सरोकार की मीडिया

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Thursday, March 28, 2013

एक के साथ एक ऑफर


एक के साथ एक ऑफर
मेरे द्वारा लिखे जाने वाला यह लेख पूर्णत: काल्‍पनिक है इसका किसी जीवित व मृत  व्‍यक्ति से कोई सरोकार नहीं है। यदि इस लेख द्वारा किसी की भावना को आहत पहुंचता है तो इसके लिए मैं तहे दिल से क्षमा चाहता हूं।
क्या आप बलात्‍कार नहीं कर पा रहे हैं..?? क्या आपका दिल दिमाग बलात्‍कार के लिए परिपक्‍य नहीं है..?? क्‍या आप नाबालिग हैं... ?? क्या आपका साहस, हिम्‍मत इसके लिए जबाव नहीं दे रही है.....?? या फिर बलात्‍कार के बाद पकड़े जाने का भय सता रहा है... ??
तो इसमें परेशान होने की कोई बात नहीं... इंटरनेट संस्‍थान लाया है आपके लिए एक नया और शानदार xxx का चमत्‍कारी यंत्र। अरे चमत्‍कारी यंत्र नहीं बलात्‍कारी यंत्र। इसको देखने मात्र से कोई भी सभ्‍य पुरूष कुछ ही मिनटों में इतना उत्‍तेजित हो जाएगा कि उसके अंदर बलात्‍कार करने की प्रवृत्ति सिर उठाने लगेगी। और आप खुद व खुद बलात्‍कार के लिए प्रेरित हो जाएंगे। इसके शानदार और जल्‍द लाभकारी होने की वजह से पूरा समाज आपसे नफरत करने लगेगा और यह भी हो सकता है कि बलात्‍कार के बाद आप पकड़े भी जाए, इसकी भी आप चिंता न करें इसके लिए फरकार लाया है भ्रष्‍टाचार बढ़ाओं यंत्र।
मैं बहुत परेशान था हर रोज किसी न किसी ने द्वारा बलात्‍कार करने की खबर सुनता रहता था। और कभी-कभी पकड़े जाने की भी खबर सुनता था। मेरी हिम्‍मत जबाव नहीं दे रही थी..मैं बहुत निराश हो गया था.. जब भी कोशिश करता दिल दिमाग काम करना बंद कर देता था... फिर मुझे मेरे एक दोस्त पपलू ने इंटरनेट संस्‍थान के xxx बलात्‍कारी यंत्र के बारे में बताया.. आप यकीन नहीं मानेंगे ये शानदार है... इसके इस्‍तेमाल से, इसका चमत्‍कार कुछ ही क्षण में देखने का मिला और अब मेरे अंदर भी बलात्‍कार करने की उत्‍तेजना आ चुकी है। इसके साथ-साथ यदि मैं बलात्‍कार करने के बाद पकड़ा भी जाता हूं तो फरकार का भ्रष्‍टाचार यंत्र मेरी रक्षा करेगा। ये तो वाकई कमाल हो गया। हैं न एक के साथ एक ऑफर।
इस xxx  बलात्‍कार यंत्र की कीमत है 10000 जी नहीं 5000 नहीं, इसकी कीमत है सिर्फ 30 रूपए से लेकर 125 रुपए.. यदि आपको पकड़े जाने का भय है तो इसके लिए आप ले सकते हैं भ्रष्‍टाचार यंत्र। जिसकी कीमत आप नहीं सामने वाला निर्धारित करता है। तो फिर देर न करें, अभी कॉल करें, अगर आप अभी कॉल करते हैं तो आपको 10 % डिस्काउंट भी दिया जाएगा... यह भुगतान आप अपने एटीएम कार्ड से भी कर सकते हैं। तो बिलकुल देर ना कीजिए.. हमें तुरंत कॉल कीजिए....
सभी आर्डर G.P.S द्वारा भेजे जाएंगे...

