सरोकार की मीडिया

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Friday, September 28, 2012

मुनि श्री बताएः उनके किस धर्म लिखा है, दूसरे धर्म के पूज्यनीय देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टीका-टिप्पणी करना

 मुनि श्री बताएः उनके किस धर्म लिखा है, दूसरे धर्म के पूज्यनीय देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टीका-टिप्पणी करना




           
सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में यूं तो सभी धर्मों के लोग आपसी भाई-चारा और प्रेम सौहार्द के अटूट बंधन में कुछ इस तरह बंधे हैं कि एक-दूसरे की छोटी-बड़ी शिकायतें आपस में कह सुनकर ही नज़रअंदाज कर देते हैं। किसी भी धर्म के अनुयायी को दूसरे धर्म की आलोचना करने में झिझक ही नहीं गिलानी भी महसूस होती है क्योंकि उसे श्रृद्धा से मानने वाले हमारे ही बीच रहते हैं और हम सब भाई बंधु के रिश्ते में बंधे हैं। परंतु हमारे बीच जब कभी कोई बड़ी वजह धर्म को लेकर प्रहार करने लगे तो निश्चय ही हम धर्म गुरूओं की शरण लेते आए हैं। यही तरीका भी है लेकिन जब कोई धर्म गुरू महात्मा ही आघात का कारण बन जाए तो कहां जाएं, किससे कहें, या घुटते रहे और बस घुटते रहें।
जी हां मैं तुच्छ प्राणी उन महान् मुनियों को आरोपित करने पर मजबूर हुआ हूं जो मेरी भी अटूट श्रृद्धा के पात्र हैं मगर एक मात्र वजह उनका नगर में वेपर्दा भम्रण व इस तरह उनके अनुयायियों द्वारा हिुदू धर्म के देवी-देवताओं पर टीका-टिप्पणी करना मुझे सामाजिक दृष्टि से उचित नहीं लगता, किससे कहूं? कौन है? जो समझायेगा इसे उचित समझने की तरकीब! क्योंकि इस तरह का वाक्या घटित होने के उपरांत मैं भी उन पर और उन जैसे मुनि श्री के कृत्यों पर हस्तक्षेप करने जा रहा हूं। क्योंकि मेरा ध्यान जाता है केवल मुनि श्री के चरणों में केवल वहीं मेरा मार्ग दर्शन कर सकते हैं मगर मेरा संपूर्ण मनोविज्ञान मेरे प्रश्न को इतना गलत ठहराता है कि सीधा कहने की हिम्मत जुटा पाना शायद मेरे वश में नहीं। यही कारण है जो इसे इस तरह समाज के समक्ष व्यक्त कर रहा हूं। ऐसा नहीं है कि यह जिज्ञासा केवल मेरी ही है जनपद का शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसने इस विषय पर आज तक तर्क-वितर्क न किए हो। प्रतिदिन भ्रमण काल में स्वयं मुनि श्री ने भी इस जिज्ञासा को घूरती, शर्माती, या झुकती निगाहों में पढ़ा होगा। ऐसा मेरा अनुमान है अपनी जिज्ञासा को व्यक्त करने में कुतर्क करने की भूल कर सकता हूं। जिसे क्षमा करने की कृपा करें। मेरी जिज्ञासा सभी धर्म के अनुयायियों के समक्ष प्रस्तुत है।      
मुनि स्वरूप यदि जैसा है आवश्यक है तो क्या उनका नगर भ्रमण न होकर मंदिर परिधि में सीमित नहीं रह सकता। क्योंकि नगर में सभी धर्मों के मानने वाले रहते हैं जबकि मंदिर में तो केवल एक धर्म के ही अनुयायी उस समय होगें अथवा वह लोग होगें जो दर्शन लाभ लेना चाहेंगे। ऐसा सुना है कि उक्त स्वरूप के पूर्व मुनि श्री एक वस्त्र धारण की अवस्था में रहते थे। क्या सर्व समाज के हित में कुछ समय के लिए (केवल भ्रमण काल के वक़्त) पूर्व अवस्था में आना त्याग की परिभाषा में स्वीकार हो सकता है।      
