सरोकार की मीडिया

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Sunday, November 17, 2013

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया में महिला खबरें गौण

मीडिया अपनी मिशन की यात्रा करते हुए आज कालपनिक दुनिया का सफर तय करने लगा है। जिसमें हर चीज कल्पना के इर्द-गिर्द घुमती हुई दिखाई देती है। कालपनिक दुनिया ने जैसे हमारे सीमित उपयोगितावादी चेतना तंत्र को मानो डंस लिया है। जिसका जहर हम सब की रगों में खून बनकर दौड़ता मालूम पड़ता है। वैसे मीडिया इस कालपनिक दुनिया का सहारा लेकर हमारे समाज में वेश्या जैसी भूमिका निभाता हुआ प्रतीत होता है। जिसको न तो अपयाना जा सकता है और न ही तिरस्कार। हालांकि व्यापक समाज किसी भी तंत्र के प्रति निर्विकार रह सकता है, परंतु यदि उसमें सभ्य आचरण की अंतरंगता को विज्ञापनी व्यावसायिकता में तब्दील करके सभ्य संभोग का प्रस्तुतिकरण करके दिखाए जाने के उपरांत यदि वह उत्तेजित हो उठता है, तो इसमें स्वार्थ या पाखंड का मूल तत्त्व विराजमान है। इस तत्त्व का बचाव यह कह कर नहीं किया जा सकता कि यह बुराई तो एक आदिम बुराई है और मीडिया एक आधुनिक घटना, जिससे यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह इस अश्लीलता को प्रोत्साहित या सहन करेगा। तनिक-सा गौर करते ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहां तक स्त्री का ताल्लुक है, तथाकथित आदिम और तथाकथित आधुनिक दृष्टियों में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है। साथ ही यह भी कि संगठित इस तंत्र के जन्म के पीछे जो व्यावसायिक दबाव थे, वही दबाव आज मीडिया में देखने को मिल रहे हैं। क्योंकि अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यही व्यावसायिकता कहीं-न-कहीं मीडिया उद्योग की भी प्राणवायु बन चुकी है।
वैसे मीडिया में सभी तरह की खबरों का समावेश देखने को मिलता है, परंतु मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित खबरों में स्त्री हमेशा गुम रही है। क्योंकि उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर रखा गया है। फिर भी स्त्रियों के साथ चूंकि बहुत कुछ ऐसा घटित होता रहता है जिससे हमारी यथास्थितिवादी चेतना को भी धक्का पहुंचता है। अतः स्त्रियों को मीडिया में लाना जरूर हो जाता है। लेकिन अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि वे स्त्रियों  से संबंधित खबरें नहीं हैं। वे भी पुरुषों की ही खबरें हैं-उन पुरुषों की खबरें, जिन्होंने स्त्रियों के साथ कुछ अमान्य आचरण किया है। मसलन दहेज के लिए प्रताडित, हत्या, छेड़छाड़, बलात्कार, नारी देह का प्रदर्शन आदि, जो पुरुष ने किया है और वह स्त्री के साथ हुआ है। वैसे उसके लिए कोई नाम तक नहीं है हमारे पास। इससे पता चलता है कि घटनाओं के बयान करने वाली हमारी शब्दावली तक कितनी नकाफी है।
अब प्रश्न यह उठता है, कि स्त्रियों से संबंधित खबरें क्या हो सकती है? ये खबरें वही हो सकती हैं जिसके केंद्र में स्त्री यानी उसकी स्थिति, उसकी समस्याएं और उसकी सक्रियता हो। हालांकि स्त्री की ऐसी सक्रियता बहुत कम ही है जो खबरों का रूप ले सके। यह एक ऐसा पहलू है, जिस पर स्त्रियों को गइराई से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि पुरुष सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं अथवा उसका दुरूपयोग कर रहे हैं, इसलिए वे हमेशा खबरों के केंद्र में आ जाते हैं। इस संघर्ष रणनीति में स्त्री नहीं के बराबर मौजूद हैं और जितनी है भी, वह चर्चा का विषय बनती ही है। इसलिए सीमित होने के कारण स्त्री के अपने संघर्ष मीडिया में प्रतिबिंबित नहीं होते। इसका कारण यह यथास्थितिवादी सोच ही है कि स्त्रियां मौजूद सत्ता संतुलन को छेड़ कर जैसे कुछ अनैतिक काम कर रही हैं। इस मामले में उनकी हैसियत आदिवासियों या हरिजनों से भी गई-गुजरी है।
वस्तुतः यह है कि स्त्री को लगातार हजारों कामुक निगाहों का सामना करना पड़ता है। घर, बाहर लगातार उसे स्त्री होने का दंड भोगना पड़ता है, तो क्या यह बात मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित करने लायक है-उस मीडिया में, जो स्वयं इस प्रक्रिया से पूरी तरह बरी नहीं हो पाया है? कौन-सा अपराध संवाददाता इन छोटी-छोटी, किंतु गंभीर घटनाओं की दैनिक सूची बनाता है? वैसे स्त्री के सभी मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या जहां इच्छा हो वहां जाने का अधिकार तो हमेशा निलंबित रहते हैं, तो मीडिया में किस-किसका उल्लेख किया जाए? निश्चय ही बहुत सारी खबरें इसलिए खबरें नहीं बन पाती हैं क्योंकि वे हमारी दिनचर्या का अंग बन चुकी होती हैं। तो क्या स्त्री की नियति बदलने में मीडिया के सभी जनसंचार माध्यमों की ओर से हमें बिल्कुल निराशा ही हाथ लगने वाली है? क्या यह मान लेना चाहिए कि मीडिया स्त्री की उपेक्षा या स्त्री विरोध के लिए अभिशप्त हैं, अतः वह इस वर्ग के लिए कुछ कर नहीं सकता?
इस लेख के कुछ अंश राजकिशोर द्वारा लिखित पुस्तक पत्रकारिता के नए परिप्रेक्ष्य से लिए गए हैं। राजकिशोर जी सभार.......


Wednesday, November 13, 2013

गंदगी से बू आने लगी.........

गंदगी से बू आने लगी.........

भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की सभी सभ्यताओं ने अपने-अपने क्रमिक विकास में नारी को नीचे और नीचे धकेलते हुए पुरुष की शारीरिक सामथ्र्य और बौद्धिक श्रेष्ठता को तो स्थापित किया ही है साथ ही नारी के साथ सबसे क्रूर उपहास यह किया कि उसे एक देह मात्र में समेट कर रख दिया। पुरुष द्वारा स्थापित इस भार के नीचे स्त्री की समस्त प्रतिभा, अद्भूत शैक्षणिक योग्यता, प्रत्युत्पन्नमतित्व और सारी योग्यताएं गौण बन कर रह गई, यानि न के बराबर हो गई। अगर कुछ बचा तो वह है नारी देह का सौष्ठव और सौंदर्य। यह मानसिकता वर्षों से चली आ रही है। सदियों से चली आ रही इस मानसिकता का प्रभाव यह हुआ कि नारी का सुंदर शारीरिक रूप ही पुरुष और समाज द्वारा स्वीकार किया जाने लगा। क्योंकि पुरुष तो पुरुष, स्त्री समाज में भी नारी की प्रतिभा, और योग्यता की अपेक्षा सुंदर शरीर को ही वरीयता प्रदान की जाने लगी है।
यह सर्वविदित तथ्य है कि ‘‘पुरुष की अपेक्षा स्त्री में सौंदर्य-बोध अधिक होता है। जिसको हम बचपन में बच्चों के व्यवहार के स्वरूप में साफ तौर पर देख सकते हैं कि लड़कियां जहां घर-घर खेलती हैं और अपनी मां के सौंदर्य सामग्रियों का उपयोग करती रहती है, वहीं लड़के दिन भर चोर-सिपाही तथा और भी बहुत सारे खेल खेलते देखे जा सकते हैं। जो लड़के-लड़कियों को उनके व्यवहार से कहीं न कहीं अलग करता है। वैसे हम आदिकाल से ही देखते आए हैं कि स्त्री अपने शरीर को विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित सुशोभित करती आई है। पुरुष की दृष्टि में, पुरुष के वर्चस्ववाद समाज में, सुंदर देह ही स्त्री की पहचान बनी थी। वैसे बीसवीं शताब्दी में शिक्षा के प्रसार और स्त्री मुक्ति के संदर्भ में आंदोलनों ने नारी विमर्श के अनेक प्रश्नों को जन्म देकर स्त्री को अपने अस्तित्व और अस्मिमा के प्रति जागरूक तो बना दिया। परंतु औद्योगिक क्रांति और उपभोक्तावादी संस्कृति ने वस्तुओं के प्रचार के लिए विज्ञापनों का सहारा लिया। और विज्ञापन को लुभावना बनाने के दृष्टिकोण से सुंदर देह से बढ़कर और क्या हो सकता था तो स्वाभाविक परिणति के रूप में सदियों की दासता निद्रा से जागती स्त्री को पुरुष ने फिर सुंदर शरीर के रूप में विज्ञापन की वस्तु बना दिया। उसने स्त्री शरीर के अद्भुत रोमांच और आनंद को भली प्रकार पहचान लिया। अतः उसने स्त्री शरीर से व्यावसायिक लाभ कमाने और नारी देह तथा नारी सौंदर्य को अपना व्यवसाय-व्यापार बढ़ाने का साधन बना लिया। विडंबना तो यह रही कि पुरुष की मनोवृत्ति को पहचान कर भी स्त्री नहीं संभली। वह अपने ही देह प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन, में जाने-अनजाने रस लेने लगी है। यही कारण है कि ‘‘ब्यूटी पार्लरों, मॉडलिंग कंपनियों, नाइट क्लबों, रेस्तराओं, होटलों, कॉल सेंटरों, शॅपिग मॉल्स और भी असंख्य स्थानों पर काम करने वाले कर्मचारियों में युवतियों की संख्या बड़ी तेजी से दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।’’  जो आज आने-अनजाने में कहीं न कहीं अश्लील है और यह समाज में अश्लीलता को बढ़ावा देता है।
हालांकि इसके मूल में कई कारण हैं जो स्त्रियां खुद ही अपनी देह का प्रदर्शन करने लगी हैं। वैसे इसके विश्लेषण से जो तथ्य ज्ञात होते हैं उससे साफ स्पष्ट है कि पुरुष और पश्चिमी संस्कृति ही इसके मूल में विराजमान है। क्योंकि एक तरफ पुरुष जहां नारी को तरह-तरह से उत्पीड़त करके उसको अपने काबू में रखना चाहता है। दूसरी तरफ पुरुष नारी को उपभोग की वस्तु (भोग्या) के रूप में भी प्रदर्शित करना चाहता है ताकि अपनी कामुक इच्छाओं की पूर्ति कर सके। वहीं पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत होकर नारियां ने इसे ही अपना हथियार बना लिया है जिसको हम भारतीय संस्कृति में विराजमान देवी-देवताओं की कहानियों में भी पढ़ सकते हैं कि किस प्रकार विश्वामित्र और भसमाशुर और न जाने कितने ऐसे पुरुष जिनको नारियों ने अपनी देह के द्वारा या तो उनकी तपस्या भंग की या फिर उसे मारवाने में सहयोग किया। ठीक वो ही प्रवृत्ति को अपनाते हुए और पुरुष की विकृत सोच जो नारी देह पर हमेशा से केंद्रित रही है उसे समझ लिया है। तभी तो आज के परिपे्रक्ष्य में नारी अपनी देह को ही अपना ब्राहमास्त्र के रूप में इस्तेमाल करने लगी हैं। यदि यहां इस बात का भी विश्लेषण कर लिया जाए कि नारी के सुंदर देह पर कौन-कौन मोहित हुआ है तो अपवाद स्वरूप शायद यदाकदा ऐसा कोई मिल जाए जो इससे प्रभावित नहीं हुआ हो, नहीं तो ऐसा कोई पेड़ उपजा नहीं, जिसे हवा न लगी हो।

आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो सभी पुरुष इसकी गिरफ्त में आ चुके हैं। और अब तो स्त्रियां भी ऐसा ही करने लगी हैं। ताकि वो अपनी देह से मुनाफा कमा सके। मुनाफा कमाने की इस नीति के चलते वो इस अश्लीलता के दलदल में गले तक धंस चुकी हैं। इन्हीं की देखा-देखी आने वाली नई पीढ़ी भी इन्हीं के पदचिह्न पर चल पड़ी है। वैसे देखा जाए तो समाज में यह गंदगी पहले से ही मौजूद रही है। इस गंदगी की शुरूआत पुरुष समाज द्वारा ही हुई है जो धीरे-धीरे पुरुष प्रधान समाज द्वारा बढ़ती गई। अब आलम यह हो चुका है कि इसमें महिलाओं की सहभागिता के कारण इस गंदगी में बदबू आने लगी है। जो कहीं न कहीं समाज को पूर्णतः गदला रही है। हालांकि स्वयं द्वारा उत्पन्न इस गंदगी से अब समाज भी सकते में आ गया है कि इसका आने वाला भविष्य क्या होगा? यह तो एक ही कहावत चरितार्थ होती है कि बोए पेड़ बबूल का, तो अमीया कहां से पाए........ क्योंकि गंदगी का सफाया पहले ही नहीं किया गया तभी तो इसमें अब बू आने लगी है तो अब पछताने से क्या फायदा।  