Wednesday, March 27, 2013

हे बलात्कारी पुरुष


हे बलात्कारी पुरुष

हमारे समाज और पुरुष वर्ग के बीच से ही उत्पन्न यह अजीमोंशान कामांध व्यक्तित्व के धनी, ये चंद लोग जिनकी संख्याओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है। जिनकी हिम्मत की मैं दाद देना चाहता हूं, क्योंकि इन चंद लोगों की कारगुजारियों से समाज व हमारा मीडिया, हम सब को प्रतिदिन रूबरू करवाता रहता है कि फलां व्यक्ति ने आज बलात्कार किया। कितना अच्छा काम है बलात्कार करना? वो भी बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी भय के। वैसे इन बलात्कारियों की कोई अलग से पहचान नहीं होती, कि फलां व्यक्ति बलात्कारी है या हो सकता है। यह तो हम और आप के बीच में रहने वाला इंसान ही है जो मात्र अपनी हवस व शारीरिक पूर्ति को पूरा करने के एवज में चाहे वह नाबालिग बच्ची हो या वृद्धा, उसे अपना शिकार बना लेता है। उसे वह नोचता है, खसोटता है और पूर्ण पुरुष होने का प्रमाण देता है। वहीं पीड़िता के हाल की मत पूछो और पूछने से फायदा ही क्या। क्योंकि उसके दर्द को हम सब महसूस नहीं कर सकते। अगर पूछना है तो उस बलात्कारी से पूछो, कि उसके अंदर कैसे बलात्कार करने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। यह अचानक उत्पन्न हुई या फिर इस कृत्य को करने की वह पहले से ही रणनीति अपने कुंठित मस्तिष्क में बना चुका था। जिसके बाद वह केवल मौके की फिराक में था कि कब मौका हाथ लगे और मैं बलात्कार को अंजाम दूं। बलात्कार को अंजाम देने के उपरांत इन बलात्कारियों पर शोध करने की आवश्यकता है, कि बलात्कार करने के बाद वह कैसा महसूस करते हैं? और पीड़िता के बारे में उसके क्या विचार शेष हैं। क्या वह दुबारा बलात्कार करने के इच्छुक है, इसके साथ-साथ इस बात का भी अध्ययन करने की मुख्य रूप से जरूरत है कि ऐसे कौन-से हालात उत्पन्न हुए जिस कारण से उसे बलात्कार करने को मजबूर होना पड़ा।
हालांकि बलात्कार के बाद पीड़िता की मनोस्थिति का अवलोकन किया जाए तो समाज की एक हकीकत से हम सब परिचित हो जाएंगे कि किस तरह बलात्कार पीड़िता को ता-जिंदगी उस गुनाह की सजा भुगतनी पड़ती है जो उसके नहीं किया। इस सजा के दायरे में उसे जिंदगी भर उस समाज से व अपने परिजनों से नजरें झुकाकर रहना पड़ता है जिस समाज व परिवार में वह बेटी, पत्नी, मां आदि रूपों में अपनाई गई थी। आखिर गलती किसी की और सजा किसी और को। बड़ी नइंसाफी है। क्योंकि इन पीड़िताओं को इंसाफ तो मिलने से रहा, यह तो आप सब भलीभांति जानते ही होंगे?
