रसार करना शामिल है, हां यह बात और है कि इसमें प्रतिक्रिया शीघ्र नहीं मिल पाती, तथा इस प्रकार के संचार में उपयोग होने वाले उपकरण में बाधा आने की संभावना बनी रहती हैं। हम इस संचार का प्रयोग एक जनसमूह तक गाली को संप्रेषित करने के लिए करते हैं और इसमें फिल्मों को माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाता है।
फिल्मों में गाली के स्वरूप को देखा जाए तो देखने को मिलता है कि किस प्रकार फिल्में एक विशाल जन समूह तक गाली को संप्रेषित करने का काम बिना किसी रूकवट के आसानी से करती हैं। जिससे जनता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती। इससे पहले फिल्मों में गालियों का प्रयोग किसी जानवर से संबंधित या फिर पत्नी के भाई से संबंधित होती थी। हालांकि बॉलीवुड में खुले तौर पर गाली के नए चलन का प्रयोग नो वन किल्ड जेसिकासे अभिनेत्री रानी मुखर्जी ने शुरू किया। इस फिल्म में रानी एक तेज तर्रार टीवी पत्रकार की भूमिका में थी जो जमकर सिगरेट पीती है और धड़ल्ले से गालियां देती है। इस फिल्म के साथ रानी ने अपनी मासूम सी छवि के साथ प्रयोग करते हुए अपनी छवि बदली। फिल्म में उनका सबसे प्रचलित संवाद था आई एम ए बिच। यानि मैं एक कुतिया हूं। वहीं पर देल्ही बेलीने तो फूहडता पूर्ण गाली का प्रयोग किया जिसे सेंसर बोड ने बिना किसी रूकावट के पास कर दिया जिसे दर्शकों ने भी अच्छा खासा पसंद किया।
इस आलोच्य में आगे बात की जाए तो फिल्मकारों ने वास्तविक जीवन कथाओं पर बोल्ड फिल्में बनाकर नए प्रयोग किए। डर्टी पिक्चरजैसी फिल्म में किरदारों और फिल्मी जीवन को वास्तविक रूप देने के नाम पर मुखर संवाद और गालियों का जमकर प्रयोग किया गया। फिल्म के निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने इस तरह की भाषा और बोल्डनेस को फिल्म की कहानी और किरदारों को वास्तिविक रूप देने के नाम पर जायज ठहराया। वहीं फिल्म देल्ही बेलीबोल्डनेस और गालियों के प्रयोग के मामले में एक कदम और आगे रही। इस फिल्म में जमकर गालियों का और द्विअर्थी गानों का प्रयोग किया गया। फिल्म का गाना भाग डीके बोसअपने बोलों की वजह से खासा लोकप्रिय हुआ। अगर इसके मूल अर्थ को समझे तो इस गाने का मूल भाव में भोसडी केशब्द का प्रयोग किया गया है जिसे आम बोलचाल वाली गाली के बतौर प्रयोग किया जाता है।
इस एडल्ट कॉमेडी फिल्म के निर्माता अभिनेता आमिर खान ने इसे मजेदार कॉमेडी फिल्म बताते हुए कहा कि इसमें अंगप्रदर्शन जैसी चीज नहीं है केवल अश्लील भाषा का प्रयोग किया गया है। आमिर ने कहा था कि यह फिल्म बोल्ड फिल्मों की परिभाषा बदल देगी और एक नए चलन की शुरूआत करेगी। इस क्रम में कुछ और फिल्में भी शामिल है जिनमें देसी अपशब्दों और संवादों का भी जमकर प्रयोग कर हास्यात्मक रूप में पेश किया गया। इस तरह की भाषा से सजी रा वन’ ‘रेडी’, ‘बॉडीगार्डऔर सिंघमजैसी फिल्में सुपरहिट रहीं। इसी तरह की बोल्ड भाषा और संवादों से सजी कई और फिल्में जिनमें गाली का प्रयोग किया गया। कंगना राणावत ने फिल्म तनु वेडस मनुमें, गुल पनाग ने टर्निंग थर्टीमें और सौरभ शुक्ला ने फिल्म ये साली जिंदगीमें दैनिक जीवन में दी जाने वाली गालियों और अपशब्दों का जमकर प्रयोग किया। निर्देशक लव रंजन ने भी अपनी एडल्ट कॉमेडी फिल्म प्यार का पंचनामामें अपशब्दों से भरी भाषा का प्रयोग किया।