Tuesday, October 29, 2013

सोच - महिलावादी

सोच - महिलावादी
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी विकास की बात अधिकार प्राप्ति से जोड़ना तब तक खोखली लगती है जब तक नारी पर चर्चा न कर ली जाए। क्योंकि कत्र्तव्य के बिना अधिकार प्राप्ति सम्मान नहीं दिला पाता। महिला संगठनों व महिलाओं को अगर अपने अधिकारों की स्वीकृति समाज से चाहिए तो उन्हें अपने कर्तव्यों पर भी चर्चा करनी होगी। ये कत्र्तव्य कैसे होगें? इसका निर्धारण वर्तमान हालात कर सकते हैं। पुरुष समाज को भी वर्तमान हालात में महिलाओं की मांग स्वीकारना होगा तथा महिलाओं के मतानुसार उनके द्वारा निर्धारण किए जाने वाले कर्तव्य पर यथा उचित मोहर भी लगानी होगी। महिलावादी समाज उपयुक्त वाक्यों से सहमत नहीं भी हो सकती है क्योंकि उन्हें पुरुषों से स्वीकारोक्ति लेना स्वीकार्य नहीं है। लेकिन यह केवल सिद्धांत स्तर पर ही है क्योंकि आधी आबादी पुरुषों की भी है। अतः पुरुषों की सहमति आवश्यक है। महिलावादी समाज सबसे पहले महिला के कर्तव्य पर चर्चा करे फिर अधिकार की बात करे तो महिला समाज से ज्यादा पुरुष समाज महिला अधिकारों का पक्षधर होगा।
महिलावादी समाज की प्रमुख मांग है उनके अस्तित्व और देह पर केवल उन्हीं का निर्णय व अधिकार हो। लेकिन इस अधिकार की मांग करने में महिलावादी संगठन चूक कर जाते हैं। वह निरंकुशता के साथ अपनी मांगों को मनवाना चाहते हैं जबकि वर्तमान समय लोकतंत्र का है। महिलावादी संगठन महिला विकास की बात करते हैं लेकिन उनके कार्यों से ऐसा लगता है कि वो पांच-दस सालों में ही महिला को विकसित बनाने का स्वप्न देख रही है। उनका यह स्वप्न देखना बुरा नहीं है बस स्वप्न को असलियत में बदलने की प्रक्रिया अप्रसंगिक है। क्योंकि विकास एक प्रक्रिया है जिसमें काफी लंबा समय लगता है। सदियों के फासले पांच-दस सालों में तय कर पाना व्यवहार की दुनिया में संभव नहीं दिख पाता। अधिकारों की स्वीकृति समाज की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। पश्चिम का समाज और भारतीय समाज में काफी अंतर है। पश्चिम समाज के विकास और भारतीय समाज के विकास की यात्रा भी अलग-अलग है। प्रत्येक समाज अपनी जरूरत के हिसाब से कानून बनाता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल में जो कानून बने वह निश्चित तौर पर वर्तमान महिलावादी समाज को असहज बनाता है लेकिन समाज में परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं। अगर वर्तमान नारीवादी समाज अपने कत्र्तव्यों के माध्यम से यह साबित कर दे कि भारतीय समाज का विकास तभी संभव है जब महिला को महिला से संबंधित सभी अधिकार प्राप्त हों। तब समाज स्वतः ही महिला को यह अधिकार दे देगा, लेकिन अगर महिलावादी विचारधारा ने पश्चिमी समाज का उदाहरण देकर भारतीय समाज को बदलने के लिए मजबूर करने की कोशिश की, जो कि वर्तमान महिलावादी समाज कर रहा है तो ऐसे समय में समाज इसकी इजाजत बिलकुल नहीं देगा। क्योंकि तुलना का कोई आधार नहीं है।
वैसे भी स्वाभाविक है कि अगर आप किसी को किसी की तुलना में कमतर आंकते हैं तो प्रथमतः वह व्यक्ति या समाज अपनी प्रतिष्ठा पर इसे आघात मानता है। क्योंकि प्रत्येक समाज ने एक लंबा सफर तय किया है और फिर उसे कमतर बताया जाना वो भी निरंकुशता के साथ समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। अतः महिलाओं को यह चाहिए कि भारतीय समाज को विदेश समाज से तुलना न करें। भारतीय समाज में ही रहकर भारतीय समाज के विकास की बात करके भारतीय समाज को यह एहसास दिलाए कि अब महिलाओं के कंधे पुरुषों के साथ मिलकर काम करने के लायक हो चुके हैं। तब भारतीय समाज इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकेगा। अगर महिलाओं को अपने अधिकारों मिल भी जाते हैं तो क्या उनकी समाज में व पुरुषों के मुकाबले बराबर की प्रतिष्ठा कायम करने में क्या वो सफल हो पाएंगी? यह शोध का विषय हो सकता है।
वैसे आधुनिकता, उत्तराधुनिकता और विकास के परिप्रेक्ष्य में महिलावादी संगठनों ने एक खाका बना रखा है पुरूषों के विरूद्ध। जिस खाके की रूपरेखा हमेशा से ही पश्चिमी सभ्यता से ओतपोत रही है और यह सभ्यता हमेशा से पुरूषों के विरूद्ध, पुरूषों को गरियाने का काम करती आई है। जिसने आज मुखर रूप अख्तियार कर लिया है। वैसे महिलावादी संगठनों ने जहां एक ओर महिलाओं को अधिकार दिलाने की पुरजोर वकालत की, वहीं उसने कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को दूषित भी किया है। जिसको वह अपना अधिकार मानने लगी है्ं। परंतु अपने अधिकारों की चकाचैंध ने उन्हें इस प्रकार अंधा कर दिया है कि वह यह मानने को कदापि तैयार नहीं है कि, संस्कृति को दूषित करने में वो भी जिम्मेदार है। तभी वो आज अश्लीलता की पराकाष्ठा अपने चरम को भी पार कर चुकी है। हालांकि मैं इस बात के पक्ष में बिलकुल  नहीं हूं कि कपड़ों के पहनावे से अश्लीलता बढ़ती हो, हां इस बात के विपक्ष में जरूर हूं कि पहनावे की महिलावादी रणनीति इसका कारण हो सकती है। वैसे महिलाओं के अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना और अधिकार की मांग जायज ही है परंतु नग्नतापूर्ण अधिकारों की मांग कहा तक जायज है यह तो महिलावादी नारियां ही इसे उचित तरीके से परिभाषित कर सकती हैं।
इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो ज्ञात होता है कि पहले हमारी सभ्यता मातृ सत्तात्मक थी। चाहे कबीले हो या समुदाय, हर जगह महिलावर्ग ही हावी था। यानि पूरी सत्ता का दरोमदार महिलाओं के हाथ में था। धीरे-धीरे विकास व सभ्यता का मापदंड बदलता गया और शारीरिक तौर पर कमजोर तथा उचित निर्णय न ले पाने की क्षमता के कारण महिलाओं की सत्ता को पुरूषों ने अपने हाथों में ले लिया। ताकि अपने कबीले व समुदाय की बाहरी लोगों से रक्षा कर सकें। फिर भी अधिकांशतः कामों में महिलाओं की सत्ता काम करती रही। हालांकि वक्त और सभ्यता के परिवर्तन के साथ-साथ इस सत्ता पर भी पुरूष वर्ग काबिज होता गया। और पुरूष वर्ग ने पूरी सत्ता पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। एकाधिकार स्थापित करने के उपरांत हम देख सकते हैं कि विकास की आधारशिला की नींव भी पुरूषों के कंधों पर ही रखी गई, तब जाकर सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। इस सभ्यता और सस्कृति के विकास पर न जाने कितनी पीढियों का हाथ है यह सब इतिहास के पन्नों में कहीं धूल खा रहा होगा। फिर भी विकास की पृष्ठभूमि का मूल आधार पुरूषों ने ही बनाया है इसमें कोई दोमत नहीं है।
फिलहाल महिलाओं के अधिकारों और उत्पीड़न की बात करें तो आज के परिप्रेक्ष्य में स्थिति विकट तो नजर आती है पर उतनी नहीं, जितना यह महिलावादी स्त्रियां इसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने का प्रयास करती हैं। वैसे मैं इस बात को एक सिरे से नकार नहीं रहा हूं कि पुरुषों द्वारा महिलाओं का शोषण सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान समय में भी यह लगातार जारी है। परंतु इसके मूल के प्रमुख कारणों को किसी ने खोजने की बिलकुल भी कोशिश करना मुनासिब नहीं समझा, कि वो मूल कारण क्या थे जहां से उत्पीड़न के सिलसिले की शुरूआत हुई। जिसने धीरे-धीरे विकराल रूप धारण कर लिया। मेरे नजरिए से शायद इसके पीछे महिलावादी संगठनों की विकृत सोच इसका मूल कारण हो सकते हैं। वैसे यह विकृत सोच महिलाओं को उनका अधिकार और सम्मान दिलाने की तुलना में उसे और पश्चिमी सभ्यता के चंगुल में फंसाने का काम कर रही हैं। तभी तो वर्तमान संदर्भ को मुख्य उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि किस प्रकार महिलाएं बाजार की वस्तु बनती जा रही हैं, वो भी अपनी स्वेच्छा से। यह सब भारतीय सभ्यता की देन नहीं अपितु, पश्चिमी सभ्यमा की चकाचैंध का नतीजा है जिससे मोहित होकर आज की महिलाएं यह भूल गई हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी उनके जीवन में कोई मायने रखती है।
हालांकि महिलावादी संगठन हमेशा से यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि पुरुष समाज ने उसे बाजार की वस्तु बना दिया है। उसे इंसान के रूप में नहीं, मात्र देह के रूप में देखा जा रहा है। वस्तुतः यहां यह कहा जाए कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, तो मेरे हिसाब से गलत नहीं होगा। इसको विभिन्न रूपों में महिलावादी संगठन खुद परिभाषित करके देखें तो स्थिति स्वतः साफ होती दिखाई देने लगेगी? यदि चाहे तो वह खुद ही विश्लेषण करें कि हवा का रूख कहां से परिवर्तित हुआ? तो महिलावादी संगठनों और महिलाओं के लिए ज्यादा बेहतर होगा। किसी के विपक्ष में अंगुली उठाने से पहले उन्हें यह बात कदािप नहीं भूलनी चाहिए कि तीन अंगुलियां उनकी तरफ भी ठीक उसी समय उठ जाती हैं, जब वो किसी की तरफ अंगुली उठते हैं।