ठीक है अब बलात्कार हो गया सो हो गया, क्यों हो हल्ला माचते हो, कि बलात्कारियों को फांसी की सजा होनी चाहिए? हल्ला मचाने की अपेक्षा इन बलात्कारी पुरुषों को किसी मंच पर विशिष्ठ अतिथि के रूप में बुलाकर उन्हें सम्मानित करना चाहिए साथ-ही-साथ उनके द्वारा अंजाम कार्यों को जनता तक प्रेषित भी करना चाहिए कि किस तरह इन बलात्कारी पुरुषों द्वारा अपनी हवस को शांत करने के लिए मासूम से लेकर वृद्धा तक को अपनी हवस का निशान बनाया है और उसकी इज्जत को सरेआम तार-तार किया है। वैसे यह कोई आसान काम नहीं है इसके लिए दिल, कलेजा, गुर्दा, हिम्मत और भी बहुत कुछ की जरूरत होती है, साथ-ही-साथ इस काम को कोई महान सोच वाला तथा शाक्तिशाली पुरुष ही अंजाम दे सकता है। जिसे समाज, कानून व्यवस्था और भारतीय दंड संहिता का दूर-दूर तक कोई भय न हो।
वैसे इन बलात्कारियों के लिए भारतीय दंड संहिता में सजा का प्रावधान है जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा-375 में बलात्कार के कृत्य को विस्तार से परिभाषित किया गया है। तो वहीं धारा-376 में बलात्कारी के लिए सजा का प्रावधान भी है। इसके अनुसार दोषसिद्ध हो जाने पर (जो लगभग-लगभग कभी सिद्ध नहीं होता, अपवादों को छोड़कर) बलात्कारी को 7 साल से लेकर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है। वैसे आजकल बलात्कारियों को मृत्युदंड (फांसी) देने के प्रावधान पर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है। जो शायद ही कभी बन सके? इस कानून के न बनने के पीछे मुख्य कारण हमारा पुरुष प्रधान समाज ही है जो कभी नहीं चाहेगा कि पुरुषों के खिलाफ कोई भी इस तरह का कानून बने, जो बाद में जाकर उनके गले की हड्डी साबित हो, जिसे न तो वह निगल सके न उगल सके।
हालांकि बलात्कार को दुनिया का जघन्यतम अपराध केवल-और-केवल कानून व्यवस्था के अंतर्गत ही माना गया है। अगर यह वास्तव में जघन्यतम अपराध की श्रेणी के दायरे में होता तो इसके ग्राफों में बाजारवाद की तरह लगातार वृद्धि नहीं देखी जाती। और इस तरह के कृत्यों पर पूर्णतः अंकुश लग गया होता। हां यह बात सही है कि बलात्कार जितना जघन्य अपराध होता है उतनी ही लंबी उसकी न्यायिक प्रक्रिया। वैसे भारत के थानों में रोजाना बलात्कार के सैकड़ों मामले दर्ज होते हैं। लेकिन दर्ज होने वाले मामले, वास्तव में होने वाले बलात्कार के मामलों के मुकाबले काफी कम होते हैं। इसका मुख्य कारण कि बलात्कार की शिकार महिला कोर्ट-कचहरी नहीं जाना चाहती, और बलात्कार को अपनी नियति मानकर चुप बैठ जाती है। पीड़िताओं की इस चुप्पीके मूल में हमारा पुरूष प्रधान समाज और सामाजिक मान्यताएं भी काम करती हैं। हमारे समाज में बलात्कार की पीड़ित महिला को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, उसका हमेशा ही तिरस्कार किया जाता है। इसलिए अधिकतर पीड़ित महिलाएं और उनके मां-बाप बलात्कार के बाद खून का घूंट पीकर चुप हो जाते हैं। और अगर वह इंसाफ के मंदिर में जाते भी हैं तो वहां उन्हें एक लंबा इंतजार करना पड़ता है। इस लंबे इंतजार के साथ-साथ उसे पुलिस से लेकर बाहुबली तक का भी सामना विभिन्न-विभिन्न परिस्थितियों में उस व उसके परिवार को करना पड़ता है। इन सब के उपरांत भी इंसाफ मिल जाए तो भगवान ही मालिक है।