उक्त निवेदनों के सापेक्ष मेरे तर्क जो शायद कुतर्क हो। यह है कि आज त्याग की पराकष्ठा पार कर चुके मुनि श्री या वर्ग विशेष के मेरे बंधु-बंधवों का ध्यान क्या इस ओर गया है कि जब सब कुछ त्याग दिया फिर उदर पूर्ति में नगर की भीतरी सीमा ही आवश्यक क्यों? या कीमती भवनों में प्रवेश वर्जित क्यों नहीं ? यदि इस का जबाव यह है कि उपरोक्त सब कुछ श्रृद्धालुओं की अनुनय विनय के कारण होता है न कि मुनि श्री की इच्छानुसार, तो क्या यह विनय श्रृद्धालुओं की सीमित स्वार्थी सोच का दर्शन नहीं कराती। और क्या अनुनय विनय में एक विनय और शामिल नहीं हो सकतायदि ऐसा है तो न्याय धर्म गुरू ही कर सकते है। दूसरी बात में तर्क यह है कि यदि त्याग की पराकाष्ठा की ओर अग्रसित मुनि श्री नगर सीमा में समाज कल्याण या प्राणी मात्र के कल्याण की भावना से ही आते हैं तो क्या एक वस्त्र धारण उनकी भावना को आहत कर सकता है।     
मोह माया के संसार में श्वास तो सभी ले रहे हैं फिर चाहें वह साधारण मनुष्य हो, अथवा विलक्षण प्रतिभा के धनी और लोक-परलोक की जानकारी प्राप्त मुनि श्री जब मायावी संसार में विरक्त भी रह सकते हैं और संसारिकता उनकी विरक्ति को क्षति ग्रस्त नहीं कर पाती तब तन पर वस्त्र हैं अथवा नहीं क्या फर्क पड़ता है। कहीं यह मात्र आकर्षण में सहायक तो नहीं, ऐसा सुना है कि संसार में विपरीत का आकर्षण है जैसे चुम्बक के विपरीत दो सिरे ही परस्पर आकर्षित होते हैं सामान सिरों को यदि पास में लाया जाता है तो प्रति कर्षित ही होते हैं। इसी प्रकार संसार में विपरीत लिंग का आकर्षण है। इसी क्रम में कहीं कपड़े के व्यापारी और वस्त्र विहीन मुनि श्री का आकर्षण तो नहीं। वाणी की अति किसी तपस्वी को रूष्ट न कर दें इसलिए क्षमा चाहता हूं। मेरे तर्कों पर मनन और चिंतन से अन्ततः लाभ की ही संभावना है यदि मेरी बातें सत्यता के ओत-प्रोत हैं तो सर्व समाज की कुंठा शांत होगी। और यदि ऐसा नहीं तो सर्व समाज कि कुंठा का मुनि श्री अपनी ज्ञान ऊर्जा से समाधान करें ऐसी मेरी प्रार्थना है। 
यह तो सभी ने जाना और समझा है कि मुनि श्री किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं हैं अभी हाल में उन्होंने सभी समाज से कुछ अपीले कि थी जिसका सर्व समाज ने पूरे मन से आदर किया था कि गरीक कन्याओं की उच्च शिक्षा हेतु महाविद्यालय खोला जाएगा जहां पर गरीब तबके के लोग अपनी बालकाओं को कम फीस पर शिक्षा प्रदान करा सकेंगे साथ-ही-साथ बहुतों ने उन कल्याणकारी प्रस्तावों को आत्मसात भी किया, जिसमें एक समाज विशेष के लोग मांसाहार जो उनके लिए खाद्य श्रृंखला है का त्याग कर सकते है और इसे सिद्ध किया जा सकता है कि कई लोगों ने मात्र मुनि श्री से प्रभावित होकर उक्त मलक्ष्य का भक्षण तथा व्यापार दोनों बंद कर दियें। तो क्या सर्व समाज की एक प्रार्थना मुनि श्री स्वीकार नहीं करेगें। मेरा तर्क यह भी है कि पुरातन समय में जब तप के लिए आवादी से दूर घने जंगलों और पहाड़ों की शरण लेना पड़ती थी। तब वस्त्रों कि अनुपलब्धता वस्त्रों का त्याग करने पर तपस्वी का ध्यान केन्द्रित करती रही होगी। ऐसी हर वस्तु जिसे त्यागा जा सकता है का ही त्याग तपस्वियों ने किया है वर्तमान परिस्थितियों में नकल के आधार पर यदि उक्त को निभाया जा रहा है तो क्यों न इसे बदलने पर विचार किया जाएं। 