इससे पहले भी कई अपशब्दों और गाली गलौज से भरी भाषा का फिल्मों में प्रयोग होता रहा है लेकिन वो काफी हद तक कहानी की मांग थी। फिल्म ओंकारामें सैफ अली खान और अजय देवगन इसी तरह की भाषा में बात करते दिखे, वहीं विद्या बालन और अरशद वारसी ने भी फिल्म इश्कियामें अपशब्दों से भरे संवाद कहे। इसी तरह की अशिष्ट भाषा का प्रयोग करीना ने फिल्म जब वी मेटऔर गोलमाल थ्रीमें किया गया। इसी वजह से ये फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफल भी रहीं। यानि सफलता की मुख्य श्रेणी को आप कामुकता, फूहडता और गाली-गलौज को श्रेय दे सकते हैं।
वैसे पहले धमेंद्र व मिथुक की फिल्मों में साले, कुत्ते आदि गाली का प्रयोग किया जाता था अब फिल्मों में अब देसी गाली के साथ-साथ एक अंग्रेजी गाली का प्रयोग एक-दो सालों में कुछ ज्यादा होने लगा है जिसे फक कहते हैं। इसी के नाम पर फुकरेंफिल्म का निमार्ण किया गया था। जिसमें दिल्ली की एक गैरकानूनी काम करने वाली महिला के जीवन को आधार बनाकर फिल्म को बनाया गया था जिसमें वह मां-बहनों की गाली साथ-साथ, पिछवाड़े में उंगली तथा फक शब्द का बखूबी प्रयोग करते हुए जनता को दिखाया गया है।
हालांकि अब तो गालियों का प्रयोग बड़े पर्दे के साथ-साथ छोटे पर्दे पर भी होने लगा है। कॉमेडी के नाम पर गालियों को संचारित करने का काम आसानी से किया जा रहा है। चाहे वह लाफ्टर चैलेंज हो या फिर कॉमेडी सर्कस या फिर कपिल का कॉमेडी सर्कस हो। जिसमें कलाकार फूहडता, कामुकता तथा द्विअर्थी संवाद का प्रयोग जनता को हंसाने के लिए करते हैं। इसमें मुख्यतः मां-बहनों की गाली तथा फक शब्द, बाबा जी का घंटा आदि गाली का बिना किसी रोकटोक के प्रयोग किया जाता है। जिससे एक विशाल जन समूह इन गालियों से आसानी से रूबरू होकर संचारित होता है।
सामाजिक दृष्टिकोण के रूप में गाली
सामाजिक दृष्टिकोण के रूप में संचारित या प्रेषित होने वाली गालियां का स्वरूप व्यक्ति विशेष से संबंधित होकर तथा समाज में मान-सम्मान के हनन के बतौर भी प्रयोग किया जाता है। जैसे किसी लड़के के पिता के वैध होने या न होने के दृष्टिकोण में हरामीजैसी गाली बनती है। वैसे अधिकतर गालियां यौन अंगों और यौन संबंधों से जुड़ी हुई होती हैं जो जबरदस्ती यौन संपर्क की बात करती हैं। जिसको हम अपनी ताकत दिखाने का एक तरीका भी कह सकते है। इस बात पर गौर करें तो इसके पूरे आधार स्तंभ में गालियां अधिकतर स्त्रियों से संबंधित होती हैं एक-दो गालियों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो सभी गालियां महिलाओं को केंद्र में रखकर दी जाती हैं।
आम समझ में गाली का अर्थ यौनांगों और यौन संबंधों से सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी उस अभिव्यक्ति से लिया जाता है जो लक्षित व्यक्ति की प्रतिष्ठा, आत्मविश्वास या आत्मबल पर सीधा असभ्य-सा प्रहार करती है। यह प्रहार लैंगिक, सामाजिक आदि पक्षों के अतिसंवेदनशील मार्मिक बिंदुओं पर होता है, परिणामतः शारीरिक प्रहार से भी भयानक हो जाता है।