तभी तो इसी लाचार पुलिस व्यवस्था व लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते हम आए दिन समाज में इन बलात्कारी लोगों के किस्सों को मीडिया के द्वारा रोजाना मुखतिब होते रहते हैं। यदि समाज सजग और कानून व्यवस्था सख्त हो जाए तो शायद बलात्कार के मामलों में कुछ हद तक कमी हो जाए। और आधी आबादी कुछ तो अपने आप को इस राक्षसी समाज से सुरक्षित महसूस कर सके। नहीं तो हे बलात्कारी पुरुष आप.........................।

Monday, March 18, 2013

मीडिया यथार्थ और नैतिकता


मीडिया यथार्थ और नैतिकता
एक सदी पहले कहा गया था कि ‘‘जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’’ परंतु आज मीडिया के परिपे्रक्ष्य में यह बात कदापि लागू नहीं होती। क्योंकि मीडिया आम जनता का हथियार होने के साथ-साथ शोषण का औजार बनता जा रहा है। वह कभी संचालक, निर्णायक के साथ-साथ खलनायक की भूमिका का भी निर्वाहन करने लगा है जिस कारण से सीधे मानव जीवन प्रभावित हो रहा है। यह आज के मीडिया का वास्तविक पहलू है जिसके धरातल पर उपजी खाई समाज के सच और मीडिया की नैतिकता के बीच साफ तौर पर देखी जा सकती है।
मीडिया नैतिकता और यथार्थ के नाम पर जो प्रकाशित व प्रसारित कर रहा है उसमें पूर्णतः सच्चाई हो, नैतिकता हो, इस बात पर हमेशा से प्रश्नवाचक चिहृ लगते रहे हैं। क्योंकि वह ‘‘समाज से कुछ-न-कुछ अंश छिपा ही लेता है, बाकि चीजों को वह बढ़ा-चढ़ा कर समाज के समाने परोस देता है। मीडिया जनता से यथार्थ के कुछ अंश इसलिए छिपा लेता है क्योंकि, वो समाज को सच से रू-ब-रू कराने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।’’ वैसे मीडिया ने अपनी सारी नैतिकता की सीमाओं को लाघंकर दुनिया को अपने शिकंजे में कस लिया है। इस शिकंजे की पहुंच से अब गरीब तबका भी अछूता नहीं रहा है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया ऑक्टोपस की भांति अपनी बांहें पसारे खड़ा हुआ है न जाने कब किस बांह से गर्दन दबोच ले। और सामने वाले को पता ही न चल पाए। ‘‘इस खेल के पीछे बाजारवाद और पूंजी की शक्ति काम करती है। जिस कारण समाज की अधिकांश जनता को अपनी अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है। इस अंधी दौड़ के चलते मीडिया ने हमें सनसनीखेज सुर्खियों का आदी बना दिया है। इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीति, घटना आदि सभी क्षेत्र में सनसनीखेज तत्व हावी होने लगे हैं। यही सनसनीखेज सुर्खियां जनता के दिमाग पर लगातार बमबारी कर रही हैं। इस हमले में ज्यादा-से-ज्यादा खबरें होती हैं।’’ किंतु इन खबरों की व्याख्या करने और आत्मसात करने की जरूरत में लगातार गिरावट आ रही है। ‘‘आज मीडिया जनता को संप्रेषित ही नहीं कर रहा, अपितु भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ बखूबी कर रहा है।’’