अग्रिम क्षमा मांगते हुए मेरा यह कुतर्क भी प्रस्तुत है कि यदि वस्त्र तपस्या में इतने ही बाधक है तो इसे मेल तपस्वियों ने ही क्यों त्यागा। इस पर भी गहन विचार मंथन की आवश्यकता है क्या तपस्वी महिलाएं वस्त्रों की सहायता के बिना साधना में नहीं रह सकती? अथवा लोकलाज की भावना वस्त्र पहनने पर मजबूर करती है या साधना में वस्त्रों का होना या न होना मायने नहीं रखता। हां यदि किसी आदि ग्रंथ में उक्त सब ऐसा ही लिखा हो जिसके बदलने में कठिनाई महसूस होती हो, तो उससे समाज को न सिर्फ परिचित कराना चाहिए बल्कि शेष समाज की दृष्टि को, मनोदशा को वर्ग विशेष की मनः स्थिति, दृष्टि के समतुल्य बनाने की आवश्यकता है। ताकि श्रृद्धा में आ रहा व्यवधान समाप्त हो सकें।      
जैसा मैंने शुरूआत में कहा भी है कि मुनि श्री मेरी अटूट श्रृद्धा के पात्र हैं उनके खिलाफ बोलना, लिखना मेरा स्वभाव नहीं मात्र जिज्ञासा है कुछ अनछुएं अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजना और सामाजिक आलोचनाओं पर विराम लगाना ही उद्देश्य है। इस एक विडंबना को छोड़कर शेष सारे नियम सिद्धांत परम आदणीय अनुकरणीय है, लाभप्रद है, वर्ग विशेष की निरंतर प्रगति इसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी है। अभी तक हमने वस्त्र विहीनता को आलोचित तो किया है मगर उसकी उस विवेचना से परिचित नहीं कराया जोकि जहां-तहां नुक्कड चैराहों पर देखी सुनी जाती है। मर्यादा में रहते हुए मैं थोड़ा-सा दर्शन कराना चाहूंगा ताकि मर्म को ठीक से पहचाना जा सकें। एक दृश्य प्रस्तुत करता हूं- कि विगत कुछ महीनों से ललितपुर जिले में स्थित क्षेत्रपाल जैन मंदिर में पधारे मुनि श्री सुधासागर जी अपने प्रवचनों व ज्ञान से सभी को कृतज्ञ कर रहें हैं। इसके साथ-साथ जिले में गरीब जनता हेतू स्कूल व महाविद्यालय खोले जाने का भी वचन दिया है। जो वक्त रहते बन ही जाएगा। यह सब बातें अपनी यथा स्थान पर पूर्णतः सही है। इसके बावजूद यह वाक्या कि हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक लेख प्रकाशित करवाकर बांटवाना क्या न्याय उचित है। शायद इस का जबाव पधारे मुनि श्री ही दे सकते हैं कि उनके किस धर्म की पुस्तक में लिखा है कि दूसरे धर्म में पूज्यनीय देवी-देवताओं पर इस तरह टीका-टिप्पणी करें। यह वास्तव में निंदनीय है। जिस कारण से सामाजिक सद्भाव की नगरी ललितपुर में आज-कल हिंसा का माहौल देखा जा रहा है। 
मैं पहले ही कह चुका हूं कि कहीं कोई शब्द किसी के हृदय को चोट पहुंचाए तो क्षमा प्रार्थी हूं। इसके बाद मैं जैन धर्म के मुनि श्री पर इसलिए प्रश्न चिह्न लगाना चाहता हूं क्योंकि उन्होंने अभी तक जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा हिंदू धर्म के देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक लेख की भर्षाणा नहीं की है। जिस कारण से हालात बद-से-बदत्तर होते जा रहे हैं।
इसी आपत्तिजनक लेख के चलते ललितपुर जिले में हिंदू संगठनों द्वारा बाहर से नागा बाबाओं का एक जत्था बुलाआ गया है। हिंदू धर्म को मानने वाले लोग अब पूर्णतः क्रोध की अग्नि में जलते दिखाई दे रहे हैं। अब सामाजिक सद्भाव की नगरी कहे जाने वाले ललितपुर और मुनि श्री के आगमन पर हुए पूरे वाक्या का कहीं-न-कहीं इन मुनि श्री पर ही प्रश्न चिहृ लगाता है। देखना होगा कि वक्त किस तरह मरहम का काम कर सकता है कहीं ऐसा न हो कि यह जातिगत-धर्मवाद, सांप्रदायिक हैजे का रूप एख्तियार न कर ले जिसकी चपेट में आकर आपसी भाई-बंधु एक-दूसरे के बैर न करने लगें और यह बैर सभी को नष्ट न कर दे।