वस्तु, बाजार, देह, अश्लीलता, प्यार के नाम पर शारीरिक संबंध क्या इनकों बढ़ावा सिर्फ और सिर्फ पुरुष दे रहे हैं? क्या इनमें महिलाओं की कोई भूमिका नहीं? क्या महिलावादी संगठन स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं को बाजार की वस्तु बनने के लिए प्रेरित करते हुए नजर नहीं आते। आंख मूद कर गरियाना हो तो किसी को भी, किसी भी वक्त गरियाया जा सकता है। फिर चाहे वो पुरुष समाज क्यों न हो। लोग तो पीठ पीछे भगवान को भी नहीं छोड़ते, फिर तो यह पुरुष ठहरे। एक ने कहा ऐसा; तो भीड़ की जमात में सब शामिल हो जाते हैं। तर्क-विर्तक करने की क्षमता तो रही नहीं, बस कूर्तक करते रहते हैं। करिए कूर्तक ही सही, आप स्वतंत्र हैं? क्योंकि आधी आबादी आपकी भी है, परंतु अच्छे-बुरे को ध्यान में रखकर। क्योंकि आप जैसा बोएंगे वैसा ही आने वाली पीढ़ी को दे सकते हैं। कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी आपको मुंह चिढ़ाती हुई नजर आए और आप सिर्फ ढोल पीटते रहे जाए.......