इस आलोच्य में आगे बात की जाए तो प्रहार शारीरिक और मानसिक दोनों होते हैं। वैसे मनुष्य का जिसके प्रति जितना अधिक सम्मान और अपनत्त्व का भाव होता है, वह प्रहार के लिए उतनी ही उपयुक्त होती है। किसी को कष्ट पहुंचाना हो तो उसके लिए जो परम आदरणीय है, उसका परम अनादर कर दो, यही गालियों के पीछे मानसिकता काम करती है। यह आश्चर्य की बात नहीं कि, मां की गाली सबसे तीखी और खराब मानी जाती है। अंतरंग मित्र जो बिना गालियों के एक दूजे से एक वाक्य भी नहीं बोल पाते, वे भी इससे परहेज करते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं जो कोई भी गाली सह लेते हैं लेकिन मां की गाली मिलते ही क्रोधोंमत्त हो जाते हैं। न्यूनाधिक रूप में ऐसा पिता केंद्रित गाली के साथ भी होता है। क्योंकि मनुष्य इनसे भावनात्मक तौर पर जुड़ा हुआ होता है।
वैसे मनुष्य का जुड़ाव और भावनाएं अपनी जगह हैं लेकिन उसके पीछे वर्चस्व और प्रतिष्ठा की मानसिकता काम करती है। मां की गाली देने वाला यह जताता है कि देखो इस नपुंसक को! इसके सबसे प्रिय व्यक्ति को मैंने गाली दे दी। उसे गाली दी जो इसे इस संसार में ले आई। यह पुरुष प्रधान समाज में संपत्ति और भावना के जटिल मिश्रण वाले सबसे प्रिय स्त्री संबंध पर प्रहार कर सामने वाले को मानसिक रूप से पीड़ित करने का उद्योग होता है। गाली देने वाला अपनी जान सामने वाले की प्रतिष्ठा को क्षतिग्रस्त कर रहा होता है। लेकिन इस संदर्भ को कितने लोग समझते पाते हैं? आक्रामकता को दर्शाते और सराहते हुए प्रतिष्ठा का मूल स्थान ही खिसक जाता है। गाली देते हुए वह अपनी जननी को भी कहीं आक्षेपित कर रहा होता है, यह उसकी समझ में नहीं आता।
लेकिन उन गालियों का क्या जो लोकभाषाओं का अंग हो गई हैं? वास्तव में बहुधा इन गालियों में उन सभी पुरानी लुप्तप्राय भाषाओं के अंश सुरक्षित रह जाते हैं जिनसे लोकभाषा विकसित हुई।
वर्तमान समय तेज परिवर्तन का समय है। गालियां के कई प्रकार हो गए हैं। गालियों के अलावा गाली देने वाले-वालियों पर भी ध्यान देना होगा। कई बाते हैं; गाली बकने वाले क्या इतना सोचते हैं? इसकी आवश्यकता भी है? गालियां की स्वीकार्यता और उनसे घृणा, जुगुप्सा किस स्तर की है? क्या गाली देने वाले के मन में वाकई स्त्री या स्त्रीजाति के प्रति अनादर का भाव ही होता है? क्या स्त्री वाकई अनादर का अनुभव कर याद रखती है या लैंगिक संकेतों पर मुंह बिचका कर उपेक्षित करते हुए भूल जाती है? स्त्री का गाली पर इतना संवेदनशील होना उचित है क्या, तब जब कि वह स्वयं बकती है? यह संवेदनशीलतापुरुष प्रधान समाज में अपने पैर जमाती स्त्री के बराबरी के दावे से कितनी और कैसे जुड़ती है? गालियों के प्रयोग का विरोध करने वाले पुरुष स्त्रैण हैं? क्या गालियां इतनी आवश्यक हैं कि उनके बिना काम ही नहीं चल सकता? क्या यह समाज गालीबाज समाज है? ऐसा क्यों है कि परिवार बंधन में बंधने के बाद बहुसंख्य जन गाली बकना सीखकर उसे अंतरंग मित्रों की बैठकी के लिए सुरक्षित कर देते हैं? गालियां रागात्मकता और मित्रवत प्रेम से क्यों जुड़ती हैं? कुछ निकट संबंधों में गालियां स्वीकार्य क्यों हैं? वैवाहिक अनुष्ठानों में कुछ अवसर गालियों के कर्मकांड के लिये सुरक्षित क्यों हैं? धीरे-धीरे वे लुप्त क्यों हो रहे हैं? गालियां सार्वकालिक और सार्वदेशिक क्यों हैं? सिनेमा, टीवी, इंटरनेट के जमाने में साहित्य में गालियों का प्रयोग समाज को कितना दूषित कर सकता है? गालियों को सहेजने की साहित्य की प्रवृत्ति समाज की स्थिति और सोच को कितना दर्शा रही है और उन्हें कितना बदल सकती है? इस युग में साहित्य समाज को दिशा देने और सामाजिक परिवर्तन करने में क्या वाकई सक्षम है