Thursday, September 27, 2012

खैरात नहीं, रोजगार दो!


खैरात नहीं, रोजगार दो!

बेरोजगारी एक ऐसा अभिशाप है जिसका दंश एक उम्र के पड़ाव के बाद, आज के दौर में हर किसी को झेलना ही पड़ता है। किसी को कम, किसी को अधिक समय के लिए इस शाप से शापित रहना ही पड़ता है। वहीं व्यक्ति अपनी हैसियत के मुताबिक अपने-अपने बच्चों को अच्छी-से-अच्छी शिक्षा प्रदान कराने की पूर्ण कोशिश करने हैं, चाहे इसके लिए कर्जा ही क्यों न लेना पड़े। क्योंकि वह चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी तालीम ले और योग्यतानुसार रोजगार पाकर उनके व अपने सपनों को साकार कर सकें। परंतु होता ठीक इसके विपरीत है। मां-बाप अपना पेट काट-काटकर जैस-तैसे शिक्षा तो प्रदान करा देते हैं, इसके वाबजूद रोजगार के लिए उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती है। उदाहरणस्वरूप मुझे ही लिया जा सकता है कि उच्च शिक्षा (पीएच-डी.) ग्रहण करने के उपरांत भी रोजगार की दूर-दूर तक कोई आस नजर नहीं आ रही है। साक्षात्कार तो बहुत जगहों पर दिए, परंतु सिफारिश और पैसे न होने के कारण हर जगह से निराशा ही हाथ लगी। फिर भी कोशिश जारी है, जारी ही रहेगी। कब तक यह मुझसे दूर भागेगी, कभी-न-कभी इसको मेरे पहलू में आना ही पड़ेगा।
वैसे इस बेरोजगारों की दौड़ में मैं ही अकेला नहीं दौड़ राहा हूं, मेरे जैसे न जाने कितने, कोई आगे कोई पीछे दौड़ ही रहे हैं। और यह दौड़ अब कतार का रूप लेती जा रही है। इसका कारण बस यही है कि पहले से दौड़ रहे बेरोजगार अब भी बेरोजगार हैं और शिक्षा पाकर नए प्रतिभागी भी इस बेरोजगारी की दौड़ में शामिल हो जाते हैं।
शायद शिक्षा प्रणाली ही पूर्ण रूप से दोषी है कि वह सभी को शिक्षा मुहैया करवा देती है और रोजगार के नाम पर ठेगा दिखा देती है। हालांकि रिक्त पदों की बात की जाए तो संपूर्ण भारत में लाखों सरकारी विभागों में करोड़ों पद सालों से खाली पड़े हुए हैं। इनको न भरे जाने का मूल कारण जो मेरी समझ में आता है वह मात्र यह है कि या तो किसी के सगे-संबंधी का इंतजार हो रहा है या फिर जितना रूपया उच्च अधिकारी मांग रहे हैं उतना नहीं मिल पा रहा है। इसके अलावा और कोई कारण मेरी समझ से परे है। अगर प्रतिभागी की योग्यता की बात करें तो लाखों ऐसे बेरोजगार हैं जो योग्य होने के बावजूद बेरोजगार है। इनके बेरोजगार होने पर संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को कठघरे में खड़ा करने मन करता है कि क्यों ऐसी शिक्षा प्रदान की जा रही है जो रोजगार न दिला सके।
उसी पर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और अब मुख्यमंत्री अखलेश यादव द्वारा बेरोजगारों को बेराजेगारी भत्ता के रूप में 1000 रूपये प्रतिमाह दिए जा रहे हैं ताकि यह बेरोजगार, रोजगार के लिए सरकार के खिलाफ आवाज न उठा सके। इनका मुंह बंद कराने के तौर पर इनको रोजगार नहीं खैरात बांटी जा रही है। जिसका विरोध होना चाहिए, नहीं हुआ। कारण जो भी रहे हो।
अगर प्रतिमाह 1000 रूपये का विश्लेषण किया जाए और इस 1000 में 30 से भाग दिया जाए तो 33.33 प्रतिदिन आएगा। यानि एक बेरोजगार अपना व अपने परिवार का खर्च इस कमर तोड़ मंहगाई में 33रूपये 33पैसे में कैसे चला सकता है? यह तो सरकार ही बता सकती है। मेरे नजरिए से यह तो भीख के समान ही है। साथ-ही-साथ यह 1000 रूपये की खैरात इन बेरोजगारों की योग्यता और काबलियत पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न लगाती नजर आती है। और तो और जिस मेहनत व लगन से यह पहले रोजगार के पीछे हाथ धोकर लगते थे वह कुंठाग्रस्त हो चुके हैं कि चलो बिना किसी काम के घर बैठे ही 1000 रूपये तो मिल जा रहे हैं। परंतु ऐसा कब तक चलेगा।
सभी को एक जुट होकर इसका विरोध करना पड़ेगा और मुख्यमंत्री से कहना पड़ेगा कि खैरात नहीं, रोजगार चाहिए।