Sunday, October 20, 2013

भय और आस्था की हकीकत

भय और आस्था की हकीकत
मैं, एक ऐसे गंभीर विषय को छेड़ने जा रहा हूं, जो सभी के दिलों दिमाग में कहीं न कहीं किसी रूप में सरोकार जरूर रखता है। जिसको हम स्वतः भय और आस्था का नाम दे सकते हैं। धर्म का मानव जीवन में प्रवेश कब हुआ यह ज्ञात करना काफी मुश्किल है। हमारे पास तत्कालीन साहित्यों की जो उपलब्धता है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रारंभ में मानव अकेला था। आगे जाकर मानव ने समुदाय व समाज का निर्माण किया। मानव के द्वारा यह निर्माण मानव जाति के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए था। हम इस तथ्य को अस्वीकार नहीं कर सकते कि समाज के बिना मानव का अस्तित्व नहीं है। कालांतर में समाज के अंदर कुछ विलगाव आने लगे तब समाज शास्त्रियों ने समाज को एकता के बंधन में पिराने के लिए धर्म का निर्माण किया। यह धर्म कुछ नया नहीं था बल्कि समाज में पहले से चली आ रही संस्कृतियों व क्रियाकलापों, कर्मकांड़ों का समुच्य ही था। जिसे एक धर्म का नाम दे दिया गया। यह धर्म आगे चलकर एकता की नई परिभाषा गढ़ने लगा। एकता की नई परिभाषा गढ़ने वाला यह धर्म आस्था और भय दोनों पर आधारित था। हालांकि भय और आस्था का पुलिंदा सदियों से हमारे पूर्वज अपनी विरासत के तौर में हमें पीढ़ी दर पीढ़ी देते आए हैं। जिसका हस्तांतरण आज भी पीढ़ियों और सभ्यता के खत्म होने पर भी लगातार जारी है। हम इसे इस प्रकार से भी कह सकते हैं कि आज के तकनीकी युग में यह हम सब पर भारी है। अब इसे मजबूरी कहें या श्रृद्धा, यह लोगों के दिलों-दिमाग पर हावी भय और आस्था का स्वरूप ही इसका उचित निर्धारण कर सकता है।
हालांकि विवादास्पद विषय पर कुछ विचार और कुछ आलोचनाएं व्यक्त करने पर बहुत से साथी मित्रों को आपत्ति अवश्य हो सकती है और बहुत-से मित्र मेरी इस आलोचनाओं से सहमत भी हो सकते हंै। असहमति तो जायज ही है बनेगी ही? क्योंकि विषय और मुद्दा दोनों हमेशा से विवादों के कटघरे में खड़ा रहा है। कितना भी हमने प्रयास किया हो, छट-पटाने के सिवाए और कोई रास्ता आज तक किसी को नजर नहीं आया। न ही आने वालों कुछ दशकों में आ सकता है। यह एक ऐसी भूलभुलैया है जिसमें मनुष्य पैदा होते ही घुस जाता है और अपनी ताउम्र इसी के मूल द्वारा (बाहर निकलने का रास्ता) को खोजते-खोजते खत्म भी हो जाता है। वैसे बहुत से लोग इसके विपक्ष में भी हमेशा से खड़े मिलते रहे हैं जिन्हें अभिमन्यु कहना उचित होगा। यानि मात्र छह द्वारों को भेदने वाला। सातों द्वार को भेदकर इस भूलभुलैया से कोई भी अपने आपको मुक्त नहीं कर पाया है। इसे हम हाथी की काया को उन चार अंधों से भी व्यक्त कर सकते हैं। जिससे जो महसूस किया उसने उसी प्रकार उसको परिभाषित कर दिया। वही आलम भय और भगवान का भी रहा है! जिसने जैसा कहा आंख मूदकर मान लिया, जिसने जैसी आकृति गठित की, पूज्यनीय होती चली गई। जो वर्तमान दौर में लगातार जारी है। नए-नए भगवानों का जन्म हो रहा है, तरह-तरह के पाखंडों को पैदा किया जा रहा है। सिर्फ इसलिए की भय के भगवान का अस्तित्व बरकरार रह सके और पंडितों की मंसा भी, जनता को लूटने की।
यदि बचपन के दिनों को याद करें, तो हमारे दादा-दादी, नाना-नानी आदि ने भी हमें किस्से कहानियों के माध्यम से भगवान और भूतों के कई बार दर्शन करवाए हैं, और तो और हमारे शिक्षकगणों ने भी शिक्षा के ज्ञान स्वरूप इसका वर्णन भी बखूबी किया है कि भगवान में आस्था रखोंगे तो तुम अवश्य सफल होगे? वो तुम्हारी मुरादें जरूरी पूरी करेंगे? परंतु उन्होंने कभी गीता के उपदेशों पर जोर देते हुए यह कदापि नहीं कहा, कि कर्म करों, फल की अभिलाषा न करो। क्योंकि जैसा कर्म करोंगे ठीक वैसा ही फल आपको निश्चित ही मिलेगा। वहीं हमारी मांएं भी इस कार्य में कहा पीछे रहती हैं, वो भी हमारी शरारतों से तंग आकर यही कहती हैं कि बेटा यहां-वहां मत जाना, नहीं तो बाबा पकड़ लेगा, वहां भूत रहता है पकड़ कर खा जाएगा। और हमारे दिलों-दिमाग में वो सारी बातें अपना एक बड़ा सा घर धीरे-धीरे बना लेती हैं। यानि भय और आस्था का घर।
चूंकि भय को भगाना है तो आपको आस्था का सहारा लेना ही पड़ेगा। आस्था यानि भगवान? अब भगवानों की फेहरिस्त तो बहुत ही लंबी है, एक हो तो भी चलाया जा सकता है। अगर मनुष्यों और भगवानों की संख्या का आंकलन करके देखा जाए तो लगभग 3 मनुष्यों पर एक भगवान अवश्य ही बैठेंगे। वैसे पूरे विश्व में मौजूदा भगवानों को छोड़कर (क्योंकि आधे से ज्यादा ईसाई धर्म को मानने वाले, एक चैथाई पैगंबर को मानने वाले, एक चैथाई से कम बौद्ध व जैन को मानने वाले ) सिर्फ भारत देश के पूज्यनीय छोटे-बड़े भगवानों के नाम यहां लिखना चाहू तो न जाने कितना समय लग जाए और पूरे नाम भी न लिख सकूं। क्योंकि हम लोगों को देश में मौजूद सभी भगवानों के नाम याद कहा। हमें तो बस जो भगवान जितना ज्यादा चर्चित हैं उन्हीं एक दो...........