यह सही है कि एक हद तक मीडिया उद्योग का रूप अख्तियार कर चुका है तथा मुनाफा अर्जित करना उसका मूल उद्देश्य बन गया है। इस कारण से यह ज्ञात हो पाना मुश्किल प्रतीत होता है कि पत्रकारिता मिशन है या व्यवसाय। यह सवाल विचारणीय है? आजादी के बाद मिशन से व्यवसाय बनी पत्रकारिता अब ग्लोबल आंधी में बाजार की कठपुतली बन गई है। इस बाजार के नए औजारों ने इसकी नैतिकता को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। जे.बी. मैकी के कथनानुसार कि - ‘‘पत्रकारिता में किसी भी तरह भ्रष्टता या नैतिक भावना के साथ खिलवाड़ का परिणाम अंत में बुरा ही होता है।’’ ‘‘क्योंकि अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक का पैरामीटर उनके किसी काम का नहीं है। नैतिकता के प्रश्न उनके लिए बेमानी होने लगते हैं। मीडिया की प्रवृत्ति में दिनोंदिन तेजी से आ रहे बदलाव यथार्थ के बाजारवाद के मॉडलका ही परिणाम है।’’
वास्तव में यह युग सूचना और संचार क्रांति का युग है जिसमें मीडिया अपने मूल आदर्शों से पतित हो रहा है। सामाजिक सरोकारों से लगातार विमुख होते जाने से मीडिया का नैतिक पतन निश्चित रूप से हुआ है। ‘‘आज के पत्रकारी युग का आदर्श, खबरों को देना नहीं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण खबरों को बेचना भर रह गया है। खबरों में न केवल मिलावट हो रही है बल्कि पेड न्यूज के तहत विज्ञापनों को खबरों के रूप में छापकर पाठकों को गुमराह तक किया जा रहा है।’’
इस आलोच्य में बात करें तो आज का मीडिया खतरे की चेतावनी नहीं देता, बल्कि खतरे को कई बार और बढ़ा देता है। ‘‘कुछ वर्षों पहले गुजरात के गोधरा कांड’, के दौरान उन्माद बढ़ाने वाली रिपोर्टिंग के जरिये यही तथ्य उजागर हुए। अभी हाल ही में मुंबई के होटलों में हुए आतंकवाद घटनाओं की रिपोर्टिंग ने राष्ट्रीय सुरक्षा तक की चिंता नहीं की।’’ एक समय था जब मीडिया में सत्य, प्रेम, अहिंसा, करूणा, दया और मानवता का संदेश देने वाले महापुरूष और देश पर प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी उन खबरों के नायक हुआ करते थे, लेकिन आज तस्करों, डकैतों, बलात्कारियों को इनमें नायकत्व मिल रहा है। जैसे-‘‘2005 के आखिरी महीनों में दिल्ली पब्लिक स्कूल के दो छात्रों का जो अश्लील एम.एम.एस. बना था। देश भर ने वो तस्वीरें देखीं और जनता नैतिकता पर मीडिया की चिल्लाहट की गवाह बनी। इस खबर के बाद लड़की के पिता ने आत्महत्या कर ली।’’
कहना गलत न होगा कि, मीडिया में ध्वस्त होते नैतिकता के मानदंड इतने प्रभावित हो चुके हैं कि उसमें सूचना का यथार्थ अपने-अपने हितों को साधने के कारण बदल जाता है। ज्याॅ बोद्रिया के शब्दों में, ‘‘मीडिया शब्द, दृश्य और अर्थ को ध्वस्त करके उन्हें पुनर्निर्मित करता है ताकि इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जा सके। मीडिया हमारे और यथार्थ के बीच मध्यस्थता करता है और यह मध्यस्थता हमारे लिए यथार्थ को अधिक-से-अधिक अवमूल्यन करती है। क्योंकि, लक्ष्मण रेखा के उस पार सफलता का उजाला नहीं बल्कि असफलता का जिल्लत भरा अंधेरा है।’’ क्या हमारे देश के पत्रकार और मीडिया न्यूज ऑफ द वर्ल्‍डके अंजाम से कुछ सबक लेंगे? उनका जो हो सो हो, पर सवालों से घिरा भारतीय मीडिया इस दुर्घटना से सबक क्या लेता है? ‘‘पिछले दो दशकों के दौरान हमारे मीडिया ने भी लक्ष्मण रेखा को लगातार लांघा है। मीडिया को व्यवसाय मानने में कोई हर्ज़ नहीं है, परंतु हर पेशे की अपनी नैतिकता होती है और नैतिकता के अपने ही मानदंड। क्योंकि इनका निर्वाह ऑक्सीजन की तरह है, जिसके बिना जिया नहीं जा सकता। ये मानदंड इधर के सालों में लगतार टूटे हैं। यह चिंता की बात है।’’ 
हालांकि इसमें कोई दो राह नहीं है, कि ‘‘आज राजनीतिक दलों व औद्योगिक कंपनियों के मीडिया प्रकोष्ठ और पी.आर. एजेंसियां मिलकर समाचार की अंर्तवस्तु को दिनोंदिन प्रभावित कर रही है, उसे अपने अनुसार तोड़-मरोड़ रही है, धुमा रही है, अनुकूल अर्थ दे रही है, और यहां तक कि जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिकूल की खबरों को दबाने तक की पुरजोर कोशिशें कर रही है। इसमें करोड़ों रूपये की डील हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधन के बढ़ते दबदबे और दबाव ने मीडिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता तथा सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों को न सिर्फ कमजोर करके गहरा धक्का पहुंचाया है बल्कि उसकी साख और विश्वसनीयता को भी अपूर्णनीय क्षति पहुंचाने का काम किया है।’’
निष्कर्ष की बात करें तो ‘‘नैतिकता जीवन समाज के किसी भी क्षेत्र में गांधीयुग की तरह नहीं रही है तो फिर मीडिया में ही क्यों रहे? लोकतंत्र के अन्य स्तंभों पर अंकुशपरक नजर रखने की जिम्मेदारी मीडिया पर है जब तीनों स्तंभ अनैतिकता और भ्रष्टाचार के दीमक से एकदम खोखलें हो गए हैं तब चैथे स्तंभ खबरपालिका में 60 साल तक नैतिक रूप से श्रेष्ठ रहने के बाद वैश्विकरण व बाजार के कुछ दीमक लग गए तो इतनी हाय-तौबा, शोर-शराबा क्यों? जब जीवन व समाज में कही आदर्श नहीं तो एक मात्र क्षेत्र मीडिया के लिए इतने कडे़ आदर्श क्यों?’’ समझ से परे की बात प्रतीत होती है।
फिर भी कहना कठिन है कि मीडिया के इस परिवर्तन का क्रम कहां जाकर थमेगा। जरूरत है अपनी संस्कृति के संस्कार और संविधान की मर्यादा के प्रति जागरूकता बनाए रखने की। तभी हम ग्लोबल तूफान के बावजूद ऐसी परिस्थितियां पैदा कर सकेंगे जो मीडिया को उसके मौलिक स्वरूप और चरित्र के साथ-साथ न्याय कर सकने में सक्षम हों।

Sunday, March 17, 2013

फिल्म और संस्कृति


फिल्म और संस्कृति
भारतीय फिल्में अपने आरंभ काल से ही हमारे समाज का आईना रही हैं। जो समाज में हो रही गतिविधियों को समय-समय पर रेखाकिंत करती आई हैं। वैसे तो सभी जानते है कि भारतीय जगत में फिल्में बनाने का संपूर्ण श्रेय दादा साहब फाल्के को जाता है, जिन्होंने सन् 1913 में राजा हरिश्चन्द्रफिल्म बनाकर फिल्मों का सूत्रपात किया और भारतीय सिनेमा को जन्म दिया। हालांकि दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित राजा हरिश्चन्द्रमूक फिल्म थी फिर भी दर्शकों ने इसको बहुत पसंद किया। उसके बाद अर्देशियर ईरानी द्वारा सन् 1931 में पहली बोलती फिल्म आलमआराका निर्माण किया जिससे फिल्मी जगत में नई क्रांति उदय हुआ।