Friday, September 21, 2012

हकीकत से रूबरू हो मुख्यमंत्री महोदय


हकीकत से रूबरू हो मुख्यमंत्री महोदय
जैसा कि सभी को ज्ञात है कि आने वाली 28 तारीख को उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जी का ललितपुर जिले में आगमन होने जा रहा है। जनता के लिए बडे़ हर्ष की बात है कि पहली बार मुख्यमंत्री पद का पदभार ग्रहण करने के उपरांत ललितपुर जिले में पहली बार उनका आगमन हो रहा है। इसके बावजूद मैं और मेरी जैसी सोच रखने वाले लोग खुश नहीं है। इसके मूलभूत कारण बहुत से हैं, पहला तो यह कि यदि उनको आना था तो औचित्य ही आना था पहले से सूचना देकर आने का कोई सरोकार नहीं बनता है। क्योंकि जितने भी सरकार विभाग हैं वो अपनी-अपनी अनिमिताओं को छुपाने के लिए लीपा-पोती की तैयारी कर चुके हैं ताकि उन विभागों के उच्च अधिकारी मुख्यमंत्री के कोप का भाजन बनने से बच सके। दूसरा जो आज मैंने देखा जिससे मुख्यमंत्री जी शायद अनभिज्ञ ही रह जाए, क्योंकि वह तो हवाई यात्रा करते हैं, मलाईदार चिकनी सड़कों से होकर गुजरना होता है। वह क्या जान पाएंगे कि जिन सड़कों से होकर उनका काफिला गुजर रहा है वहां दो-तीन दिन पहले 6-7 इंच के बड़े-बड़े गड्ढे़ हुआ करते थे। जिनको मुख्यमंत्री जी के आगमन की सूचना मिलते ही रातों रात काम लगाकर, चिकना करवा दिया गया है। मुख्यमंत्री जी यह बताने का कष्ट करेंगे कि इसकी हकीकत क्या है, आप तो हवाई यात्राओं में मसगुल रहते है, सहना पड़ता है आम जनता को, जो बड़े-बड़े गड्ढ़ों पर अपनी जान हथेली पर रखकर चलते हैं क्योंकि क्या पता कौन-सा गड्ढ़ा उनकी मौत का कारण बन जाए। जिसकी तरफ लगभग एक-डेढ़ साल से किसी उच्च अधिकारी का ध्यान नहीं गया कि आने-जाने के लिए मार्गों को सही करवाया जाए। इसके पीछे भी बहुत से लोगों का हाथ है, जो सड़के पांच-छः साल अच्छी तरह चलती है वो ही सड़के एक बारिस के बाद पापड़ जैसी निकल आती है और अपने पीछे छोड़ जाती है बड़े-बडे़ गडढ़ों का मौतगाह।
यह सब भ्रष्टाचार और धंधली को उजागर करता है कि किस तरह जनता के पैसों को यह उच्च अधिकारी अपनी तिजौरी में भरने का काम करते हैं। रही बात जांच की तो कोई दूध का धुला नहीं है जो जांच के आदेश दे सके।
मेरा मुख्यमंत्री जी से यह अनुरोध है कि वह शहर की सड़कों और आस-पास मौजूदा साफ-सफाई के दिखावे पर मत जाए, और वास्तव में हकीकत को देखना हो तो सिद्धन रोड़, डेम रोड़, आजादपुरा रोड़, तालाबपुरा रोड़ और कैलगुवां रोड़ पर आकर स्वयं देखें तो हकीकत से खुद-ब-खुद रूबरू हो जाएंगे, कि आम जनता को क्या-क्या परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। अगर आप इनकी परेशानियों को नजरअंदाज करके और उच्च अधिकारियो द्वारा बरती जा रही अनिमित्ताओं पर बिना कोई कार्रवाही करके चले गय,े तो कहीं ऐसा न हो कि जिस तरह से पूर्व सरकार को एक सिरे से खारिज कर दिया गया कहीं आगामी चुनाव में आपके साथ भी वैसा न हो। इसलिए चेत जाए और स्वयं महसूस करें कि वास्तव में हकीकत क्या है? और उसका समाधान करने का प्रयास करें।