दस, बारह भगवानों के नाम ही याद हैं बाकि सब गायब। इसको हम इस तरह भी कह सकते हैं कि जिस भगवान के भक्तों की संख्या जितनी अधिक है उस भगवान का नाम उतनी ही लोकप्रिय है। अब किसी की क्या मजाल जो भगवानों पर टिप्पणियां कर सके। करेंगे तो खून-खराबा होना लाजमी है, इसके बीच-बचाव में भगवान भी स्वयं कभी नहीं पड़ते। वो तो बस लीलाएं करते रहते हैं। वैसे पूर्वजों व गुरूजनों की बात मानी जाए कि भगवान तो कण-कण में विराजमान हैं। इस बात को पूर्णतः खारिज तो नहीं किया जा सकता, हां यह बात जरूर है कि कण-कण में न सही, मंदिरों, गली-मोहल्लों, घरों से लेकर फुटपाथों पर तो विराजमान हंै ही। वो भी बड़ी सुलभता के साथ। कहीं पूजा ने के लिए तो कहीं बिकने के लिए। रुपया दो रुपया से लाखों तक में बिक जाते हैं यह भगवान। बाजारवाद है इंसान बिक सकता है तो फिर भगवान तो भगवान है।
प्राचीन काल से लेकर अब तक हर युग अर्थ प्रधान रहा है। हमारे धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या अगर धार्मिक आधार पर करें तो उपयुक्त तथ्य थोड़ कमजोर नजर आते हैं। लेकिन अगर व्यवाहारिक नजरिया अपनाते हुए गं्रथों का आर्थिक विश्लेषण करें तो यह सब कुछ अर्थ व्यवस्था द्वारा निर्मित नजर आता है। और इसके निर्माता व्यापारी वर्ग। पुरोहित वर्ग ने भी धर्म का भय दिखाकर जनता को लूटा तो इसका मूल कारण भी आर्थिक ही था। धर्म की आस्था व भय दोनों के माध्यम से व्यापारी वर्ग ने एक सतत व्यापार की राह बना डाली है। दक्षिण के एक सम्राज्य (चोल सम्राज्य) की अर्थ व्यवस्था में मंदिरों से प्राप्त धन का काफी योग्यदान था। वर्तमान समय में धर्म का राजनीतिकरण कुछ इस प्रकार हो चुका है कि व्यापारी वर्ग मंदिर से आर्थिक लाभ तो लेते हैं लेकिन सरकार उसे मंदिर विकास के लिए आर्थिक हिस्सेदारी देने के लिए बाध्य नहीं कर सकती। हमारे पास सारे लिखित प्रमाण मौजूद है कि मंदिरों में अकूत धन संपदा मौजूद है लेकिन आम जन की आस्था के कारण लोकतांत्रिक सरकार इस धन संपदा का इस्तेमाल देश के विकास में नहीं कर पाती। आम आदमियों में धर्म की परिभाषा व कार्य का विवरण पुरोहित वर्ग द्वारा इस प्रकार दिया गया है कि आम जनता भगवान के प्रति आस्था व सामाजिक दायित्व को एक पटरी पे देख नहीं पाती। भगवान के स्वरूप विश्लेषण के क्रम में आम आदमी हमेशा यह तर्क देकर बचना चाहता है कि जहां आस्था है वहां तर्क उचित नहीं है। तर्क नहीं करना वर्तमान समय में विकास की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। जब तक आम आदमी तर्क के माध्यम से चीजों को स्वीकार या अस्वीकार करना प्रारंभ नहीं करेगा तब तक धर्म और भय का बाजार यूं ही गरमाता रहेगा। किसी शायर ने इस बात पर क्या खूब कहा है कि सांझ हुई सजने लगे कोठों के बाजार, ग्राहक मन का न मिला बदन लूटा सौ बार.............।
हालांकि भगवान के संदर्भ में अधिकांश लोग यह भी कहते हैं कि भगवान सब कुछ देखता है, अच्छा और बुरा दोनों ही। मेरे हिसाब से तो भगवान अच्छा बुरा कुछ भी नहीं देखता। यह बातें तो बस किस्से-कहानियों में ही ज्यादा अच्छी लगती हैं कि ऐसा बुरा होने लगा तो भगवान ने फलां-फलां अवतार लेकर ऐसा होने से बचाया। अरे भई पहले कि अपेक्षा आज के दौर को देखों, कितना कुछ घटित हो रहा है- लूट, हत्या, अबोध बच्चियों से लेकर वृद्धाओं से बलात्कार, चोरी, डकैती, शोषण और तो और भूकंप, सुनामी, तूफान आदि फिर भी भगवान चुप्पी साधे क्यों बैठे रहते हैं? कुछ करते क्यों नहीं? क्या अब इनकों दिखना बंद हो गया है या फिर गांधारी की तरह इन्होंने भी अपनी आंखों पर पट्टी और कानों में रूई लगा रखी है। ताकि लोगों के दुख-दर्द को न तो देख सकें न ही उनकी चीख-पुकार इनके कानों तक पहुंच सके। मुझे तो अब ऐसा प्रतीत होने लगा है कि भगवान अब इंसानों से त्रस्त आ चुके हैं या फिर वह मनुष्यों का इस देश से सफाया करना चाहते हैं या जो भय उनके प्रति आस्था का रूप लेकर सदियों से चला आ रहा था। उसमें कमी के चलते यानि भय को कायम रखने के बावत वो इंसानों को अपने पास बुला-बुलाकर मार रहें हैं। ताकि उनका वर्चस्व कायम रह सके। भय कायम रहेगा तो उनके प्रति आस्था भी बरकरार रहेंगी। इसके अलावा मुझे एक बात और हमेशा से खटकती है कि यह सब जो घटित हो रहा है इसके पीछे कहीं इन करोड़ों देवताओं का हाथ तो नहीं, जो आपसी रंजिश के चलते और अपने-अपने बहुमत और भय को अपने प्रति कायम करने के बावत इंसानों को इंसानों से लड़ाने का काम कर रहे हो, जैसा अंग्रेजों न किया अब हमारे नेता कर रहे हैं।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भय और आस्था ने बाजार की ओर अपना रूख कर लिया है। जहां आस्था और भय को बकायदा बेचा जा रहा है। और लोग उल्लूओं के माफत उसको खरीद भी रहे हैं। क्योंकि भय जो सदियों दिलों-दिमाग पर चस्पा है उसको खत्म करने के लिए आस्था को माध्यम बनाने के अलावा और कोई रास्ता हमारे पूर्वजों ने हमें कभी नहीं दिखाया। या फिर दिखाने नहीं दिया। जो भी कहा जाए, कम है। कम इसलिए भी है क्योंकि भय और आस्था का जो पुलिंदा हम ढो रहे है उसकी सच्चाई जानने की कभी किसी जरूरत महसूस ही नहीं की, कि वास्तव में हकीकत क्या है। वास्तव में भगवान का अस्तित्व था कभी। या यह सिर्फ पुजारियों की एक चाल मात्र थी ताकि वो आम जनता को इसका भय दिखाकर अपना उल्लू सीधा कर सकें। क्योंकि जब राजा का अत्याचार उसकी प्रजा के प्रति ज्यादा होने लगता था तो यही प्रजा को यह कह कर शांत करवा देते थे कि जब इस राजा के पापों का घड़ा भर जाएगा, तब भगवान फलां-फलां युग में अवतार लेकर तुम लोगों को इस राजा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त्र करेंगे। इसी कारण लोगों की आस्था इन पुजारियों के प्रति बरकरार रह सकी। तब जाकर यह पुजारी भय और आस्था के नाम पर जनता को हमेशा से लूटते रहे। जैसा होता आया है और हो भी रहा है।