वैसे तो उस काल में अधिकांश फिल्में राजा-महाराजाओं के शौर्य व वीर गाथाओं पर बनाई जाती थी। इसके पश्चात धीरे-धीरे समाज में फैली बुराईयों पर भी आधारित फिल्मों का निमार्ण होने लगा। जिसका सकारात्मक प्रभाव हमारे समाज पर बखूबी देखने को मिला। हिंदी सिनेमा में नववास्तविकवाद तब दिखा जब विमल राय की दो बीघा जमीन, देवदास और मधुमती व राजकपूर की बूट पालिश, श्री 420 आई।  साठ के दशक में आई मुगल आजम ने नया रिकार्ड बनाया और सच्ची प्रेम कहानी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया। उसके बाद जिस देश में गंगा बहती है, वासु भटटाचार्य की तीसरी कसम, देव आनन्द की गाईड सभी फिल्में समाज से जुडी हुई थी। उसके बाद ही भारतीय सिनेमा में महिलाओं की भागीदारी भी बढ़ी। जिसमें युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बाम्बे के लिये केन्स में गोल्डन कैमरा आवार्ड जीता। नब्बे के दशक में सूरज बडजात्या की फिल्म मैंने प्यार किया, हम आपके के कौन, हम साथ-साथ हैं और यशराज की दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे ने रोमांस, शादी के रीति-रिवाज और करवाचैथ की परिभाषा ही बदल दी। तब से हर नई विवाहिताओं को करवाचैथ का व्रत रखना भारतीय रिति-रिवाज में शामिल हो गया और हर नई विवाहित अपना पहला करवाचैथ बड़े ही धूमधाम से मनाती है। इसमें उपयोग होने वाली सामग्री की तैयारियां व्यापारी वर्ग महीनों पहले से करना प्रारंभ कर देते हैं।
अगर कहें तो आज से लगभग 25 से 30 साल पहले और आज के समाज और संस्कृति में अंतर साफ नजर आता है। पहले जब माता-पिता अपने बच्चों की शादी की बात करते थे तब बच्चों से कोई सलाह नहीं लेते थे, जिसका कारण मर्यादा थी। क्योंकि पहले माता-पिता का मानना था कि बच्चों के जीवन का सही गलत निर्णय लेना उनका काम है न कि बच्चों का। क्योंकि बच्चों को निर्णय लेने की समझ नहीं है। लेकिन आजकल माता-पिता हर छोटी-से-छोटी बात बच्चों से पूछकर ही करते हैं। जिसका कारण कही हद तक हमारी फिल्मों को ही जाता है। क्योंकि फिल्मों में वही जानकारी दिखाई जाती है, जो हमारे आसपास घटती हो रही होती हैं। फिल्मी परिदृश्य में जो भी काल्पनिक या सत्य घटनाओं पर आधिरित होती हैं वह हममें से ही किसी एक से कहीं-न-कहीं सरोकार जरूर रखती हैं। चाहे बच्चों की शिक्षा, बालिका शिक्षा, आगे बढ़ने का जुनून, कपडे पहनने का ढंग, रहने का तौर-तरीका, त्यौहार मनाने का ढंग सभी किसी-न-किसी से संबंधित होते हैं।
अब शादियों को ही ले लीजिये। पहले आम आदमी की शादियों में क्षेत्रीय रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलती थी, क्षेत्र के अनुसार ही बरातियों का स्वागत, भोजन, कन्यादान और पहनावा हुआ करता था। लेकिन वर्तमान में फिल्मों को देखकर लोगों ने क्षेत्रीय रीति-रिवाजों को छोडकर फिल्मों में दिखाई जाने वाली संस्कृति को अपने परिवेश में ग्रहण करना शुरू कर दिया है। पगडी पहनने से लेकर बारातों में डीजे की धुन पर थिरकते देखा जाना अब आम बात हो चही है। अगर देखा जाये तो इस बदलाव से लाखों लोगों को रोजगार मिला है, जिसमें पढे़-लिखे युवाओं से लेकर दो जून की रोटी को तरसने वाले गरीब और महिलाएं भी शामिल हैं। भारत में एक साल में सिर्फ शादी का टर्न ओवर लगभग 50 अरब रूपएं है जिसमें 25 से 30 प्रतिशत की दर से प्रतिवर्ष वृद्धि हो रही है।