Sunday, September 16, 2012

मैं भी देशद्रोही हूं


मैं भी देशद्रोही हूं
संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों, जिसके अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निहित है, में सभी नागरिकों को अपना मत रखने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। मैं भी इस मंच के माध्यम से अपना मत रखने का प्रयास कर रहा हूं और हमेशा करता रहूंगा। यदि सच बोलना और सच को समाज के सामने लाना देशद्रोह के अंतर्गत आता है तो मैं भी यह गुनाह करने जा रहा हूं। और इस तरह के गुनाहों को रोकने के लिए सरकार के नामचीन नुमाईदे अपना भरकस प्रयास कर रहे हैं, करते रहेंगे। इस दबावपूर्ण प्रयास के बाद तो पत्रकारों, मीडिया वालों सचेत हो जाए, सर्तक हो जाए क्योंकि अगला नंबर आपका ही आने वाला है। हमें इस मुगालते में कदापि नहीं रहना चाहिए कि इस प्रचंड अग्नि की ज्वाला में वह खुद को बाल-बाल बचा सकते हैं। यहां तो केवल वही लोग बच सकते हैं, जिन पर सरकार की रहमत बरसती है या सरकार की कृपा दृष्टि पाने के लिए उन्हें सच को झूठ की चादर तले बार-बार तफन करना पड़ता है। और जो बिना किसी रोक-टोक के इनके काले कारनामों को प्रदर्शित करते हैं उन्हें तो यह सब हमेशा से झेलना पड़ा है और पडे़गा भी।
मैं इस बात के पक्ष में बिलकुल भी नहीं हूं कि, देश का कोई भी नागरिक भारत के राष्ट्रीय प्रतीक या राष्ट्रीय चिह्न का अपमान करे, उसकी गरिमा का धूमिल करने का प्रयास करे। परंतु यह नियम हर किसी पर उसी तरह लागू होना चाहिए जिस तरह से एक आम आदमी पर लागू किए जाते हैं। हालांकि ऐसा देखने को कहां मिलता है यहां भी कायदे-कानून को व्यक्ति की हैसियत के अनुसार बांट दिया जाता है जो जितना बड़ा रसूकदार, उसके लिए कानून की परिभाषाएं ही बदल दी जाती है। रही बात आम व्यक्ति की तो कानून बनते ही इन्हीं के लिए हैं ताकि अपराध की सजा और अपराध न करके भी सजा, दोनों भुगत सके। जिसके लिए मुझे उदाहरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं होती।