हालांकि अब तो पुजारियों के साथ-साथ आस्था के नाम पर ना जाने कितने बाबा भी प्रकट हो गए है जो अपने आपको भगवान से कम नहीं मानते। चाहे वो श्रीश्री, साईं, निर्मल, आशा, श्रीदेवी या कोई सरकार क्यों न हो। पूजे जा रहे हैं आस्था के नाम पर। लोग एक भीड़ की जमात में दिन प्रतिदिन जमा होते जा रहे हैं। क्योंकि इंसानों को पैदा होने के साथ ही कुछ न कुछ दुख-तकलीफ सदैव उसके साथ बनी रहती हैं। एक जाता है तो दूसरा आता है। आना-जाना लगा ही रहता है। खुशी में तो ठीक, परंतु जहां दुख आया तो वह सिर्फ और सिर्फ भगवान को याद करता है, बाबाओं को याद करता है, तांत्रिकों को याद करता है। अपने दुख-दर्द के निवारण के लिए। वह जैसा कहते हैं वैसा ही करता है। पर वो यह क्यों भूल जाता है कि दुखों का निवारण स्वयं उसे ही करना है? समस्या अगर आ खड़ी हुई है तो उसको वह खुद ही दूर कर सकता है? पर वह यह सब नहीं करता, या नहीं करना चाहता। उसे तो बस पका-पकाया खाने की आदत पड़ चुकी है। वैसे बाबाओं के चर्चें तो आप सब लोग सुन ही रहे होंगे कि यह बाबा आस्था की आड़ में लोगों के साथ क्या-क्या करते रहते है फिर भी कोई नहीं चेतता। जाते वहीं है कीचड़ में लोटने के लिए।
मैंने इस बात से कभी इंकार नहीं करता कि किस के प्रति श्रृद्धा नहीं होनी चाहिए, होनी चाहिए पर आंख मूंदकर श्रृद्धा। यह कितना उचित है। अगर वास्तव में भगवान का अस्तित्व है तो सामने क्यों नहीं आते? क्यों कुंभकर्ण की भांति सोए जा रहे हैं। वैसे भी 2014 में लोकसभा के चुनाव आने वाले हैं। कूद पड़े इस चुनावी जंग में। और मिटा दे इस देश से सारी समस्याओं को। अवतार ले, अवतार लेने की शक्ति तो है ही आपके पास? या फिर आपके अस्तित्व को पंड़ितों ने रचा है। इसका मूल कारण जानना चाहे तो भूतकाल के गर्भ में मौजूद है कि पहले भगवान का कोई अस्तित्व नहीं था। सिर्फ अग्नि, वायु, पानी, धरती आदि को ही मनुष्य अपना भगवान मानता था। जिसके पुख्ता प्रमाण मौजूद हैं। धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ-साथ न जाने यह भगवान कहा से प्रकट हो गए, इसके पुख्ता प्रणाम हमेशा से ही संदेह के कटघरे में कैद रहे हैं।
मेरे दृष्टिकोणों के अनुसार भय और भगवान दोनों की मनुष्यों की उपज का नतीजा है। अर्थ व्यवस्था के दृष्टिकोण से हम विश्लेषण करें तो हम निश्चित एक सत्य की ओर बढ़ेंगे। वह सत्य है पुरोहित वर्ग के अस्तित्व की रक्षा। अगर धर्म में आस्था व धर्म का भय आम आदमी में न होता तो पुरोहित वर्ग प्राचीन काल में ही काल के गर्त में समा चुका होता। हमारे समाज का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि पुरोहित वर्ग कभी भी उत्पादन में भाग नहीं लेता, जबकि हर उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी अवैध तरीके से अवश्य होती है। अपनी अवैध हिस्सेदारी को वैधता पुरोहित भगवान का भय दिखाकर प्राप्त करते हैं। दरअसल पुरोहित वर्ग ने एक साजिश की तहत आम आदमियों को धर्म के मूल विचारों से दूर रखा। आम आदमियों को इस प्रकार शारीरिक कामों में उलझा दिया गया कि उनके पास चिंतन का समय ही नहीं बच पाता। पुरोहित वर्ग को चिंतन की जिम्मेदार सौंपी गई। पुरोहित वर्ग ने इस जिम्मेदारी को ईमानदारीपूर्वक नहीं निभाया। जबकि आम आदमी अपनी जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाता रहा। जब आम आदमी जागरूक हुआ और धर्म के बारे में तर्क के आधार पर जानकारी हासिल करने की कोशिश की तब धर्म के तथाकथित ठेकदार पुरोहित वर्ग ने क्षत्रिय वर्ग व व्यापारी वर्ग को अपने साथ मिलाकर कभी अर्थव्यवस्था की मार देकर तो कभी हथियार का भय दिखाकर आम आदमी को इस बात के लिए मजबूर किया कि वो धर्म की ठेकेदारी पुरोहित वर्ग के हाथ में रहने दे। कुल मिलाकर पुरोहित वर्ग ने धर्म का भय दिखाकर अपने अस्तित्व को बरकरार रखा। पुरोहित वर्ग के अस्तित्व के साथ धर्मिक भय ने क्षत्रियों को शासन की लंबी आयु दी तथा व्यापारी वर्ग को अर्थव्यवस्था का नया मार्ग दिया। दोनों ही मार्ग आम जनता का शोषण करती रही। हालांकि आजादी के बाद क्षत्रियों का शासन राजतांत्रिक नहीं रहा, फिर भी शासन स्वरूप के बदलने का धार्मिक आस्था व भय के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। और आम जनता का शोषण तीनों वर्ग लगातार कर रहे हैं।