हालांकि यह आवश्यक नहीं कि दैनंदिन गाली बकने वाला स्त्री जाति के प्रति अनादर का भाव रखता हो। जैसा कि पहले कहा, यह क्रिया उसके संस्कारों और परिवेश से अनुकूलित मस्तिष्क में स्वचालित सी आती है और अप्रत्यक्ष रूप से अवसाद या क्रोध का निवारण कर उसे आगे के संघर्ष के लिये तैयार कर देती है। अपने परिवार के और दीगर स्त्रियों के प्रति वह आदर, अनादर या तटस्थता का वही भाव रखता है जो पुरुषों के लिये रखता है।
अब सवाल यह कि स्त्रियां गाली क्यों बकती हैं? पुरुष केंद्रित समाज में अगर पुरुष को झटका देना है या उसके ऊपर विजयप्राप्त करनी है तो उन्हीं अस्त्रों का प्रयोग क्यों नहीं जिनका प्रयोग वह स्त्री को पीड़ित करने के लिए करता है? बहुधा स्त्री के मुंह से लैंगिक गालियां निरर्थक लगती हैं लेकिन पुरुष के लिए स्त्री की यह निर्लज्जताएक जोरदार झटका होती है, साथ ही समागम क्रिया में पुरुष वर्चस्व को चुनौती भी- फक यू! ............... तुम ही नहीं मैं भी सकती हूं, तुम्हें आनंद आता है तो मुझे भी आता है। ऐसी स्त्री प्रतिद्वंद्वी को मानसिक रूप से हीन भाव ग्रसित कर देती है। हालांकि गालियां सीख कर उनका धड़ल्ले से प्रयोग कर लेने वाले भी समझते हैं कि गालियां संवाद की मुख्य धारा नहीं है। अधिकांश बाल बच्चेदार हो जाने के बाद गाली बकना अंतरंग मित्रों की बैठक के लिए सुरक्षित कर देते हैं। यह दर्शाता है कि परिवार के बाहर भी एक अलग सा रागात्मक परिवेश है जो एक दूसरे से इतना खुला है कि निषिद्ध संवाद भी बेहिचक कर लेता है। गालियां वहां सहज ही आती हैं चली जाती हैं। यह निजीपरिवेश परिवार इतना महत्त्वपूर्ण भले न हो, कम महत्त्व नहीं रखता। इस परिवेश में निराशाएं, दुख, क्षोभ साझा किए जाते हैं और आगे के लिये महत्त्वपूर्ण बातें तय की जाती हैं। इस परिवेश से गालियां निकाल कर देखिए औपचारिकता हाबी होने लगेगी।

लेकिन अपने समाज का दर्पण तो बन ही सकता है। जिस समाज में सड़क किनारे या हर उस जगह पर जो साफ, समतल और चिकनी हो, हगने का रिवाज हो, गालियों का चलन सीधे मनोवृत्ति से जुड़ता है।  वैसे लैंगिक गालियां कुछ अधिक ही स्वाभाविक हैं, जो समाज का सच हैं। अगर देखा जाए तो यह युग उदारीकरण के साथ साथ धु्रर्वीकरण का भी युग है। जाति, लिंग, सम्प्रदाय, भाषा, क्षेत्र आदि को लेकर नित नई गोलबंदियां हो रही हैं। वैसे श्रम और ईमानदारी अपेक्षित है न कि एक दूजे की पीठ खुजाने की गोलबंदी और सतही जुमलेबाजी। गालियां इंसान में समाज से नहीं जातीं, बल्कि समाज से इंसान में आती हैं। समाज इतना संस्कारित हो जाए कि गाली बकना ही छोड़ दे, एक बहुत व्यापक फलक वाला विषय है और उसमें इंसान का योगदान तो है लेकिन इतना भी नहीं कि उसे शुचितावादी होकर कृत्रिमता का चोला पहनने की आवश्यकता पड़े।

Friday, July 8, 2016

मत लड़ों आपस में....धर्म के नाम पर

मत लड़ों आपस में....धर्म के नाम पर