वर्तमान में अधिकतर फिल्में नए जमाने के युवाओं पर बनाई जा रही हैं, जिसमें युवा कंप्यूटर पर काम करता और मोबाइल पर बात करता दिखाया जाता है। फिल्म थ्री इडियटस में युवाओं की सोच के बारे में बताया गया है कि कैसे माता-पिता बच्चों पर इंजीनियर, डॉक्टर, वकील आदि बनने का दबाब बनाते हैं, जबकि उन्हें उसमें रूचि ही नहीं है। फिल्म तारे जमीन पर, कोई मिल गया, जिंदगी न मिलेगी दोबारा और हाल ही रिलीज हुई काई पो चे। अधिकतर फिल्मों में युवाओं की सोच दिखाई गई है, क्योंकि वर्तमान में युवाओं की सोच आज के दृष्टिकोण से अगल हटके तथा हमेशा कुछ नया करने के जज्बों से तल्लुकात रखती है।
यह बात सही है कि हम सोचते हैं कि बच्चे फिल्में देखकर बिगड रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है, कि फिल्में देखकर ही लोगों ने अपनी पुरानी मानसिकता और सोच बदली और बदलती चीजों को अपने चिंतन मन में जगह दी। क्योंकि पहले लोगों की सीमित सोच के कारण वह संकुचित व पुराने ढ़र्रे पर आधारित मानसिकता के गुलाम हुआ करते थे। लेकिन यह कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि भारतीय फिल्मों ने युवाओं को जीने का नया तरीका सिखाया है। सही और गलत में निर्णय लेना सिखाया है, और यह भी बताया है कि हर इंसान में कुछ-न-कुछ अगल होता है। जिसको केवल समझने की जरूरत होती है। और इस समझ के चलते वह अपने जीवन को प्रगति के पथ पर असानी से अग्रसरित कर सकता है।
हालांकि फिल्मों के सकारात्मक पहलु के साथ-साथ इसके कुछ नकारात्मक पहलु भी हमारे समाज के सामने परिलक्षित हुए हैं। वह हैं;- अश्लीलता, हिंसक प्रवृति और नैतिकता का पतन। जिनमें अश्लीलता प्रमुख रूप हमारे समाज में फैलती जा रही है जिसका सहयोग फिल्में भी कर रही है। आज कोई भी फिल्में को ले तो उसमें कुछ-न-कुछ अंश या पूरी कहानी व उस फिल्म के गाने अश्लीलता से परिपूर्ण होते हैं। जिसका हमारे समाज पर बुरा प्रभाव देखने को मिलता है। इसके साथ ही फिल्मों में जो ऐक्टिंग होती है वैसी ही ऐक्टिंग युवा घर पर करते हैं जिससे हिंसात्मक प्रकृति बढ़ती है। युवा फिल्म कहानी, गीत-संगीत हम देखते हैं, मार-धाड़ के दृश्य ज्यादा देखते हैं और देखते हैं अश्लीलता का चित्र। यह हिंसात्मक प्रवृत्ति आदर्श समाज बनाने में घातक है। जैसे फिल्मों में एक अदाकार दूसरे अदाकर को चाकू मारता है वैसी ही मार-धाड़ की सूटिंग युवा अपने घर में करते हैं। शिक्षा संस्थानों एवं सड़कों पर करते हैं। फिल्मों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं इसके साथ’-साथ आजकल अंग-प्रदर्शनकारियों की कीमत भी बढ़ गई है। फिल्म निर्देशक अंग-प्रदर्शन को कलात्मक कह रहे हैं। अंत में कहे तो फिल्म माध्यमों से समाज दूषित होता जा रहा है। इसे ठीक करना बहुत मुश्किल है। जो समाज के लिए बहुत घातक है।