हां यह बात और है कि बड़े-बड़े (नेता, अभिनेता, राजनेता, खिलाड़ी और मंत्री) लोगों की करतूतों और इनके गिरेवान में झांका जाए तो यह लोग नंगों से भी गए-गजुरे निकलेंगे। क्योंकि यह रसूकदार लोग होते हैं। इसलिए इनके लिए राष्ट्र का, राष्ट्रीय प्रतीक तथा राष्ट्र ध्वज का अपमान करना कोई बड़ी बात नहीं है। इस सूची में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न, कपिल सिब्बल (उल्टा तिरंगा), सचिन तेंदुलकर (तिरंगे का केक काटना), सानिया मिर्जा (पैरों के सामने तिरंगा रखना), कांग्रेस पार्टी का पोस्टर (राष्ट्रीय स्तंभ में शेरों के स्थान पर राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, सोनिया गांधी) का मोखोटा लगाना। यह भी देशद्रोह के दायरे के अंतर्गत आता है, परंतु इन लोगों के खिलाफ कुछ भी नहीं किया गया। क्योंकि यह बड़े लोग हैं और बड़े लोगों की बड़ी बात भी होती है। वहीं असीम त्रिवेदी द्वारा बनाएं गए कार्टून पर सरकार द्वारा इस तरह की प्रतिक्रिया समझ से परे है शायद यहीं आ के सारे कायदे-कानून धरे-के-धरे रह जाते हैं। एक कहावत यहां बिलकुल सटीक बैठती है कि ‘‘तुम करो तो रासलीला, हम करें तो करेक्टर ढीला।’’
वैसे असीम ने राष्ट्रीय स्तंभ में शेरों के स्थान पर भेड़िया और सत्यमेव ज्यते के स्थान पर भ्रष्टमेव ज्येत लिखा तो क्या गलत किया। हो भी यही रहा है, पूर्व और भावी सरकार भेड़िया जैसा ही काम करती आ रही है और कर भी रही है। और आम जनता का खून चूस-चूसकर अपनी तिजौरी भरे जा रही है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण दिन-प्रतिदिन हो रहे अरबों-खरबों के घोटाले और सारा रूपया बिना डाकर के हजम, वो भी बिना हाजमोला के। यही तो चला आ रहा है। वहीं जनता तो अब घोटालों की आदी हो चली है। वह तो यह देखना चाह रही है कि घोटालों में घोटाला कब होगा। इसके अलावा जनता बेचारी कर भी क्या सकती है। यदि कोई सरकार के खिलाफ आवाज उठाने का प्रयास भी करता है तो उसकी आवाज को दबाने की पूरी कोशिश की जाती है। साम, दाम, दंड और भेद हर चीज का इस्तेमाल किया जाता है। जैस हमेशा से देखने को मिला है। क्योंकि यह करें तो चमत्कार, और हम करें तो बलात्कार।
इतना सब कुछ लिखने के उपरांत शायद सरकार की नजर में मैंने भी देशद्रोह का काम किया है। मुझे भी जेल में डाल देना चाहिए क्योंकि इस नाते तो मैं भी देशद्रोही ही हूं।