हिंदू मसलमान भाईचारा का प्रतीक......अपने अपने धर्मों को मानने वाले...और एक दूसरे के धर्मों में आस्‍था रखने वाले....पर आज न जाने क्‍यों एक दूसरे के खून के प्‍यासे नजर आते हैं.....अगर आजादी के पहले की बात करें तो हिंदू मसलमान आपस में प्रेम सौहार्द के रूप में रहते थे....जबकि अंग्रेजों को उनका आपसी प्रेम कादपि गवारा न था.....इसलिए उन्‍होंने फूट डालों और शासन करों की पद्धति को अपनाया....उसमें वो बहुत हद तक सफल भी हुए....जिसका नतीजा हमें आजाद होते ही भारत से जुदा हुए पाकिस्‍तान के रूप में देख सकते हैं....जिन मुसलमान भाईयों को पाकिस्‍तान जाना था वो चले गए, और जिनको भारत में रहना था वो यही बस गए....... क्‍योंकि उन्‍हें हिंदुस्‍तान की धरती से और हिंदूओं से प्रेम था.... पर यह हमारे धर्म के दलाल ठेकेदारों को, भ्रष्‍ट नेताओं को भी गवारा नहीं हुए...और उन्‍होंने दोनों धर्म के लोगों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ना शुरू कर दिया....और दोनों धर्म के लोग भी कितने बड़े उल्‍लू हैं जो उनकी बातों में आसानी से आ जाते हैं और मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं....मैंने भारत में बहुत सी जगहों पर मंदिर और मस्जिदों को एक साथ एक ही जमीन पर बने हुए देखा है...आप सब लोगों ने भी देखा होगा....कभी वो तो आपस में नहीं लड़ते....न कभी आपने सुना की राम की लड़ाई अल्‍लाह से हुई....या किसी देवी-देवताओं की लड़ाई खुदा से हुई.....वो अपनी जगह विराजमान रहते हैं और अल्‍लाह अपनी समाधी में लीन, बिना किसी मतभेद के......पर धर्म के ठेकेदार और नेता बस उनके नामों पर दोनों धर्मों के लोगों को लड़ते रहते हैं......यदि अाप लोग अपने-अपने धर्मों में आस्‍था रखते हैं अपने खुदा और ईश्‍वर में विस्‍वास रखते हैं तो कुछ सीखिए उनसे....कि वो आपस में क्‍यों कभी नहीं लड़ते.... अगर आप लोग सोच सके तो सोचिए कि कभी मौलवी और बाबा आपसे में क्‍यों नहीं लड़ते....वो तो धर्म के ठेकेदार है उन्‍हें तो और पहले लड़ना चाहिए...वहीं कभी ओबेसी और योगीनाथ को अापस में लड़ते देखा है....नहीं ना.....और न ही कभी देख सकते हो क्‍योंकि वो सिर्फ आप लोगों को आपस में लड़कर अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते हैं....और शादी पार्टी महफिलों में आपस में गले मिलते हैं साथ बैठकर याराना दिखाते हैं.. वो लोग तो बाहुबलि है चाहे तो ओबेसी योगीनाथ पर या योगीनाथ ओबेसी पर धर्म के नाम पर हमला बोल सकते हैं पर नहीं.....वो तो बस आग लगाकर दूर खड़े होकर तमाश देखते हैं और हम लोग आपस में मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं.....क्‍यों आपस में लड़कर देश को भीतर से खोंखला बनने में लग हो....यदि बाजूओं में बहुत ताकत है तो अंदर मरने-मारने से अच्‍छा है देश के लिए मरो और मारो.....जाओ...देश की सीमाओं पर......तब नानी मरने लगती है.....नहीं साहब हम तो अपने ही भाईयों को खून बहाएंगे.....देश के लिए नहीं मरेंगे हम तो धर्म के लिए ही मरेंगे....जागों अभी तो जाग जाओं....सभी कुछ है तुम्‍हारे पास, विवेक, बुद्धि, फिर भी इन ढोंगियों की बातों में क्‍यों आ जाते हो.....इस धर्मवाद के पाखंड से बाहर निकलो और इंसान बनों..इंसानों की, बुजुर्गो, बच्‍चों और असाहय लोगों की मदद करों...ईश्‍वर अल्‍लाह आपको स्‍वत: मिल जाएगा।