वैसे अगर इन भय व आस्थ दोनों का अस्तित्व पूर्णतः खत्म कर दिया जाए तो जातिगत लड़ाईयां और धर्मवाद हमारे देश से खत्म हो सकता है। पर कहीं न कहीं हमारे देश के पंडित और नेता यह नहीं चाहते, क्योंकि इसी आधार बनाकर वो जनता को अपने सामने झुकने पर मजबूर करते है और यह नेता हर पांच साल में चुनाव के मैदान में जोर आजमाईस करते हैं। इसकी मूल वजह यह कि हमारे देश में इन भगवानों को मानने वालों की तदाद सबसे अधिक है। वैसे भगवान और भय को खत्म कर दिया जाए और सिर्फ इंसानियत को पूजा जाए तो देश जरूर प्रगति के मार्ग पर अग्रसरित हो सकता है। नहीं तो जैसा चल रहा है उसकी स्थिति कुछ समय के उपरांत और विकट होने वाली है यानि भय और आस्था के नाम पर देश का विनाश।

Monday, October 14, 2013

क्यों जलाते हो रावण को .......

क्यों जलाते हो रावण को ..............

रावण एक अति बुद्धिमान ब्राह्मण के साथ-साथ महा तेजस्वी, प्रतापी, पराक्रमी, रूपवान तथा विद्वान था। इन सब के बावजूद वह एक दलित व शुद्र भी था। जिसने अपना होश संभलते ही देखा कि बाहुबली लोग (देवतागण) सदियों से हमारे समुदाय के लोगों पर अत्याचार व अधिकारों को दोहन करते आ रहे हैं। ताकि यह हमेशा निम्न ही बने रहें, कभी उभर न पाएं। इन निम्नता को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए रावण ने इन बाहुबलियों से न जाने कितनी बार युद्ध किया। तब जाकर रावण के समुदाय को एक पहचान मिल सकी। क्योंकि इन बाहुबलियों ने साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति के चलते हमेशा इनके अधिकारों दमन किया ताकि यह सर न उठा सके। परंतु यह कब तक मुनासिब था। कोई तो इस अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करता। रावण ने भी वो ही किया जो एक बुद्धिमान और पराक्रमी योद्धा को करना चाहिए था, अपने अधिकारों के लिए युद्ध।
रावण का अपने समुदाय, जाति के अधिकारों को पाने के लिए युद्ध करना इन बाहुबलियों को कभी गवारा न हुआ। तभी तो समय-समय पर बाहुबली अपनी निछता दिखाते रहे, जिसका जबाव रावण ने बखूबी दिया। अपनी-अपनी हार को बर्दास्त न कर पाने के चलते यह सभी बाहुबली एक हो गए। ताकि रावण का खात्मा किया जाए। परंतु सब विफल ही रहे।
जैसा कि सभी को ज्ञात है कि रावण की बहन का शूपणखां था। शूपणखां एक अति सुंदर और गुणवान युवती थी। जिसका रंगरूप देखकर कोई भी मोहित हो सकता था। एक बार वह अपनी सेहलियों के साथ वन विहार करने निकली। तभी वनवास काट रहे राजा दशराथ के दोनों पुत्र राम-लक्ष्मण की दृष्टि शूपणखां पर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही दोनों मोहित हो गए। तभी इन्होंने शूपणखां से छेड़खानी करना तथा अभद्रतापूर्ण व्यवहार करना आरंभ कर दिया। अपनी अस्मत को बचाने के लिए उसने पुरजोर कोशिश की। अपनी इच्छापूर्ति न देखने हुए लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिए। ताकि वो किसी को भी अपना मुंह न दिखा सके और न ही यह बता सके कि उसके साथ ऐसा कुछ हुआ है। अब आप ही बताएं कि किसी की बहन के नाक-कान काटकर कुरूप बना देने पर कौन-सा भाई चुप बैठ सकता है। रावण भी चुप नहीं बैठा, उसने प्रतिज्ञा ली कि जैसा राम-लक्ष्मण ने मेरी बहन के साथ किया है मैं भी ठीक वैसा ही करूंगा। बाद में उसे ज्ञात हुआ कि राम-लक्ष्मण के कोई बहन नहीं है। और वो दोनों अपनी कारगुजारियों को अंजाम देने के बाद अपनी पत्नी सीता जो उनके साथ वनवास में थी उसको अकेला छोड़कर वहां से भाग निकले। तब रावण ने राम की पत्नी सीता को केंद्र में किया और उसका अपहरण कर लिया। ताकि राम अपनी पत्नी को छुड़ाने के लिए जरूर आएगा तभी उससे और उसके भाई से अपनी बहन का बदला लूंगा।
परंतु इन दोनों ने जंगल से भाग कर सभी बाहुबली को झूठा संदेश दिया कि रावण अब बहू-बेटियों को अपना शिकार बनाने लगा है। जब सभी बाहुबलियों ने राम और लक्ष्मण का साथ देना उचित समझा, जिससे उनकी बहू-बेटियों सुरक्षित रह सके। वहीं रावण सीता का अपहरण करके उसे अपने महल में बनी एक अशोक बाटिका ले जाकर बंद कर दिया। जहां वह कुछ सालों तक रही। राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा था कि हे सीते! तुम्हारा पति तुमको छोड़कर भाग गया है अगर चाहों तो तुम मेरी पत्नी बन सकती हो और यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे कभी स्पर्श नहीं करूंगा। अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण ने मर्यादा का ही आचरण किया है। वह चाहता तो सीता के साथ जोर-जबर्दस्ती भी कर सकता था। परंतु उसने ऐसा कदापि नहीं किया क्योंकि उसमें शिष्टाचार व ऊंचे आदर्श वाली मर्यादाएं मौजूद थीं और वह नारी का मान-सम्मान करना जानता था। वह इन बाहुबलियों के जैसा नहीं था (इंद्र जैसा )जो दूसरों की बहू-बेटियों के साथ बलात्कार करते रहते थे और उनको किसी प्रकार की कोई सजा नहीं मिलती थी। अगर इंद्र की बात करें तो एक अय्याश, दारूबाज, जिसके यहां लड़कियों का नंगा नाच होता था और जहां सभी बाहुबली अपनी-अपनी कामवासना की पूर्ति करते रहते थे। अगर इंद्र को दल्ला कहा जाए तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। जो अपनी गद्दी को बचाने के चक्कर में हमेशा ही इन बाहुबलियों का आवभगत में जुटा रहता था। जिसकी गद्दी को रावण के पुत्र मेघनाथ ने युद्ध में जीत लिया था। जिसको पाने लिए उसने भी अपने सारे लोग राम-लक्ष्मण के पक्ष में खड़े कर दिए।
चूंकि लंका जहां सीता को हरण कर रावण ने रखा था वो भारत से बहुत दूरी पर था। जहां तक पहुंचना नमुमकिन ही था। परंतु इन लोगों ने रात-दिन एक करके समुद्र पर सेतु का निर्माण किया ताकि लंका तक पहुंचा जा सके। कई महीनों के बाद सेतु बनकर तैयार हो सका। तब सब लोगों ने राम-लक्ष्मण के साथ लंका पर चढ़ाई कर दी। जब रावण को इसकी सूचना मिली कि एक विशाल बाहुबलियों की सेना ने लंका पर चढ़ाई कर दी तो वह जरा भी नहीं डिगा और उसने युद्ध करना ठीक समझा। परंतु रावण के छोटे भाई जो विशाल सेना को देखकर भयभीत हो चुका था उसने राम से हाथ मिलना ही मुनासिब समझा। और वह राम से जा मिला। राम से मिलने के बाद उसने राम से एक शर्त रखी की जीतने के उपरांत आप मुझे ही इस लंका का अधिपत्य सौंपेंगे। तब मैं आपको रावण की सारी कमजोरियों को बताउंगा, जिससे आप उसको मार सकते हैं। राम को विभीषण की बात मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था तो उसने हामी भर दी। फिर विभीषण बताता गया और राम और उसकी सेना उन कमजोरियों पर हमला करती गई। एक के बाद एक विभीषण ने रावण के सारे पुत्रों को मरवा दिया और साथ में अपने भाई कुंभकर्ण को भी। अब रावण अकेला बचा तो उसने स्वयं ही रणभूमि में जाने का निणर्य किया परंतु अपने हथियार नहीं डाले। और राम से युद्ध करते-करते वो मार गया। यानि एक और प्रतापी शुद्र का इन दबंग लोगों ने दमन कर दिया।
रावण के मरने के उपरांत जैसा कि राम और विभीषण में तय हुआ था वैसा ही हुआ। राम ने विभीषण का राज्याभिषेक करके उसके लंका सिंहासन सौंप दिया। सिंहासन सौंपने के बाद उसने अपनी पत्नी को भी अशोक बाटिका से मुक्त कराया। अब उसके मन में यही भाव चलते रहे क्या मेरी पत्नी सीता अब भी पतिव्रता ही है तो अपनी शंका का दूर करने के लिए उसने उसको अग्नि पर चलवाया। अग्नि पर चलवाने के बाद वह सीता को लेकर वापस अपने राज्य आ गया। जहां कुछ लोगों की टीका-टिप्पणी के चलते उसने अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल दिया। जैसा सदियों से यह बाहुबली करते आ रहे थे।
इस लेख को लिखने के बाद कुछ सवालात मेरे जहन में अभी भी बरकरार हैं अगर आपके पास इन प्रश्नों को जबाव हो तो मुझे देने की कृपा करें-
1.क्या अपने अधिकारों के प्रति लड़ना गलत है?
2.किसी की बहन के साथ कुछ गलत होगा तो क्या भाई चुप बैठ सकता है?
3.इंद्र बलात्कार करके साफ बच निकलता है फिर भी उसे क्यों पूजा जाता है?
4.क्या विभीषण को अपनी जान व सिंहासन को मोह नहीं था? अगर नहीं तो उसने अपने भाई रावण का साथ न देकर राम का साथ क्यों दिया?
5.राम ने सीता की अग्नि परीक्षा क्यों ली?
6.राम ने सीता को घर से क्यों निकाला?
7.क्या आज जो विजय दशमी मनाई जाती है यह दलित पर बाहुबली की जीत के लिए तो नहीं मनाई जाती?
8.क्या नारी का अपमान करने वाला भगवान हो सकता है?

ऐसे बहुत सारे प्रश्न मेरे मन में हमेशा से उठते रहे हैं और उठते रहेंगे? क्योंकि रावण, रावण ही था और रावण ही रहेगा! जिसके पुतलों को जलाना नहीं बल्कि उनकी पूजा करनी चाहिए.................