Sunday, September 9, 2012

सभी आतंकवादियों को होनी चाहिएः फांसी



सभी आतंकवादियों को होनी चाहिएः फांसी

भारत में फांसी को कठोरतम सज़ा के रूप में देखा जाता है। उच्चतम न्यायालय ने सन् 1983 में कहा था कि मौत की सज़ा दुर्लभ-से-दुर्लभ मामलों में ही दी जाए। हालांकि, इसके बाद भी देश में फांसी देने के कई मामले सामने आए। केंद्रीय गृह मंत्री रहे हमारे नए राष्ट्रपति पी. चिदम्बरम ने संसद में कहा था कि अफ़जल गुरू के अलावा 50 से अधिक लोगों की फांसी के मामले लटके हुए हैं। हाल ही के बरसों में अफ़जल गुरू के फांसी की सज़ा का मामला अधिक चर्चाओं में रहा। उसे वर्ष 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले में फांसी की सज़ा सनुाई जा चुकी है। इसके बाद मुंबई में हुए बम धमाको में अरोपी क़साब तथा गोधरा टेªन कांड में आरोपी 11 लोगों को भी फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है। यदि सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो यह स्पष्ट होता है कि 1975 से 1991 तक 40 लोगों को फांसी पर लटकाया जा चुका है। हालांकि, भारत में आज़ादी के बाद से अब तक के फांसी संबंध आंकड़ों को देखने पर इसमें काफी विरोधाभास दिखाई देता है। सरकारी आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 1947 से अब तक 55 लोगों को ही फांसी दी गई है। ‘‘लेकिन, पी.यू.सी.एल. ने 1965 में विधि आयोग के दस्तावेजों के हवाले से यह खुलासा किया कि 1953 से 1963 तक ही 1422 दोषियों को मौत की सज़ा हुई। आज़ादी से अब तक लगभग 4300 लोगों को फांसी हो चुकी है।’’
इस आलोच्य में कहें तो राजनैतिक धरातल पर खड़ी कसाब और कसाब जैसे बहुत-से लोगों की फांसी की सजा आज भी शियासी जंग की बलि चढ़ती जा रही है। जिस शख्स को अभी तक फांसी पर चढ़ा देना चाहिए था उसे सरकार खिला-पिलाकर पालने का काम कर रही है, बलि चढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि चढ़ने के लिए। भावी सरकार उन लोेगों के दर्द से बिल्कुल अनभिज्ञ बनी हुई है जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को आतंकी हमले में हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। सही बात है ‘‘जाकि फटी न बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी’’। इस आतंकी हमले में अगर इन नेताओं के परिजन होते तो शायद इनका दिमाग ठिकाने आता कि हम सांप को दूध पिलाने का काम कर रहे हैं जो कभी-न-कभी पलटकर वार जरूर करेगा। क्योंकि आतंकवादियों को जितना भी दूध क्यों न पिलाया जाए इनके जहर में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
वहीं समस्त मामले में मानवाधिकार आयोग का रवैया भी बड़ा हस्याप्रर्द नजर आता है वह भी इन मेढ़को को नहला-धुलाकर साफ करने के प्रयास में लगी है, परंतु वह यह नहीं जान रही कि जितना भी नहला-धुलाकर क्यों न साफ कर दिया जाए, जाएगा साला कीचड़ में ही। मैं और मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग मानवाधिकार आयोग और सरकार से इस प्रश्न का उत्तर अवश्य ही चाहते है कि जब मानवाधिकार आयोग और सरकार कहां सो रही थी जब ये आतंकवादी बेकसूर लोगों को मौत के घाट पर उतार रहे थे। शायद यह लोग चादर तानकर चैन की नींद सो रहे होगें। या फिर चढ़ावे का देश है चढ़ोत्री चढ़ने में देर नहीं लगती है। अपना काम बनना चाहिए फिर जनता भाड़ में जाए। क्या फर्क पड़ता है। तभी तो वह इस कसाब जैसे कसाई की सिफारिस करती नजर आती है और सरकार उसकी हां में हां मिलती हुई।
क्या सोच रही है सरकार, समझ से परे है। शायद इंतजार है कि किसी और आतंकवादी का, जो मासूम लोगों को अपनी बंदूक की नोंक पर लेकर अपने साथियों की रिहाई की मांग करे। क्यों नहीं चेत रही है सरकार, कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। चढ़ा देना चाहिए सभी आतंकवादियों को फांसी पर ताकि कोई और आतंकवादी हिम्मत न कर सके इस देश की सरजमीं पर कदम रखने की।